मीराबाई जिन्हें राधा का अवतार भी माना जाता है, उनका जन्म संवत 1556-57 या 1498 A.D में, मौजूदा राजस्थान के एक छोटे से राज्य मारवाड़ के मेड़ता में स्थित कुरखी गांव में हुआ था। वह एक महान संत, हिंदू रहस्यवादी कवि और भगवान कृष्ण के भक्त के रूप में जानी जाती हैं।
वह भक्तमाल काव्य मे वर्णित भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख पात्र के रुप में व्यापक रूप से विख्यात हैं। भक्तमाल- ब्रज भाषा मे लिखित एक काव्य संग्रह हैं, जिसमे दो सौ से अधिक भक्तों की लघु जीवन गाथाओं का वर्णन है। मीराबाई के जीवन दर्शन का बहुत ही महत्व और प्रासंगिकता है, क्योंकि उनके जीवन की कहानी उन मिथ्या मान्यताओं का खंडन करती है, जो यह बताती हैं कि प्राचीन समय में भारतीय महिलाओं के लोक जीवन मे रचनात्मकता का अभाव था।
उनका जीवन भारतीय महिलाओं के बारे में आम धारणा को पुष्ट करता है कि भारत में महिलाओं का जीवन मात्र विवाह करना ,अपने घर को बसाना और पारिवारिक जीवन को समर्पित करना जैसे घरेलू दायित्वों और “कर्तव्यों” तक ही सीमित नहीं रहा है । मीराबाई का जीवन भारतीय संस्कृति और विशेष रूप से भक्ति परंपरा में विषम परिस्थितियों में भी भारतीय नारी की शक्ति, भक्ति की शक्ति और उसकी अविरल रचनात्मकता की विरासत और संभावनाओं के बारे में एक अतिरिक्त अध्याय जोड़ता है।
महत्वपूर्ण बिंदु
- उनकी (मीरा) बचपन की सादगी, ईश्वर के प्रति गहरी श्रद्धा, गहन आध्यात्मिक जिजिविषा और आत्मीय काव्य मीरा के ईश्वर-भक्ति में डूबे भजनों को भारत की एक राष्ट्रीय धरोहर बनाते हैं, जिन्होंने क्षेत्रीय, भाषाई और राजनीतिक बाधाओं को पार किया है और पूरे भारत में गाए जाते है।
– वी.के. सुब्रमण्यन की “मीरा के रहस्यवादी गीत” -2008 मे उद्धृत
- मीरा के भजन! वे सुंदर कैसे नहीं हो सकते? मैं मीराबाई के कई भजनों से बहुत परिचित हूं। मेरे साबरमती आश्रम में प्रेम और भक्ति के साथ, ये भजन बार-बार गाए जाते हैं उनके भजनों से दुर्लभ आनंद का अनुभव होता है।
-महात्मा गांधी , मीराबाई पर अन्य से उद्धृत
- संत मीराबाई भारत की महिला संतों में सबसे प्रसिद्ध हैं और उन्हें दुनिया के मनीषियों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सकता है।
-स्वामी यतीश्वरानंदजी “मीराबाई पर अन्य” में
- प्रेम कुछ अत्यंत ही निःस्वार्थ है, जिसमें उस वस्तु के महिमामंडन और आराधना से परे कोई विचार नहीं है, जिस पर हमारा स्नेह टिका होता है। यह एक गुण है जो झुकता है और पूजा करता है और बदले में कुछ भी मांग नहीं करता है। सच्चे प्रेम के लिए एक मात्र प्रेम के अनुरोध की आवश्यकता होती है। हिंदू संत (मीराबाई) के बारे में कहा जाता है कि जब उनका विवाह हुआ, तो उन्होंने अपने राजा पति से कहा था कि वह पहले से ही विवाहित है।
राजा ने पूछा “किससे? ” तो उनका उत्तर था “भगवान,”
-स्वामी विवेकानंद “मीराबाई पर अन्य” में
- मीरा की शैली में कुछ भी अत्याधिक गढ़ा हुआ नहीं है, और उनकी कविता में कोई कामुक तत्व नहीं है। लेकिन उनके साथ वे एक गहरी और व्यक्तिगत रूप से भावना व्यक्त करने के लिए उपयोग किए जाने वाले उपकरण हैं। वह संत-कवियों के तरीके से भगवान के साथ रहस्यमय मिलन के प्रतीक के रूप में विवाह-शय्या का उपयोग कर सकती हैं, या भक्त की तत्परता के प्रतीक के रूप में प्रभु को वह सब दे सकती है जो उसकी शक्ति में है। लेकिन मीरा की कविताओं में कामुकता के साथ छेड़ी गई भक्ति भावनाओं में प्रचुरता की प्रवृत्ति नहीं है -ए.जे. अल्बर्ट “मीराबाई पर अन्य” में
- मीरा ने कृष्ण के लिए उनके प्रेम को इतनी सरलता और सटीकता के साथ गाया कि उनके गीतों में लाखों लोगों ने अपने-अपने ईश्वर-उत्थान की आवाज और गूंज पाई। – राम स्वरूप, ध्यान: योग, देवता, धर्म, 2000
- मीरा को जितनी चुनौती दी गई और सताया गया, वह धार्मिक या सामाजिक परम्पराओ के कारण नहीं था, बल्कि सबसे बड़ा संभावित कारण राजपूत साम्राज्य और मुगल साम्राज्य के बीच राजनीतिक अराजकता और सैन्य संघर्ष थे।
– नैन्सी मार्टिन-केर्शव (1995) अपने प्रभु के रंग में रंगे हुए
विस्तृत जीवनी
यद्यपि, मीराबाई की सटीक जन्मतिथि के बारे में कोई प्रमाणिक अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन विद्वानों ने मध्यकालीन साहित्य के माध्यम से मीरा की जन्मतिथि बताने का प्रयास किया है। ऐसा माना जाता है कि मीराबाई का जन्म 1498 ई. में मेड़ता के कुरकी गाँव में हुआ था, जो राजस्थान राज्य की एक सामंती राज्य था। वह राजा राव दुदाजी के छोटे बेटे रतन सिंह राठौर की बेटी थी। रतन सिंह ने अपना अधिकांश समय मुगलों से लड़ने में घर से दूर बिताया। युद्ध में लड़ते हुए कम उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। मीरा बाई की मां की भी मृत्यु उस समय हो गई जब मीरा लगभग सात साल की थी। इसलिए, एक बच्चे के रूप में मीरा को कम माता-पिता की देखभाल और स्नेह मिला। मीरा को उनके दादा राव दुदाजी ने पाला था। उनसे मीरा ने धर्म, राजनीति और सरकार की शिक्षा प्राप्त की, वह संगीत और कला में भी अच्छी तरह से शिक्षित थीं।
मेड़ता के राठौर विष्णु के बड़े भक्त थे। वैष्णव प्रभाव के बीच मीरा बाई का पालन पोषण हुआ , जिसके कारण उनका मन भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति के मार्ग में रंग गया । उन्होने बचपन से ही श्री कृष्ण की पूजा करना सीख लिया था। जब वह चार साल की थी, तब उन्होने अपनी धार्मिक प्रवृत्ति प्रकट की। एक बार उनके निवास के सामने एक बारात आई थी। दुल्हा अच्छी तरह से सज धजकर तैयार था। मीरा, जो उस समय मात्र एक अबोध बच्ची थी, ने दुल्हे को देखा और अपनी माँ से बाल सुलभ प्रश्न पूंछा, “प्रिय माँ, मेरा दुल्हा कौन है?” मीरा की माँ मुस्कुराई और श्री कृष्ण की छवि की ओर इशारा करते हुए कहा, “मेरी प्यारी मीरा, भगवान कृष्ण- यह सुंदर छवि – आपका दुल्हा है”।
कुछ समय बाद, एक विचरण करने वाले ऋषि मीरा के पास आये। उनके साथ भगवान कृष्ण की एक मूर्ति थी। गढ़ शहर छोड़ने से पहले, उन्होंने मूर्ति को मीरा को सौंप दिया। उन्होंने यह भी सिखाया कि कैसे भगवान की पूजा करें। मीरा प्रसन्न थी।
बाल मीरा कृष्ण की मूर्ति से बहुत प्यार करने लगी। वह अपना अधिकतर समय मूर्ति को नहलाने और उसे संजाने-संवारने में लगाती रही । मीरा उस प्रतिमा की पूजा करती और छवि के साथ सोती थी। वह परमानंद में छवि के बारे में नृत्य करती थी । उसने छवि के सामने सुंदर गीत गाती थी। वह मूर्ति से बात करती थी।
अपनी मां के कहे शब्दों को याद करते हुए, मीरा भगवान कृष्ण की मूर्ति की सेवा अपने पति के रूप मे करने लगी। समय बीतता गया और मीरा का अपने भगवान के प्रति समर्पण इस हद तक बढ़ गया कि वह स्वयं को उनके साथ विवाहिता के रूप में देखने लगी।
मीरा के पिता ने उनकी शादी मेवाड़ में चित्तौड़ के राणा कुंभा के साथ कर दी। मीरा एक कर्तव्यपरायण पत्नी थी। वह अपने पति की आज्ञाओं का पालन करती। अपने घरेलू कर्तव्यों के समाप्त होने के बाद, वह भगवान कृष्ण के मंदिर में जाती थीं, पूजा करती थीं, गाती थीं और प्रतिदिन उनकी छवि के सामने नृत्य करती थीं। छोटी मूर्ति उठाती, मीरा उसे गले लगाती, बांसुरी बजाती और उससे बातें करती।
धीरे-धीरे मीरा अपनी साधना के लिए अधिक समय देने लगी। वो नृत्य करती थीं और मंदिर में देवता के सामने घंटों भजन गाती थी। भक्त उनके गीतों को सुनने के लिए दूर-दूर से आते थे।
फिर मीरा वृंदावन चली गईं। वहां उन्होंने एक साध्वी के रूप मे अपना जीवन बिताया और कविताओं को लिखने, अन्य ऋषियों के साथ प्रवचन करने और उनके साथ संवाद करने का कार्य किया। उन्होंने भगवान कृष्ण से जुड़े स्थानों पर जाकर तीर्थयात्रा भी की।
उनकी लोकप्रियता दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी और हर जगह भक्त उनके पास उनके शब्दों को सुनने और उनका गाना सुनने की आस में मीरा के चारों ओर इकट्ठा हो जाते थे ।
उन्होंने अपने अंतिम दिन द्वारका में गुज़ारे, जहां भगवान कृष्ण और उनके वंश को मथुरा में उनके मूल घर को छोड़ने के बाद रहने को कहा गया था। यहां 1547 में, मीराबाई ने अपने प्रभु के साथ एकजुट होने के लिए अपना नश्वर शरीर छोड़ दिया। यह ठीक से ज्ञात नहीं है कि मीराबाई की मृत्यु कैसे हुई। लोककथाओं के अनुसार वह भगवान कृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गई और उसके साथ एक हो गई।
मीरा जैसे अद्भुत व्यक्तित्व के समानांतर दूसरा उदाहरण खोजना बहुत मुश्किल है। मीरा, एक संत, एक दार्शनिक, एक कवि और एक ऋषि होने के साथ साथ बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न एक विलक्षण व्यक्तित्व की महिला थीं। उनके व्यक्तित्व में असाधारण सुंदरता और चमत्कार के साथ एक विलक्षण आकर्षण था । वह एक राजकुमारी थी, लेकिन उन्होंने अपने उच्च लक्ष्यों के लिए सुख और विलासिता को छोड़ दिया, इसके बजाय उन्होंने गरीबी, तपस्या, त्याग और वैराग्य का जीवन चुना। यद्यपि वह एक कोमल युवती थी, लेकिन विभिन्न कठिनाइयों के बीच उन्होंने आध्यात्मिक पथ पर कठिन यात्रा का मार्ग चुना । वह अदम्य साहस और निडरता के साथ कई समकालीन परीक्षाओं से गुजरी। वह अपने संकल्प में अडिग रही। उनके पास एक विशाल इच्छाशक्ति थी।
आज, मीराबाई को भारत की महान महिला संतों में से एक माना जाता है और उनके भजन आज भी गाए जाते हैं। इसके अलावा, उनके सम्मान में सैकड़ों गीत रचे गए हैं और उनके लिए समर्पित त्यौहार हैं जो राजस्थान और अन्य क्षेत्रो में दशहरा के समय मनाए जाते हैं। मीरा आज भी भारतीयों के हृदय मे जीवंत है।
संदर्भ
Bankey Behari , The Story of Mira Bai. Gita Press, Gorakhpur, 1935
Goetz, Hermann, Mira Bai: Her Life and Times, Bombay 1966
Nancy M Martin-Kershaw, Dyed in the color of her Lord: multiple representations in the mirabai tradition, Univ. of California, Berkeley ,1996
Sethi, V.K.: Mira-The Divine Lover; Radha Soami Satsang Beas, Punjab, India, 1988