महात्मा बसवेश्वर का जन्म कर्नाटक में हुआ था। अनेक विषयों का अध्ययन करने के पश्चात् भक्त बसवेश्वर कल्याण के राजा बिज्जल के यहाँ मन्त्री हो गए। उन्होंने उस समय के लिए अभिनन्दनीय प्रयास प्रारम्भ किए। उनके जीवन का सबसे उत्तम तथा श्लाघनीय कार्य यह है कि उन्होंने नव समाज रचना की दृष्टि से ‘अनुभव मण्डप नाम से एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था वाला संघ खड़ा किया। किसी भी जाति के व्यक्ति को इसमें प्रवेश था। महिलाएँ भी इसकी सदस्य हो सकती थीं, किन्तु सदस्यों का सच्चरित्र होना आवश्यक था। ‘अनुभव मण्डप’ का ऐसा नियम था कि व्यक्तियों को जितना न्यूनतम आवश्यक है उतना ही धन वह लें और शेष धन सामाजिक कार्यों में लगायें।
अक्क महादेवी नामक एक योग्य संत कवयित्री भी ‘अनुभव मण्डप’ में थीं। ‘अनुभव मण्डप’ के कुछ प्रसिद्ध सदस्यों में माचिदेव (धोबी), चान्दय्या (रस्सी बनाने वाला), मुड्डय्या (कृषक), रेम्मावी (बुनकर), कन्नय्या (तेली), बसप्पा (बढ़ई), कक्कय्या (रंगरेज), हरलय्या (चर्मकार) भी थे। इस प्रकार भक्त बसवेश्वर ने शारीरिक श्रम की महत्ता तथा जीवन निर्वाह हेतु विविध प्रकार के व्यवसाय करने पर जोर दिया। भक्त बसवेश्वर ने शारीरिक श्रम की महत्ता स्थापित की और उसे प्रतिष्ठित किया। इसी दृष्टि से ‘कायकवे कैलास’, अर्थात् ‘शारीरिक श्रम ही कैलास याने ईश्वर है। कर्म के कारण कोई नीच या श्रेष्ठ नहीं होता, क्योंकि सभी कर्म ईश्वर समान हैं।’ उन्होंने जाति-पाँति के भेदभाव को समाप्त कर महिलाओं समेत सभी को सम्मान दिया। ‘अनुभव मण्डप’ के सभी सदस्य आपस में भाई समझे जाते थे।
मडिवाल माचय्या का वीर शैव संतों में एक प्रमुख स्थान है। यद्यपि इनका जन्म धोबी कुल में हुआ था किन्तु, उनकी निष्ठा शिव-शरणों में अत्यन्त प्रसिद्ध है। वे शिवशरणों के कपड़े धोकर अपनी आजीविका कमाते थे। माचय्या ने बचन लिखे तथा भक्ति-मार्ग का सीधा सरल उपदेश दिया। बसवेश्वर ने माचय्या की भक्ति की प्रशंसा करते हुए कहा है। “माचय्या केवल कपड़ों का मैल धोने वाले नहीं, अपितु मन के भी मैल को दूर करने वाले धोबी हैं। वे समता रूपी जल में शरीर को डुबाकर पंचेन्द्रियों के अवगुण रूपी मैल को ज्ञान रूपी जल से धोकर साफ करने में समर्थ हैं।” (दक्षिणी भारत की संत-परम्परा, पृ. 212)
‘अनुभव मण्डप’ के एक सदस्य मधुवरसा (ब्राह्मण) ने अपनी लड़की का विवाह हरलय्या (चमार) के लड़के के साथ कर दिया। उस समय की जाति व्यवस्था के अनुसार यह बहुत आश्चर्यजनक घटना थी, किन्तु इस विवाह को भक्त बसवेश्वर तथा ‘अनुभव मण्डप’ के अन्य सदस्यों ने अपनी सहमति दी थी। वहाँ के राजा को यह सामाजिक रूप से उचित नहीं लगा और उसने मधुवरसा तथा हरलय्या को मृत्युदण्ड दे दिया। भक्त बसवेश्वर बहुत दुखी हुए तथा कल्याण छोड़ कर चले गए। इस सबके पश्चात् भी भक्त बसवेश्वर निराश नहीं हुए। समाज के सभी प्रकार के भेदभावों को दूर करने के लिए वे प्रयास करते रहे। शरण बसवेश्वर कहते हैं :
नेलवोन्दे होलेगेरि शिवालयके। जलवोन्दे शौचाचमनक्के।।
अर्थात् ‘शूद्र बस्ती तथा शिवालय के लिए एक ही भूमि रहती है। उस भूमि में क्या अन्तर है? वह तो एक जैसी ही है। शौच तथा आचमन हेतु जल तो एक ही है। इसी प्रकार सभी मनुष्य समान हैं।’ भक्त बसवेश्वर कहते हैं कि :
इवनारव इवनारव इवनारव ऐन्नदिरय्या
इवनेम्मव इवनेम्मव इवनेम्मव एन्देनिसय्या।
अर्थात ‘किसी को भी यह कौन है? यह कौन है? यह कौन है? ऐसा मत पूछो। सभी के बारे में यही विचार करो कि वह अपना है, अपना है, अपना ही है।’ महात्मा बसवेश्वर का मानना है कि व्यक्ति अहंकार भाव को छोड़कर अपने आप को सबसे छोटा तथा शिवभक्तों को ही श्रेष्ठ माने। अपने इस भाव को वे निम्नलिखित वचन में कहते हैं:
एनगिन्त किरियरारिछा। शिवभक्तरिगिन्त, हिरियरिल्ला।
एक अन्य वचन में भक्त बसवेश्वर जातिगत विचार करने वालों को समझाते हुए कहते है :
जाति पिडिदु सूतकवनरसुवे, ज्योति पिडिदु कत्तलेयनरसुवे।
इदेको मरुल मानव ? जातियल्लि अधिकनेम्बे,
विप्र शतकोटि गलिद्दल्लि फलवेनु? भक्ति शिरोमणि एन्दुद् वचन।
नम्म कूडल संगम शरणर पाद परुषव नम्बु, केडबेड मानवा।
अर्थात् ‘जाति को पकड़कर अपवित्रता को ढूँढ़ रहे है, प्रकाश को पकड़कर अन्धकार को ढूँढ़ रहे हैं। हे पागल मनुष्य! यह सब क्यों चाहिए? जाति में क्या श्रेष्ठ है। निर्मल भक्ति एवं विश्वास रहित अनाचारी ब्राह्मण, शत कोटि होते हुए भी क्या परिणाम है? भक्ति ही श्रेष्ठ है ऐसा वचन-शास्त्र में कहा है। हमारे कूड़ल संगमदेव के भक्त के स्पर्शमणि जैसे चरणों में विश्वास करो। हे मनुष्य! बरबाद न होओ।’ बसवेश्वर किसी ग्रन्थ में प्रतिपादित उपदेशों या तात्विक दर्शन की अपेक्षा भक्तों के अनुभवों को अधिक महत्व देते थे। सामाजिक सुधारों की दृष्टि से ‘अनुभव मण्डप’ में वीरशैव मत से जुड़े संत समय-समय पर एकत्रित होकर आध्यात्मिक एवं सामाजिक समस्याओं पर विचारविनिमय करते थे। ‘अनुभव मण्डप’ के सदस्यों के माध्यम से भक्त बसवेश्वर सम्पूर्ण समाज में नैतिक जीवन-मूल्यों की पुनर्स्थापना पर बल देते हुए कहते हैं :
देवलोक मर्त्यलोकवेंबुदु बेरिल्ला काणिरो।
सत्यव नुडिवुदे देवलोक मिथ्यवनुडिवुदे मर्त्यलोक।
अर्थात् ‘देवलोक तथा मानवलोक कहीं और अलग नहीं अर्थात् यहाँ ही है। सच बोलने को ही देवलोक कहते हैं तथा असत्य बोलना मर्त्यलोक के समान है।’
शीरी के मतानुसारः “बसव का सरल, किन्तु दृढ़ विश्वास था कि सच्चा ईश्वरभक्त जातिवाद को कभी भी मान्यता नहीं देगा। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका मानना था कि जातिवाद तथा शिवभक्ति आपस में एक-दूसरे के विरोधी हैं। कोई भी व्यक्ति केवल इस कारण जन्मजात श्रेष्ठ नहीं हो सकता, क्योंकि उसने उच्च जाति में जन्म लिया है और न कोई इसी कारण से जन्म से ही निम्न माना जा सकता है, क्योकि उसन किसी निम्न जाति में जन्म लिया है।” (Untouchable Saints, Page, 46-47)
बसवेश्वर ने स्त्रियों के सम्मान तथा उनके सामाजिक योगदान हेतु प्रशसनाथ प्रयास किए। किशोर कुणाल लिखते हैं : “बसवेश्वर ने स्त्रियों को भी समता का अधिकार दिया और उन्हें समाज में अधिक प्रभावकारी बनाने के लिए अनेक प्रयास । बसवेश्वर युगीन 32 नारियाँ ‘वचनों’ की रचयित्रियाँ थीं, इनमें अक्क महादेवी, गनी महादेवी, मुक्टयक्का और लक्कम्मा के वचन उत्कृष्ट कोटि के हैं। बसव की बड़ी बदन नागम्मा तथा उनकी अपनी भार्याएँ- गंगाम्बिके और नीललोचने भी ‘वचन’ की जनाकार थीं। शूद्र श्रेणियों में से अम्मव्वे, पिट्टव्वे, सोम्मव्वे जैसी स्त्रियाँ भी वचनों की सर्जना करने में निपुण थीं।”
(दलित-देवो भव, द्वितीय भाग, पृ.205)
बारहवीं शताब्दी में बसवेश्वर दक्षिणी भारत की सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियों को युगानुकूल परिवर्तित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। ब्राह्मण परिवार में जन्मे बसवेश्वर समाज के सभी वर्गों को सम्मान दिलाने हेतु एवं उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए संकल्पबद्ध दिखते हैं। उनका स्थान फ्राँस के वाल्टेयर से कम नहीं आँका जा सकता। श्री शिव कुमार शिवाचार्य ने अपने उद्गारों में कहा है : “बसवन्ना महान् सामाजिक, धार्मिक सुधारक थे। उन्होंने अदम्य उत्साह के साथ हिन्दू समाज में उस समय व्याप्त सामाजिक एवं धार्मिक असमानता को समूल समाप्त करने का प्रयास किया।
उन्होंने यह उपदेश दिया कि सभी मनुष्य भाई हैं, दुराचार ही हीन जाति और सदाचार ही उच्च जाति है तथा धर्म सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व के ये सिद्धान्त इस देश के जनसाधारण के लिए एकदम नवीन थे। यह उनके लिए और विशेषकर नारियों के लिए, जिन्हें अन्धकारमय कोने में धकेल दिया गया था, बड़ा वरदान था। वे शायद प्रथम मसीहा थे, जिन्होंने श्रम की गरिमा को महिमा मण्डित किया था, क्योंकि उन्होंने सभी व्यवसायों की समकक्षता की वकालत की थी। (वही, द्वितीय भाग, पृ.209)
इस प्रकार भक्त बसवेश्वर ने वीरशैव मत के माध्यम से सम्पूर्ण समाज का अनेक प्रकार से मार्गदर्शन किया। आज से लगभग नौ सौ वर्ष पूर्व भक्त बसवेश्वर द्वारा सामाजिक समरसता के लिए किए गए उनके ये प्रयास आज भी आदर्श कहे जायेगे।
संदर्भ पुस्तक –भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता ; लेखक –डॉ कृष्ण गोपाल