संविधान की आत्मा भारतीय है

– “संविधान की आत्‍मा : भारतीय संस्‍कृति”

संविधान की आत्मा उसकी प्रस्तावना में निहित तत्वों, संप्रभुता, समाजवाद, पंथ निरपेक्ष, तथा लोकतंत्र में निहीत है I जो कि भारतीय जनता के अधिकारों के रूप में परिलक्षित होती है I प्रस्तावना के आरम्भ “हम भारत के लोग से स्पष्ट होता है कि उसकी आत्मा भारतीय है I”

भारत का संविधान पूरी तरह से भारतीय मूल्यों और ज्ञान परंपरा पर आधारित है. अक्सर कहा जाता है कि भारतीय संविधान विदेशी संविधानों से लिया गया पेंच वर्क मात्र है, परन्तु यह बात पूरी तरह से गलत है I ऋग्वेद की ऋचाओं में समता के सूत्र मिलते हैं I भारत विश्व का प्राचीन लोकतंत्र रहा है I

संविधान निर्माताओं ने देश के संविधान का निर्माण भारत की अपेक्षाओं, आवश्यकताओं और भविष्य को देखते हुए किया है I विधायिका, न्यायपालिका की व्यवस्था हमारे देश में पहले से ही थी I संविधान में जो अंग्रेजी शब्द उपयोग में लाये गए हैं वे पूरी तरह से भारतीय विचार के हैं I हमें अपने मूल्यों को देखकर संविधान को समझने की जरूरत हैI

संविधान की आत्मा भारतीय है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण संविधान में अंकित विभिन्न प्रष्ठों पर देखा जा सकता है I हमारा संविधान सभी को साथ लेकर चलता है जो कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा का मूल अंग है। संविधान के विभिन्न पृष्ठों पर शांति निकेतन के प्रसिद्ध चित्रकार नंदलाल बोस ने जो चित्र दिए हैं उनमें भारत का इतिहास, संस्कृति और ज्ञान परम्परा समाहित है. यह हमारे संविधान की बड़ी विशेषता है I इन चित्रों को सम्मलित करते समय संविधान निर्माताओं ने भारतीयता के दृष्टिकोण का पूर्णत: ध्यान रखा था I

इन चित्रों में वैदिक आश्रम व्यवस्था, रामायण में भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण के पुष्पक विमान से अयोध्या लौटने, गीता में भगवान् कृष्ण, गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सम्राट अशोक, गुप्तकालीन प्रतिमाएं, महाराजा विक्रमादित्य, नालंदा विश्वविद्यालय, उड़ीसा की प्रतिमाएं, नटराज प्रतिमा, महाबलीपुरम, अकबर, शिवाजी, गुरुगोविंद सिंह, महारानी लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, हिमालय, समुद्र सहित अन्य भारत के इतिहास को लगातार दिखाते हुए संविधान में स्थान दिया है।

भारतीय संविधान “हम भारत के लोगों” के लिए हमारी अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत जनित स्वतंत्रता एवं समानता के आदर्श मूल्यों के प्रति एक राष्ट्र के रूप में हमारी प्रतिबद्धता का परिचायक है। वर्तमान के आधुनिक भारत की संकल्पना के समय संविधान निर्माताओं ने इसी सांस्कृतिक विरासत को उसके मूल स्वरूप में अक्षुण्ण रखने के ध्येय से भारतीय संविधान की मूल प्रतिलिपि में सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्व के रुचिकर चित्रों को स्थान दिया, जो मूलतः भारतीय संविधान के भारतीय चैतन्य को ही परिभाषित करते हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा के अलोक में निर्मित भारतीय संविधान भारत की ऋषि परम्परा का धर्मशास्त्र है। भारतीय जीवन दर्शन का ग्रंथ है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां सबका सम्मान किया जाता है। वसुधैव कुटुम्बकम भारतीय संस्कृति का मूल आधार है। यह सनातन धर्म का मूल संस्कार है। यह एक विचारधारा है। महा उपनिषद सहित कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां वसुधैव कुटुम्बकम्।।

अर्थात यह मेरा अपना है और यह नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो संपूर्ण धरती ही परिवार है। कहने का अभिप्राय है कि धरती ही परिवार है। यह वाक्य भारतीय संसद के प्रवेश कक्ष में भी अंकित है। निसंदेह भारत के लोग विराट हृदय वाले हैं। वे सबको अपना लेते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के पश्चात भी सब आपस में परस्पर सहयोग भाव बनाए रखते हैं। एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहते हैं। यही हमारी भारतीय संस्कृति की महानता है।

उल्लेखनीय है कि भारत का संविधान बहुत ही परिश्रम से तैयार किया गया है। इसके निर्माण से पूर्व विश्व के अनेक देशों के संविधानों का अध्ययन किया गया। तत्पश्चात उन पर गंभीर चिंतन किया गया। इन संविधानों में से उपयोगी संविधानों के शब्दों को भारतीय संविधान में सम्मिलित किया गया। आजादी के बाद भारत का वैचारिक दृष्टिकोण भारतीय ज्ञान परम्परा के आलोक में विकास के पाठ पर खड़ा करने का प्रयास होना चाहिए था।

भारतीय संविधान की उद्देशिका

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में दिनांक 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

भारतीय संविधान की इस उद्देशिका में भारत की आत्मा निवास करती है। इसका प्रत्यके शब्द एक मंत्र के समान है। हम भारत के लोग- से अभिप्राय है कि भारत एक प्रजातांत्रिक देश है तथा भारत के लोग ही सर्वोच्च संप्रभु है। इसी प्रकार संप्रभुता- से अभिप्राय है कि भारत किसी अन्य देश पर निर्भर नहीं है। समाजवादी- से अभिप्राय है कि संपूर्ण साधनों आदि पर सार्वजनिक स्वामित्व या नियंत्रण के साथ वितरण में समतुल्य सामंजस्य। ‘पंथनिरपेक्ष राज्य’ शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। लोकतांत्रिक- से अभिप्राय है कि लोक का तंत्र अर्थात जनता का शासन। गणतंत्र- से अभिप्राय है कि एक ऐसा शासन जिसमें राज्य का मुखिया एक निर्वाचित प्रतिनिधि होता है। न्याय- से आशय है कि सबको न्याय प्राप्त हो। स्वतंत्रता- से अभिप्राय है कि सभी नागरिकों को स्वतंत्रता से जीवन यापन करने का अधिकार है। समता- से अभिप्राय है कि देश के सभी नागिरकों को समान अधिकार प्राप्त हैं। इसी प्रकार बंधुत्व- से अभिप्राय है कि देशवासियों के मध्य भाईचारे की भावना।

विचारणीय विषय यह है कि भारतीय संविधान ने देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार प्रदान किए हैं तथा उनके साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया। संघ भी इसी को मानता है I संघ ने कभी संविधान विरोधी कार्य नहीं किया न किसी संविधान विरोधी कार्य का समर्थन किया I किन्तु देश में आज भी ऊंच-नीच, अस्पृश्यता आदि जैसे बुराइयां व्याप्त हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में यह समस्या अधिक देखने को मिलती है। सामाजिक समरसता भारतीय समाज की खूबसूरती है, अस्पृश्यता से संबंधित अप्रिय घटनाएं भी चर्चा में रहती हैं। इन बुराइयों को समाप्त करने के लिए जागरूक लोगों को ही आगे आना चाहिए तथा सभी लोगों को अपने देश के संविधान का पालन करना चाहिए।

प्रस्तुति : विश्व संवाद केंद्र, कानपुर

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