संक्षिप्त परिचय
- विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय आदर्शों, मूल्यों एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेगबहादुर जी का अद्वितीय स्थान है। एक आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध समाज के सबसे शांत और अहिंसक व्यक्ति तक का क्या दायित्व बनता है- श्री गुरु तेगबहादुर जी का जीवन और उसकी रक्षा के लिए उनके द्वारा किया गया अपना सर्वोच्च बलिदान, इसका एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक उदाहरण है। सनातन हिन्दू स्वधर्म का पालन करते हुए इसकी रक्षा हेतु डाली गई आहुति लोगों में निर्भीक आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता के कितने उच्चतम प्रतिमान पुनर्स्थापित कर सकती है, इसे समझने के लिए गुरु तेगबहादुर से बेहतर कोई और व्यक्तित्व मिलना दुष्कर हैं।
- श्री गुरु तेगबहादुर का जन्म वैशाख कृष्ण पंचमी (1 अप्रैल 1621) को पंजाब के अमृतसर मुगल शासन में हुआ। वह सिक्खों के छठे गुरु, गुरु हरगोविंद की 6 संतानों में से एक थे, उनका असली नाम ‘त्याग मल’ था और उनकी माता का नाम ‘नानकी’ था।
- अमृतसर सिक्खों की आस्था का एक प्रमुख केंद्र था, गुरु तेगबहादुर को सिख संस्कृति के अनुरूप तीरंदाजी और घुड़सवारी में प्रशिक्षित किया गया। उन्हे वेदों, उपनिषदों और पुराणों , स्मृतियों सहित अनेकों धर्मशास्त्रों का भी अध्ययन कराया गया।
- श्री गुरू तेगबहादुर का विवाह 3 फरवरी 1633 को माता गुजरी के साथ हुआ। जिनसे उन्हें एक पुत्र श्री गुरु गोविंद राय ( गुरु गोविंद सिंह जी) की प्राप्ति हुई जो बाद में सिक्खों के 10वें गुरु बने ।
- 1644 में उनके पिता गुरु हरगोबिंद अपनी मृत्यु नजदीक आने का आभास होने पर अपनी पत्नी नानकी के साथ पैतृक गांव बकाला, अमृतसर (पंजाब) में चले गए, साथ ही गुरु तेगबहादुर और उनकी पत्नी माता गुजरी भी गए।
- गुरु हरगोविंद जी की मृत्यु के बाद गुरु तेगबहादुर जी काफी समय तक अपनी पत्नी और मां के साथ बकाला में ही रहे। वह हमेशा से ही एकांत और चिंतन को प्राथमिकता देते थे और शुरू से ही वैरागी जैसा जीवन जीते थे। उन्होंने अपनी धर्म का पालन करते हुए पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्र के प्रति दायित्वों का भरपूर निर्वहन किया। कालांतर में उन्होंने बकाला के बाहर भी यात्राएं की तथा आनंदपुर साहिब नामक नगर बसाकर वहीं रहने लगे।
गुरु तेगबहादुर : विभिन्न विद्वानों के वक्तव्य
- सिख विषय के विद्वान प्रोफेसर पशौरा सिंह कहते है “अगर गुरु अर्जन की शहादत ने सिख पन्थ को एक साथ लाने में मदद की थी, तो गुरु तेगबहादुर की शहादत ने मानवाधिकारों की सुरक्षा को सिख पंथ की पहचान बनाने में मदद की”।
- विल्फ्रेड स्मिथ ने कहा है, “नौवें गुरु को बलपूर्वक धर्मान्तरित करने के प्रयास ने स्पष्ट रूप से शहीद के नौ वर्षीय बेटे, गोविंद पर एक अमिट छाप डाला, जिन्होने धीरे-धीरे उसके विरुद्ध सिख समूहों को इकट्ठा करके इसका प्रतिकार किया। इसने खालसा पहचान को जन्म दिया।”
- गुरु गोविंदसिंह के पुत्र का वक्तव्य– “इस संसार में यह सर्वविदित है कि हम उस गुरु तेगबहादुर के पोते हैं जो दिल्ली गए और अपने धर्म को त्यागने के बजाय अपना सिर कलम करने का विकल्प चुना। अब तुर्कों (मुसलमानों) के इस समूह ने हमें जान से मारने की धमकी दी है लेकिन यह धर्म नहीं छोड़ेंगे। हम केवल तुर्कों के डर से नहीं मरेंगे। हम मरते दम तक हिंदू बने रहेंगे। समय हर किसी को एक दिन खा जाता है। आदरणीय भाई, चिंतन करें कि चार दिनों के इस जीवन के लिए हम अपना धर्म क्यों छोड़ दें?
- गुरु तेगबहादुर जी की 400वीं जयंती पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए आदरणीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आंधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे जिन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। साथ ही उन्होंने कहा कि उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर साहब के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, ‘हिन्द दी चादर’ बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे।
गुरु तेगबहादुर के कथन एवं शिक्षाएं
काहे रे बन खोजन जाही।।
सरब निवासी सदा अलेपा तेही संग समाई।।
अर्थात्, हे मनुष्य तू उसे जंगल में कहां खोज रहा है, वह जो कण-कण में विराजमान है वह हमेशा तुम्हारे साथ रहता है।
जन नानक सभ ही मै ही पूरन एक पुरख भगवानो।।
—-(राग बसंत हिंडोल महला 9, पृष्ठ 1186)
अर्थात् सभी में केवल एक ही ईश्वर का निवास है।
साधो गोबिंद के गुन गावउ।।
मानस जनमु अमोलकु पाइओ बिरथा काहि गवावउ।।
—–(गाउड़ी महल 9, पृष्ठ 21 9)
अर्थात्, हे मनुष्य, तू गोबिंद के गुण गा, अनमोल मानव जन्म पाकर इसे बर्बाद मत कर।
जग रचना सभ झूठ है जानि लोहु रे मीत।।
कहि नानक खिरु ना रहै जिउ बालू की भीति।।
…..(श्लोक 49, पृष्ठ 1429)
अर्थात् हे मनुष्य, यह संसार मिथ्या है, जिस प्रकार रेत की दीवार लंबे समय तक स्थिर नहीं रहती, उसी प्रकार यह संसार भी अधिक समय तक नहीं टिकता।
जतन बहुत सुख के कीए दुख कीओ न कोइ।।
कहु नानक सुनि रे मना हरि भावै सो होइ।।
…..(श्लोक 39, पृष्ठ 1428)
अर्थात् – मनुष्य सुख और उसकी लालसा की खोज में और भी अधिक दुख भोगता है, संसार में वही होता है जो ईश्वर को मंशा हो।
मगन रहिओ माइया मैं निस दिनि छुटी नमन की काई।।
…..(टोडी महला 9, पृष्ठ 718)
अर्थात् व्यक्ति दिन-रात माया के पीछे भागता है, लेकिन फिर भी मन की मैल दूर नहीं होती।
प्रानी रामु न चेतइ मदि माइआ कै अंधु।।
कहु नानक हरि भजन बिनु परत तहि जम फंध।।
…..(श्लोक 31, पृष्ठ 1428)
अर्थात्, माया में, चिंताग्रस्त प्राणी को ही मृत्यु का भय है, और इस भय से केवल हरि के साथ प्रेम प्राप्त करने वाला ही मुक्ति पा सकता है। गुरु नानक कहते हैं कि जो नाम सिमरन नहीं करते वे जीवन मरण के बंधन से मुक्ति नहीं पा सकते।
भारत में मुगलों का अत्याचार और गुरु तेगबहादुर
- गुरु तेगबहादुर जी ने मुगलकाल के सबसे क्रूरतम बादशाह औरंगजेब के शासनकाल को न केवल देखा बल्कि उसकी नीतियों के विरुद्ध अपना सर्वोच्च बलिदान भी दिया। औरंगजेब ने शासन की बागडोर संभालते ही आदेश दिया था कि कोई हिन्दू राज्य के कार्य में किसी उच्च स्थान पर नियुक्त न किया जाय तथा हिन्दुओं पर जजिया (कर) लगा दिया जाय।
- उस समय हिन्दुओं पर अनेकों कर और प्रतिबंध लगाये गये। प्रजा को स्वधर्म-पालन की भी स्वतंत्रता नहीं थी। बलपूर्वक धर्म-परिवर्तन कराया जाता था । किसी भी हिन्दू का धर्म, जीवन और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं था। भारत को कभी विश्व गुरु के पद पर आसीन करने और विश्व की सबसे समृद्ध अर्थ व्यवस्था बनाने का ज्ञान देने वाली पाठशालाएँ बल पूर्वक बन्द कराई जा रही थी और उनके स्थान पर धार्मिक कट्टरता और उत्पीड़न को प्रोत्साहन की शिक्षा देने वाले मदरसे खोले जा रहे थे।
- मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने हिन्दुओं के मठ व मंदिर तोड़ देने का आदेश दिया और इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार भली-भांति हो इस आदेश का पालन तुरंत प्रारम्भ हो गया। भारत में प्रसिद्ध बनारस का विश्वनाथ का मंदिर एवं मथुरा का केशवराय मंदिर शीघ्र ही इस आदेश के ग्रास बन गए। सभी सूबेदारों ने इस राजाज्ञा का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। इसी के परिणामस्वरूप सिखों का गुरुद्वारा भी खंडहरों में परिणत कर दिया गया।
- ऐसा लगता था कि औरंगजेब ने व्रत ले रखा हो कि वह भारत से सनातन हिन्दू संस्कृति का सर्वनाश करके ही शांत होगा। इस समय सिखों के नवम गुरु, गुरु तेगबहादुर सिख परम्परा का मार्गदर्शन कर रहे थे और उनकी हिन्दू धर्म के प्रति गहरी निष्ठा थी।
कश्मीरी पंडितों पर मुगलों के अत्याचार और गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान
- मुगलों के अत्याचार से क्षुब्ध होकर सैकड़ों कश्मीरी पंडितों का जत्था पंडित कृपाराम के नेतृत्व में गुरु तेगबहादुर के पास आनंदपुर साहिब आया और उन्हें बताया कि किस प्रकार इस्लाम स्वीकार करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है और हिंदुओं पर अत्याचार किया जा रहा है, उन्हें यातनाएं दी जा रही हैं।
- इस बात पर जब गुरु तेग बहादुर चिंतातुर होकर इसके समाधान पर विचार कर रहे थे तो इसी बीच उनके नौ वर्षीय पुत्र गोविन्द सिंह ने उनकी चिंता का कारण पूछा, पिता ने उनको समस्त परिस्थिति से अवगत कराया और कहा इनको बचाने का उपाय एक ही है कि मुझे अपने प्राणों का बलिदान करना होगा, जिससे लोगों की सुप्त आत्मा जग सके ,क्योंकि इसके बाद ही गुलामी और भय से ग्रस्त लोग जाग सकेंगे और अपनी कायरता और डर को भुलाकर अपने धर्म की रक्षा के लिए हँसते-हँसते मौत को गले लगाने के लिए खड़े हो सकेंगे।
- औरंगजेब द्वारा हिन्दूओं पर किए जा रहे अत्याचारों और अपने पिता की बात सुन गुरु जी के नौ वर्षीय पुत्र (गुरु गोविंद सिंह) ने कहा कि उनकी दृष्टि में इस काम के लिए आपसे बेहतर कोई और नहीं हो सकता।
- गुरु तेगबहादुर जी ने धर्म परिवर्तन के लिए हो रहे कश्मीरी पंडितों पर औरंगजेब के अत्याचार और हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन का बलिदान देने का निर्णय लिया और कश्मीरी हिन्दू बंधुओं से औरंगजेब तक यह संदेशा पहुंचाने को कहा कि बादशाह को कहलवा दो कि यदि हमारे गुरु (गुरु तेगबहादुर) जी इस्लाम कबूल लेंगे तो वे सब भी इस्लाम स्वीकार लेंगे ।
- यह संदेश औरंगजेब को भेज दिया गया। औरंगजेब के लिए किसी काफिर के लिए गुरु की पदवी और उनके नाम के साथ “बहादुर” शब्द का जुड़ा होना नागवार गुजरा , उसने गुरु द्वारा कश्मीर पंडितों के समर्थन को अपने अधिकार पर सीधे हस्तक्षेप के रूप में देखा। उसने तुरंत गुरु को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।
- गुरु तेगबहादुर जी को औरंगजेब की फौज ने गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद उन्हें करीब तीन-चार महीने तक कैद कर रखा गया और बाद में पिंजड़े में बंदकर 04 नवंबर 1675 को मुगल सल्तनत की राजधानी दिल्ली लाया गया।
- औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर से इस्लाम स्वीकार करने को कहा, तो गुरु साहब ने जवाब दिया: शीश कटा सकते है, पर झुक नहीं सकते।
- उन्हें डराने के लिए उनके साथ गिरफ्तार किए गए उनके शिष्य भाई मति दास के शरीर को आरे से जिन्दा चीर दिया गया, भाई दयाल दास को खौलते हुए पानी में उबाल दिया गया और भाई सति दास को कपास में लपेटकर जिंदा जलवा दिया गया।
- इसके बावजूद उन्होंने जब इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो आठ दिनों तक यातनाएं देने के बाद मार्गशीर्ष पंचमी संवत् सत्रह सौ बत्तीस को मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक पर भीड़ के सामने गुरु तेगबहादुर जी का सर कटवा दिया था।
- मुगल बादशाह ने दिल्ली के चाँदनी चौक में जिस जगह पर गुरु तेगबहादुर का सिर कटवाया था, उनकी स्मृति में उसी जगह पर आज शीशगंज गुरुद्वारा स्थित है।
- गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब क्रमशः उन स्थानों की याद दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया।
- गुरू जी ने हिंदू धर्म में अपनी आस्था, वैचारिक स्वतंत्रता की रक्षा तथा हिन्दू धर्म में वर्णित तीन ऋणों को चुकता करने के सिद्धांत का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए , इसलिए उन्हे सम्मान से ‘हिंद की चादर’ के नाम से जाना जाता है।
- उन्होंने मात्र 14 वर्ष की आयु में अपने पिता के साथ “करतारपुर की जंग” में मुगल सेना के खिलाफ अतुलनीय पराक्रम दिखाने के बाद उन्हें तेगबहादुर (तलवार के धनी) नाम मिला।
- सिखों के 8वें गुरु हरिकृष्ण राय जी की अकाल मृत्यु के बाद 16 अप्रैल 1664 को श्री गुरु तेगबहादुर सिखों को नौवें गुरु बने।
- अपनी शहादत से पहले गुरु तेगबहादुर ने 8 जुलाई 1975 को गुरु गोविंद सिंह जी को सिखों का दसवां गुरु नियुक्त कर दिया था।
- श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके द्वारा लिखें गए 115 शबद शामिल हैं।
गुरु तेगबहादुर जी की हिन्दू धर्म में गहरी निष्ठा
गुरु तेगबहादुर जी कि हिन्दू धर्म में गहरी निष्ठां थी। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब दीन मुहम्मदी में लाने का दृढ़ संकल्प कर औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर जी के समक्ष तीन विकल्प रखे 1. चमत्कार दिखाओ। 2. इस्लाम स्वीकार करो। 3. या फिर अपने प्राणों की आहुति दो। तब गुरु तेगबहादुर जी ने उसके प्रस्तावों का उत्तर देते हुए कहा-
तिन ते सुनि श्री तेगबहादुर। धरम निवाहनि बिखै बहादुर।
उत्तर भन्यो, धरम हम हिन्दू। अति प्रिय को किम करहिं निकन्दू।।
लोक परलोक उभय सुखदानी। आन न पाइया याहि समानी।
मति मलीन मूरख मति जोई। इसको त्यागे पामर सोई।
सुमतिवंत हम कहु क्यों त्यागहिं। धरम राखिवे नित अनुरागहिं।।
त्रितीए प्रान हाव की बात। सो हम सहै, अपने गात।
हिन्दू धरम रखहिं जग मांही। तुमरे करे बिनस यह नांही।।
अर्थात् “मेरा उत्तर है कि मैं एक हिंदू हूं और मुझे हिंदू धर्म पसंद है। कोई इसे कैसे नष्ट कर सकता है? यह इस दुनिया में और साथ ही दूसरी दुनिया में भी खुशी प्रदान करता है। इसके जैसा कोई दूसरा धर्म नहीं है। केवल एक विक्षिप्त व्यक्ति या एक मूर्ख तो उसे नीरस होने के लिए छोड़ सकता है। ऐसा व्यक्ति निश्चित ही इस लोक में अत्यन्त दुःख पाता है और यमराज भी उसको दण्ड देते हैं। हमारा अपने धर्म की रक्षा में नित्य अनुराग है। प्राण देने की जो तुमने तीसरी बात कही है, वह हमें स्वीकार है। शरीर पर प्रहार सहते हुए प्राणों की आहुति देकर और हम हिन्दू धर्म की रक्षा कर लेंगे और यह धर्म तुम्हारे प्रयास से नष्ट होने वाला नहीं है।
- ये शब्द गुरु तेगबहादुर जी की हिंदू धर्म के प्रति उनकी अटूट आस्था को दर्शाते हैं। यही कारण है कि उन्हें ‘हिंद की चादर’ (हिंदू धर्म का आवरण या हिंदू धर्म का रक्षक) कहा जाता था। जो लोग सिखों को हिंदुओं से अलग कहते हैं, वे इस निश्चित रूप से चादर को कुतरकर छेदकर देने वाले चूहे के समान हैं। गुरुओं की भक्ति सदैव हिंदू धर्म के प्रति और हिंदुओं में गुरुओं के प्रति बहुत सम्मान रहा है।
- गुरु तेगबहादुर जी के सुपुत्र एवं सिख परम्परा के दशम गुरु गोविन्द सिंह जी को जब अपने पिता के बलिदान होने का समाचार मिलता है, वह कह उठते हैं-
तिलक जूंजू राखा प्रभ ताका, कीनो बड़ौ कलूमहि साका।
साधनि हेति इती जिनी करी, सीसु दीआ पर सी न री।।
धरम हेत साका जिनि कीआ, सीसु दीआ पर सिरर न दीआ।।
‘अर्थात् प्रभु ने उनके तिलक और यज्ञोपवीत की रक्षा की, उन्होंने कलियुग में बहुत बड़ा बलिदान दिया। साधुओं के परित्राण के लिये उन्होंने अपना शीश कटवा दिया, किन्तु सी भी नहीं की। इन्होंने धर्म के लिये अपना शीश दे दिया पर स्वधर्म निष्ठा नहीं छोड़ी।’
- गुरु तेगबहादुर जी को फांसी दिए जाने के कारण मुस्लिम शासन और उत्पीड़न के विरुद्ध हिन्दुओं (विशेष रूप से सिखों) का धर्म रक्षा का संकल्प और भी दृढ़ हो गया जो आगे चलकर गुरु गोविंद सिंह द्वारा खालसा राज की स्थापना के रूप में फलीभूत हुआ।
- वस्तुतः गुरु तेगबहादुर जी एवं समस्त सिख परम्परा का धर्म वैदिक हिन्दू धर्म ही रहा है। यदि त्रेतायुग में राम ने रावण के आतंक से मुक्ति दिलायी थी तो मध्ययुग में गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब की आसुरी शक्ति के आगे नतमस्तक न होकर भारतीयता को गौरवान्वित किया। यह एक सन्त के बलिदान का ही प्रभाव था कि अकबर ने जिस मुगल सत्ता को भारत में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित किया था, जहाँगीर और शाहजहाँ ने जिसे स्थिरता प्रदान की थी, औरंगजेब के जीवन काल में उसकी नींव हिल गयी। उसके इस संसार से प्रयाण करते ही मुगल सत्ता का सूर्य भी हमेशा के लिए अस्त हो गया।
“तिलक जझू राखा प्रभ ताका । कीनों वडो कलू में साका ।।
धर्म हेत साका जिन काया । सीस दीया पर सिरड़ न दिया ।।
धर्म हेत इतनी जिन करी । सीस दिया पर सी न उचरी ।।“
धन्य हैं ऐसे महापुरुष जिन्होंने अपने धर्म में अडिग रहने के लिए एवं दूसरों को धर्मांतरण से बचाने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की भी बलि दे दी।
यही बात भगवातगीता में भी कही गई है-
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।
अर्थात् अच्छी प्रकार आचरण में लाया हुआ अपना गुणरहित धर्म भी दूसरे के धर्म से अधिक उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याण कारक है और दूसरे का धर्म भय को ही देने वाला है।
संदर्भ-ग्रन्थ
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- देवेन्द्र स्वरूप & सीताराम गोयल (1985) हिन्दू सिख संबंध ( अंग्रेजी संस्करण )
- खुसवंत सिंह (1989) Many Moods, Many Faces, New Delhi :Rupa
- Koenraad Elst (2002) Who is a Hindu? Hindu Revivalist Views of Animism, Buddhism, Sikhism, and Other Offshoots of Hinduism, New Delhi: Voice of India
- Jaswinder Singh, Commemorating the 400th Birth anniversary of Guru Tegh Bahadur Sahib Ji, Sikh Centre Central Sikh Gurdwara Board Singapore
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