गुरु पूर्णिमा : आषाढ़, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा

भारत में गुरुपूर्णिमा का पर्व केवल एक तिथि नहीं, बल्कि एक जीवंत परंपरा है – जो प्राचीन काल से हमारे जीवन और चिंतन का अभिन्न अंग रही है। यह पर्व न केवल ऐतिहासिक महत्व रखता है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का मूल स्रोत भी है। हमारे धर्मग्रंथों, महाकाव्यों, दर्शनों और लोक परंपराओं में गुरु का स्थान सर्वोच्च माना गया है – कहीं गुरु रूप में कोई संत, कहीं ऋषि-महर्षि, और कहीं स्वयं भगवान तक को प्रतिष्ठित किया गया है। और कहीं गुरु के रूप में केसरिया ध्वज — एक चेतन प्रतीक, जो त्याग, तप और तेज का प्रतिनिधि है।

भारत की परंपरा में गुरु और भगवा ध्वज — दोनों किसी व्यक्ति या वस्तु मात्र नहीं, बल्कि तत्त्व हैं। जहाँ गुरु अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है, वहीं भगवा ध्वज त्याग और बलिदान की प्रेरणा देता है। इतिहास साक्षी है कि जब भी देश पर संकट आया, हमारे वीरों ने केसरिया ध्वज को गुरु मानकर रणभूमि में उतरने का संकल्प लिया।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस परंपरा को युगानुकूल रूप में अपनाया। डॉ. हेडगेवार ने आज से सौ वर्ष पूर्व जिस संगठन की नींव रखी, उसमें कोई व्यक्तिगत गुरु नहीं था — बल्कि एक ध्वज था, जो प्रेरणा भी है और दिशा भी। उसी ध्वज के सम्मुख स्वयंसेवकों ने राष्ट्रसेवा का व्रत लिया। वह ध्वज केवल एक रंग या कपड़ा नहीं है — वह भारत के चरित्र, समर्पण और संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। आज भी संघ के स्वयंसेवक, इसी भगवा ध्वज से प्रेरणा लेकर, आपदा और संकट के समय राष्ट्र के लिए तन-मन-धन से सेवा में जुटते हैं।

गुरु पूर्णिमा का महत्त्व 

गुरु-शिष्य परंपरा की शुरुआत स्वयं ब्रह्मा–विष्णु–महेश से मानी जाती है और वेदों में ‘श्रुति’ परंपरा के माध्यम से यह ज्ञान गुरु से शिष्य तक पहुँचाया गया।

वेदव्यास जी को गुरु पूर्णिमा के साथ विशेष रूप से जोड़ा जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों का विभाजन कर चार वेदों की रचना की – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। अतः यह दिन उनके प्रति श्रद्धा के रूप में मनाया जाता है।

इसलिए गुरु पूर्णिमा को ‘व्यास पूर्णिमा’ भी कहते हैं। महर्षि व्यास ने राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान आदर्शों को चित्रित करते हुए, विचार तथा आचारों का समन्वय करते हुए, न केवल भारतवर्ष का अपितु सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। इसलिए भगवान वेद व्यास जगत के गुरु हैं। इसीलिए कहा है- ‘व्यासोनारायणं स्वयं’। इसी दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।[1]

रामायण और महाभारत

रामायण और महाभारत में गुरु को केवल शिक्षा देने वाले नहीं, बल्कि धर्म, नीति और मोक्षमार्ग के पथप्रदर्शक के रूप में देखा गया है। गुरु स्वयं जीवन का प्रकाश हैं, और गुरु पूर्णिमा उसी परंपरा की स्मृति है।

महर्षि वशिष्ठ न केवल राजा दशरथ के कुलगुरु थे, बल्कि उन्होंने श्रीराम, श्रीलक्ष्मण, श्रीभरत और श्रीशत्रुध्न को वेद, धर्म, नीति और राज्यशास्त्र की गहन शिक्षा दी। उनका शिक्षण केवल शास्त्रों तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने धर्मराज्य की अवधारणा को भी प्रतिपादित किया और राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अयोध्याकांड में उनकी विद्वत्ता का उल्लेख करते हुए भगवान श्रीराम स्वयं कहते हैं : वशिष्ठो नाम में राजा, धर्मज्ञो वेदपारगः। प्रब्रूहि धर्मं धर्मज्ञ, यस्त्वं धर्मार्थतत्त्ववित्॥, अर्थात् मेरे गुरु वशिष्ठ धर्म के ज्ञाता और वेदों में पारंगत हैं; हे धर्मज्ञ, आप धर्म का उपदेश दें। यह स्पष्ट करता है कि वशिष्ठ केवल गुरु ही नहीं, धर्म और कर्तव्य के जीवंत प्रतीक थे।

महर्षि विश्वामित्र, श्रीराम और श्रीलक्ष्मण के युद्ध-गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हैं। उन्होंने दोनों राजकुमारों को ताड़का और मारीच जैसे राक्षसों से युद्ध करना सिखाया और उन्हें गायत्री मंत्र, बाला और अतिबाला जैसी दिव्य विद्याओं की दीक्षा दी। यह केवल युद्ध कौशल नहीं था, बल्कि आत्मशक्ति, संयम और धर्मरक्षा की शिक्षा भी थी। महर्षि विश्वामित्र की दीक्षा के बाद ही श्रीराम एक साधारण राजकुमार से धर्म-रक्षक योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित हुए और आगे चलकर उन्होंने राक्षसी शक्तियों का विनाश कर लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त किया।

भगवान हनुमान – भगवान श्रीराम संवाद में भक्ति, सेवा और शिष्यत्व की चरम अभिव्यक्ति मिलती है। यद्यपि श्रीहनुमान परम बलवान, ज्ञानी और सिद्ध थे, फिर भी उन्होंने स्वयं को भगवान् श्रीराम का शिष्य माना और पूर्ण समर्पण के साथ उनकी सेवा में जीवन अर्पित कर दिया। श्रीहनुमान ने अपने कर्म और वचन से बार-बार यह दर्शाया कि उनके लिए सबसे बड़ा धर्म रामकाज है। जैसा कि वे कहते हैं : रामकाजु कीन्हे बिनु मोहि कहां विश्राम, अर्थात “राम का कार्य किए बिना मुझे विश्राम नहीं। यह पंक्ति श्रीहनुमान के भीतर स्थित शिष्य भाव, सेवा वृत्ति और गुरु–भक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है, जहाँ उन्होंने राम को केवल आराध्य नहीं, अपितु जीवन-मार्ग दर्शाने वाले गुरु के रूप में स्वीकार किया।

महाभारत में गुरु की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण और निर्णायक रही है, विशेषकर द्रोणाचार्य के रूप में। द्रोणाचार्य ने कौरवों और पांडवों सहित सभी राजकुमारों को धनुर्विद्या की शिक्षा दी, परंतु अर्जुन को उनकी एकाग्रता, समर्पण और गुरु-सेवा के कारण विशेष प्रिय माना। उन्होंने केवल युद्धकला ही नहीं, बल्कि एक सच्चे शिष्य के गुण भी सिखाए। अर्जुन ने स्वयं द्रोण से कहा : गुरुवर, शिष्यतां यदि त्वं मां स्वीकारयेत्, तदा केवलं न धनुर्विद्या, अपितु धर्मं भी ज्ञातुमिच्छामि। अर्थात् गुरुदेव, यदि आप मुझे शिष्य रूप में स्वीकार करें, तो मैं केवल धनुर्विद्या ही नहीं, बल्कि धर्म का भी ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ।

भगवान कृष्ण न केवल अर्जुन के मित्र और सारथी थे, बल्कि उनके गुरु भी बने। महाभारत के युद्धभूमि में जब अर्जुन मोहवश शस्त्र त्याग कर बैठ गए, तब कृष्ण ने उन्हें केवल युद्ध का ही नहीं, बल्कि धर्म, आत्मा, ब्रह्म, कर्म, और मोक्ष का ज्ञान दिया। श्रीमदभगवद्गीता में अर्जुन स्वयं को कृष्ण के चरणों में समर्पित करते हुए कहते हैं : शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। (गीता 2.7) अर्थात मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे उपदेश दें, मैं आपकी शरण में हूँ।

आगे चलकर भगवान कृष्ण ज्ञान की महिमा बताते हुए कहते हैं : न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। (गीता 4.38) अर्थात इस संसार में ज्ञान के समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है।

गुरु की महिमा – भारतीय ग्रंथों में

  • गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरु साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

(यह श्लोक शिव-पुराण में भी मिलता है और गुरु को त्रिदेवों का साक्षात् स्वरूप बताया गया है।)

  • ध्यानमूलं गुरुर्मूर्तिः पूजामूलं गुरुर्पदम्। मंत्रमूलं गुरुर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरुक्रपा॥

(स्कन्द पुराण के अनुसार गुरु की मूर्ति ध्यान का आधार है, उनके चरण पूजन का आधार हैं, उनके वचन मंत्र का स्रोत हैं और उनकी कृपा ही मोक्ष का कारण है।)

  • तमसो मा ज्योतिर्गमय (बृहदारण्यक उपनिषद, 1.3.28)

(यह प्रार्थना गुरु से ही संबंधित मानी गई है, क्योंकि वही अज्ञान – तमस से ज्ञान – ज्योति की ओर ले जाता है।)

  • अच्छार्याय प्रियं धनं आहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवचेत्सीः (तैत्तिरीय उपनिषद, 1.11.1)

(इसमें शिक्षा, आचार्य, ब्रह्मचारी और गुरुकुल की परंपरा का उल्लेख है। आचार्याय प्रियम् दद्यात् – शिष्य को चाहिए कि वह आचार्य को प्रिय वस्तु अर्पित करे। इसका उद्देश्य गुरु के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता प्रकट करना है।)

  • तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् (मुण्डक उपनिषद 1.2.12)

(उस ब्रह्मज्ञान को पाने के लिए शिष्य को गुरु के पास जाना चाहिए।)

  • यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ (श्वेताश्वतर उपनिषद 6.23)

(जिस व्यक्ति की भगवान में जैसी भक्ति हो, वैसी ही यदि गुरु में भी हो, तो वही ज्ञान प्राप्त करता है।)

अतः हम यह कह सकते हैं कि उपनिषदों में गुरु के बिना आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान असंभव माना गया है। गुरु न केवल ज्ञान का माध्यम है, बल्कि अनुभव और बोध का प्रवेशद्वार भी है।

भारतीय दर्शनों में गुरु का महत्व

भारतीय दर्शन में गुरु का स्थान अत्यंत उच्च, केंद्रीय और अपरिहार्य माना गया है। चाहे वह वेद-उपनिषद हों, योग-दर्शन हो, वेदांत, भक्ति परंपरा, या तांत्रिक और बौद्ध-जैन पंथ—हर एक दर्शन-परंपरा में गुरु को ज्ञान का स्रोत, मोक्ष का मार्गदर्शक, और साक्षात ब्रह्म का रूप माना गया है।

  • श्रद्धा-वीर्य-स्मृति-समाधि-प्रज्ञा-पूर्वक इतरेषाम् (योगसूत्र, 1.20)

(ध्यान, तप, अनुशासन की प्रक्रिया को गुरु द्वारा सुनियोजित किया जाता है।)

  • गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥

(आदि शंकराचार्य ने गुरु को साक्षात् ब्रह्म बताया है : ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति गुरु के बिना संभव नहीं। श्रवण, मनन, निदिध्यासन की त्रयी गुरु की कृपा से ही पूर्ण होती है।)

  • बुद्धं सरणं गच्छामि। धम्मं सरणं गच्छामि। संघं सरणं गच्छामि॥ (त्रिशरण/त्रिरत्न श्लोक -पालि)

(यह श्लोक बौद्ध दर्शन के मूल प्रवेश मंत्र के रूप में उपयोग होता है। संघं सरणं गच्छामि में संघ (गुरु समुदाय) की महिमा स्थापित है।)

  • गुरुरेव गतिर्नास्ति यस्य ज्ञानप्रकाशकः। संसारदुःखनाशाय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ (बौद्ध तांत्रिक ग्रंथ)

(जिस गुरु ने ज्ञान का प्रकाश दिया है और संसार के दुःखों का नाश करने में मार्गदर्शक बना है, उसके अतिरिक्त कोई गति नहीं – ऐसे गुरु को नमस्कार है।)

  • णमंति सव्वे तीहिं – अरिहंते, सिद्धे, साहूणं। (जैन दर्शन)

(नमन करते हैं सब तीन को – अरिहंतों को, सिद्धों को और साधुओं को।)

भक्ति दर्शन में गुरु को परमात्मा तक पहुँचने का एकमात्र सेतु माना गया है। चाहे वह रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत हो, मध्वाचार्य का द्वैतवाद, निंबार्काचार्य का द्वैताद्वैत या वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत – सभी संप्रदायों में गुरु की कृपा के बिना भगवत्प्राप्ति असंभव मानी गई है। रामानुजाचार्य ने शरणागति को मोक्ष का साधन माना, जिसमें गुरु की भूमिका केंद्रीय है। मध्वाचार्य ने जीव और ब्रह्म को भिन्न मानते हुए गुरु को भगवान की सच्ची उपासना का मार्गदर्शक बताया। निंबार्काचार्य के अनुसार भी गुरु के बिना ईश्वर-साक्षात्कार की प्रक्रिया अधूरी है। इस दर्शन को संत-कवियों ने भी स्वीकारा है :

  • संत कबीर : गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय, बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
  • गोस्वामी तुलसीदास : बिनु हरि कृपा मिलहिं नहि संता, संत मिलन सम हित नहिं अनंता।
  • मीराबाई : गुरु के चरन कमल बलिहारी, जिन मोहि हरि सों मिलाया।
  • संत सूरदास : गुरु बिनु भगति न होइ, यह वेद पुरानन माहिं कह्यो।

इन सभी में स्पष्ट है कि गुरु के बिना ईश्वर-प्राप्ति की यात्रा अधूरी और असंभव मानी गई है।

भगवा ध्वज (केसरिया झंडा) का गुरु स्वरुप

भगवा ध्वज भारत की आध्यात्मिक, सैन्य, सांस्कृतिक और त्याग परंपरा का प्रतीक रहा है। इसकी प्रतिष्ठा केवल एक झंडे के रूप में नहीं, बल्कि गुरु–तत्त्व के प्रतीक रूप में भी रही है। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों में किसी व्यक्ति को नहीं, बल्कि ध्वज को गुरु माना जाता है। यह कोई आधुनिक रचना नहीं, बल्कि इसका आधार भारत के वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों, पुराणों, और दर्शन शास्त्रों में गहराई से निहित है।

वेदों में ध्वज को वीरता और संगठन का प्रतीक माना गया है। ऋग्वेद (10.102.3) में कहा गया है : ध्वजिनं कृणुते वृषा, अर्थात ध्वजधारी वीर की प्रशंसा की गई है, जो संगठन, प्रेरणा और मार्गदर्शन का कार्य करता है। ऋग्वेद में देवताओं से प्रार्थना की जाती है कि वे अपने रथों और ध्वजों सहित हमारे यज्ञ में पधारें : आ यातु वाजसातयेऽश्विनावश्वयुजावध्रिगा वाजिनावध्रिगा (ऋग्वेद 1.180.1) अर्थात् : अश्विनीकुमार अपने ध्वज सहित रथ पर आरूढ़ होकर बल और अन्न की प्राप्ति हेतु हमारे पास पधारें। यहाँ वध्रिगा (ध्वज सहित) शब्द यह दर्शाता है कि ध्वज, देवताओं की उपस्थिति और शक्ति का प्रतीक माना गया।

हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवनधारा में यज्ञ का बड़ा महत्व रहा है। ‘यज्ञ’ शब्द के अनेक अर्थ हैं। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने के प्रयास को ही ‘यज्ञ’ कहा गया है। सद्गुणरूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों का होम करना ही यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है। यज्ञ के अधिष्ठात्री देवता अग्नि हैं। अग्नि का प्रतीक ज्वाला, और ज्वालाओं का प्रतिरूप-हमारा परमपवित्र ‘भगवा ध्वज’।[2]

यह ध्वज-परंपरा रामायण और महाभारत में और अधिक सजीव हो उठती है। रामायण में युद्ध के समय रथों पर ध्वज नेतृत्व, शक्ति और विजयी संकल्प का प्रतीक था। वहीं महाभारत में अर्जुन के रथ पर स्थित कपिध्वज (हनुमानध्वज) को विशेष महत्व प्राप्त है। भागवत पुराण में अर्जुन के रथ पर स्थित कपिध्वज केवल विजय का नहीं, बल्कि आस्था और प्रेरणा का प्रतीक था। भीष्म पर्व के अनुसार ‘कपिध्वजः कुरुपुंगवस्य रथः।‘ यह ध्वज न केवल अर्जुन के आत्मबल और विजय का प्रतीक था, बल्कि उसमें विराजमान हनुमान अर्जुन के लिए गुरु–सदृश प्रेरक शक्ति बने।

अज्ञान का प्रतीक है अंधकार, और ज्ञान का प्रतीक है सूर्य। पुराणों में कहा गया हैं कि सूर्य नारायण रथ में बैठकर आते हैं। उनके रथ में सात घोड़े लगे हैं और उनके आगमन के बहुत पहले उनके रथ की सुनहरी गैरिक ध्वजा फड़कती हुई दिखाई देती है। इसी ध्वज को हमने हमारे समाज का परम आदरणीय प्रतीक माना है। यह भगवान का ध्वज है। इसीलिये उसे हम भगवद ध्वज कहते हैं। उसी से आगे चलकर शब्द बना – ‘भगवा ध्वज’।[3] अतः यज्ञ-ज्वाला का प्रतीक, आत्म-समर्पण का द्योतक, पवित्र ध्वज ही अपना आदर्श है।

मध्यकाल में राजपूत योद्धा युद्ध में जाने से पूर्व केसरिया ध्वज को प्रणाम करते और उसे इष्टदेव तथा गुरु का स्थान देते थे। यही परंपरा मराठा साम्राज्य में भी रही। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक के समय भगवा ध्वज को गुरु स्वीकार करते हुए घोषणा की थी।

ध्वज को गुरु मानने की यह परंपरा योग और संत परंपरा में भी प्रमुख रूप से दिखाई देती है। नाथ संप्रदाय और रामानंद संप्रदाय में केसरिया वस्त्र और ध्वज गुरु के प्रतीक माने जाते हैं। अनेक मठों और अखाड़ों में शिष्य को दीक्षा ध्वज के नीचे दी जाती है, और शिष्य सबसे पहले उस गुरु-स्वरूप ध्वज को प्रणाम करता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भगवा ध्वज

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक किसी व्यक्ति या ग्रंथ की जगह भगवा ध्वज को अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते हैं। जब डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवर्तन किया, तब अनेक स्वयंसेवक चाहते थे कि संस्थापक के नाते वे ही इस संगठन के गुरु बनें; क्योंकि उन सबके लिए डॉ. हेडगेवार का व्यक्तित्व अत्यंत आदरणीय और प्रेरणादायी था। इस आग्रहपूर्ण दबाव के बावजूद डॉ. हेडगेवार ने हिंदू संस्कृति, ज्ञान, त्याग और संन्यास के प्रतीक भगवा ध्वज (केसरिया झंडा) को गुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने का निर्णय किया। हिंदू पंचांग के अनुसार हर वर्ष व्यास पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) के दिन संघ-स्थान पर एकत्र होकर सभी स्वयंसेवक भगवा ध्वज का विधिवत् पूजन करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हर साल जिन छह उत्सवों का आयोजन करता है, उनमें गुरुपूजा कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।

अपनी स्थापना के तीन साल बाद संघ ने सन् 1928 में पहली बार गुरुपूजा का आयोजन किया था। तब से यह परंपरा अबाध रूप से जारी है और भगवा ध्वज का स्थान संघ में सर्वोच्च बना हुआ है। ध्वज की प्रतिष्ठा सरसंघचालक (संघ प्रमुख) से भी ऊपर है।

केसरिया झंडे को ही संघ ने सर्वोच्च स्थान क्यों दिया? यह प्रश्न बहुतों के लिए पहेली बना हुआ है। भारत और कई दूसरे देशों में ऐसे अनेक धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन हैं, जिनके संस्थापकों को गुरु मानकर उनका पूजन करने की परंपरा है। भक्ति आंदोलन की समृद्ध परंपरा के दौरान और आज भी किसी व्यक्ति को गुरु मानने में कोई कठिनाई नहीं है। इस प्रचलित परिपाटी से हटकर संघ में डॉ. हेडगेवार की जगह भगवा ध्वज को गुरु मानने का विचार विश्व के समकालीन इतिहास की अनूठी पहल है। जो संगठन दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है, उसका सर्वोच्च पद अगर एक ध्वज को प्राप्त है तो निश्चय ही यह गंभीरता से विचार करने का विषय है। संघ के अनेक वरिष्ठ स्वयंसेवकों ने इस रोचक पक्ष पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह रहे एच.वी. शेषाद्रि के अनुसार, “भगवा ध्वज सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा का श्रद्धेय प्रतीक रहा है। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ का शुभारंभ किया, तभी से उन्होंने इस ध्वज को स्वयंसेवकों के सामने समस्त राष्ट्रीय आदर्शों के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया और बाद में व्यास पूर्णिमा के दिन गुरु के रूप में भगवा ध्वज के पूजन की परंपरा आरंभ की।“[4]

संघ के स्वयंसेवक एवं लेखक एन.एच. पालकर ने भगवा ध्वज पर एक रोचक पुस्तक लिखी है। मूलत: मराठी में लिखी यह पुस्तक सन् 1958 में प्रकाशित हुई थी। बाद में इसका हिंदी संस्करण प्रकाशित हुआ। 74 पृष्ठों की इस पुस्तक के अनुसार, सनातन धर्म में वैदिक काल से ही भगवा ध्वज फहराने की परंपरा मिलती हैं।

पालकर के अनुसार, “वैदिक साहित्य में ‘अरुणकेतु’ के रूप में वर्णित इस भगवा ध्वज को हिंदू जीवन-शैली में सदैव प्रतिष्ठा प्राप्त रही है । यह ध्वज हिंदुओं को हर काल में विदेशी आक्रमणों से लड़ने और विजयी होने की प्रेरणा देता रहा है। इसका सुविचारित उपयोग हिंदुओं में राष्ट्ररक्षा के लिए संघर्ष का भाव जाग्रत करने के लिए होता रहा है।”[5]

पालकर जी ने भगवा ध्वज के राष्ट्रीय चरित्र को सिद्ध करने के लिए कई ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख किया है। कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं :

  • सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह ने जब हिंदू धर्म की रक्षा के लिए हजारों सिख योद्धाओं की फौज का नेतृत्व किया, तब उन्होंने केसरिया झंडे का उपयोग किया। यह ध्वज हिंदुत्व के पुनर्जागरण का प्रतीक है। इस झंडे से प्रेरणा लेते हुए महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल में सिख सैनिकों ने अफगानिस्तान के काबुल-कंधार तक को जीत लिया था। उस समय सेनापति हरि सिंह नलवा ने सैनिकों का नेतृत्व किया था।[6]
  • जब राजस्थान पर मुगलों का हमला हुआ, तब राणासाँगा और महाराणा प्रताप के सेनापतित्व में राजपूत योद्धाओं ने भी भगवा ध्वज से वीरता की प्रेरणा लेकर आक्रमणकारियों को रोकने के लिए ऐतिहासिक युद्ध किए। छत्रपति शिवाजी और उनके साथियों ने मुगल शासन से मुक्ति और हिंदू राज्य की स्थापना के लिए भगवा ध्वज की छत्रछाया में ही निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ीं।
  • पालकर मुगलों के आक्रमण को विफल करने के लिए दक्षिण भारतीय राज्य विजयनगरम् के राजाओं की सेना का भी उल्लेख करते हैं, जिसमें भगवा ध्वज को शौर्य और बलिदान की प्रेरणा देनेवाले झंडे के रूप में फहराया जाता था। मध्यकाल के प्रसिद्ध भक्ति आंदोलन और हिंदू धर्म में युगानुरूप सुधार के साथ इसके पुनर्जागरण में भी भगवा या संन्यासी रंग की प्रेरक भूमिका थी।
  • भारत के अनेक मठ-मंदिरों पर भगवा झंडा फहराया जाता है, क्योंकि इस रंग को शौर्य और त्याग जैसे गुणों का प्रतीक माना जाता है।
  • अंग्रेजी राज के विरुद्ध सन् 1857 में भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम के दौरान केसरिया झंडे के तले सारे क्रांतिकारी एकजुट हुए थे।

उन्होंने पुस्तक के अंत में निष्कर्ष के तौर पर लिखा है कि भगवा ध्वज के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से स्पष्ट है कि इसे हिंदू समाज से अलग करना संभव नहीं है। यह ध्वज हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र का सहज स्वाभाविक प्रतीक है।[7] संघ की शाखा या प्रशिक्षण शिविर में जब भगवा ध्वज के महत्त्व पर बौद्धिक विमर्श होता है, तब मुख्यत: वही बातें स्वयंसेवकों को बताई जाती हैं, जिनका उल्लेख पालकर की पुस्तक में किया गया है। लेखक ने संक्षेप में हिंदू राष्ट्र, हिंदू समाज, हिंदू संस्कृति, हिंदू जीवन-शैली और दर्शन–सबको भगवा ध्वज से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे मानते हैं कि यह ध्वज हिंदुओं को त्याग, बलिदान, शौर्य, देशभक्ति आदि की प्रेरणा देने में सदैव सक्षम रहा है।

श्री गुरूजी के अनुसार, “संघ में न तो व्यक्तिगत अभिमान के लिए स्थान है और न संस्था के अभिमान के लिए अवसर है। संघ तो केवल अपने अखिल भारतवर्ष का अभिमानी है। फिर अपने इस दिव्य ध्वज को छोड़कर अन्य किसी प्रतीक के प्रति किस प्रकार श्रद्धा रख सकता है? हम दूसरे किसी ध्वज का अनादर नहीं करना चाहते, पर हमारी श्रद्धाएँ प्राचीन भारत के इतिहास और परंपरागत भगवे ध्वज को ही समर्पित हैं।“[8]

यह ध्वज हिंदू समाज के सतत संघर्षों और विजयश्री का साक्षी रहा है। हिंदू संस्कृति और हिंदू राष्ट्र ‘भगवा ध्वज’ के बिना हम हिंदू धर्म की कल्पना नहीं कर सकते। (‘धर्म’ शब्द का प्रयोग हिंदुत्व के विद्वानों के अनुसार किया गया है, अर्थात् धर्म जीवन जीने का मार्ग है तथा इसे कुछ रीति-रिवाजों, कर्म-कांडों तक सीमित ‘धर्म’ की रूढ़िवादिता के समतुल्य नहीं माना जा सकता) संस्कृति किसी भी देश की जीवन रेखा होती है। हिंदू संस्कृति हमारे देश की जीवन-रेखा है तथा ‘भगवा ध्वज’ हिंदू संस्कृति का प्रतीक है।

पालकर का यह वक्तव्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि भगवा ध्वज के अस्तित्व पर इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि इसे कोई शासकीय मान्यता दी गई या नहीं। यही कारण है कि आज भी अनेक सामाजिक-राजनीतिक संगठनों, जातियों और उपजातियों के लिए भगवा ध्वज आदरणीय है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुख्यत: तीन कारणों से भगवा ध्वज को गुरु के रूप में स्वीकार किया:

  • एक, ध्वज के साथ ऐतिहासिकता जुड़ी है और यह किसी संगठन को एकजुट रखते हुए उसके विकास में सहायक होता है
  • भगवा ध्वज में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वह विचारधारा सर्वाधिक प्रखर रूप में प्रतिबिंबित होती है, जो संघ की स्थापना का प्रबल आधार है।
  • तीन, किसी व्यक्ति की जगह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीक भगवा ध्वज को सर्वोच्च स्थान देकर संघ यह सुनिश्चित करने में सफल रहा कि वह व्यक्ति-केंद्रित संगठन नहीं बनेगा। यह सोच बहुत सफल रही। फलस्वरूप पिछले कई वर्षों के दौरान जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संगठन का आधार व्यापक हुआ और संघ में सर्वोच्च पद को लेकर कभी कोई विवाद नहीं हुआ। इस तरह के संगठन में शीर्ष नेतृत्व के उत्तराधिकार को लेकर संघर्ष न होना आश्चर्यजनक है और बहुत सीमा तक इसका श्रेय भगवा ध्वज को गुरु मानने के डॉ. हेडगेवार के निर्णय को दिया जा सकता है।

स्वयंसेवक संघ और गुरु दक्षिणा  

‘गुरु पूर्णिमा’ स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी और हिन्दू पुनर्जागरण के पुरोधा डॉ केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 ई. में संस्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के उन छह प्रमुख त्योहारों (वर्ष प्रतिपदा, विजयादशमी, मकर संक्रांति, हिंदू साम्राज्य दिवस, गुरु पूर्णिमा और रक्षा बंधन) में से एक है, जिन्हें संघ अपनी विभिन्न शाखाओं के माध्यम से आधिकारिक रूप से मनाता है।

संघ में भी गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु दक्षिणा कार्यक्रम मनाया जाता है। इस कार्यक्रम में सभी स्वयंसेवक अपने गुरु – भगवा ध्वज को प्रणाम करते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं, और एक अचिह्नित लिफाफे में संगठन के लिए एक पुष्प के साथ अपना वर्ष भर का श्रेष्ठ योगदान समर्पित करते हैं।[9]

श्री गुरूजी के अनुसार, “गुरुदक्षिणा, याने निश्चित धनराशि देने का आग्रह अथवा नियमित रूप से इकठ्ठा किया जाने वाला चंदा नहीं है। यह कार्य केवल स्वेच्छा का है। जीवन कष्टमय हो गया है, कुटुंब का भरणपोषण ठीक से नहीं हो पाता अथवा मैंने कम धन दिया तो लोग क्या कहेंगे, इस कारण यह पूजन टालना नहीं चाहिए। यहाँ आकर अंतः करण की ओत-प्रोत श्रद्धा से ध्वज को प्रणाम कर केवल एक पुष्प अर्पण किया तो भी काफी है। इस प्रकार के भाव से दिया हुआ एक पैसा भी धनी व्यक्ति द्वारा अर्पित किए गए सहस्रों रुपयों से अधिक मूल्य का है।“[10]

संघ की प्रत्येक शाखा गुरु पूर्णिमा से गुरूदक्षिणा के कार्यक्रमों का आयोजन आरंभ करती है। लगभग एक माह तक ये आयोजन चलते हैं। इसके दो मुख्य उद्देश्य हैं – पहला, प्राचीन भारत की उस गुरु-शिष्य परंपरा को आगे बढ़ाना, जिसमें शिक्षा पूरी करने वाले सभी शिष्य आदर और कृतज्ञता के भाव से अपने गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा अर्पित करते थे। इसमें धन की राशि नहीं, कृतज्ञता की भावना महत्त्व रखती है। गुरुपूजा का कार्यक्रम बड़ी सादगी के साथ संपन्न किया जाता है। स्वयंसेवक इस कार्यक्रम में गणवेश में नहीं, बल्कि पारंपरिक भारतीय परिधान (धोती-कुर्ता या पाजामा-कुर्ता) में उपस्थित होते हैं।

गुरुपूजा कार्यक्रम का प्रारंभ भी शाखा लगने की तरह किसी कमरे या सभागार में भगवा ध्वज फहराने के साथ होता है; लेकिन उस दिन सिर्फ ध्वज-पूजन और बौद्धिक का कार्यक्रम होता है। पूजन के ध्वजदंड के निकट धूप-दीप जलाकर वहाँ संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार और उनके परवर्ती सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर (जिन्हें स्वयंसेवक आदर के साथ ‘गुरुजी’ कहते हैं) के बड़े आकार के चित्र रखे जाते हैं। पास में ही पुष्प रखे होते हैं, जिनसे ध्वज की पूजा की जा सके।

कार्यक्रम की सूचना सबको दी जाती है और प्रयास होता है कि एक बार भी शाखा में आए स्वयंसेवक को गुरुपूजा में अवश्य सम्मिलित किया जाए। नए स्वयंसेवकों को संगठन से जोड़े  रखने के लिए यह प्रयास महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

गुरु दक्षिणा कार्यक्रम सादगी भरा होता है। लेकिन उसमें गुरु के प्रति श्रद्धा-कृतज्ञता का जैसा आध्यात्मिक वातावरण बनता है, नए स्वयंसेवकों पर उसका विशेष प्रभाव पड़ता है। स्वयंसेवक इस अवसर पर देशभक्ति के गीत का समूह गान करते हैं।

कार्यक्रम में विशेष रूप से आमंत्रित किसी गणमान्य व्यक्ति या संघ के किसी वरिष्ठ अधिकारी का बौद्धिक संबोधन होता है। संघ अपेक्षा करता है कि शाखा अपने क्षेत्र में रहने वाले किसी सम्मानित डॉक्टर, वकील, प्राध्यापक, सेना के अवकाश-प्राप्त अधिकारी या सुविख्यात व्यक्ति को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करने के लिए गुरु दक्षिणा कार्यक्रम के अवसर का उपयोग करें। इससे संगठन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इतर सदस्यों को शामिल करने में मदद मिलती है। अब तक का अनुभव यही है कि जो भी विशिष्ट व्यक्ति संघ के गुरु दक्षिणा कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रूप में पहली बार आता है, वह इतना प्रभावित होता है कि स्वयंसेवक न होते हुए भी संघ का आजीवन प्रशंसक और मित्र बन जाता है।

दैनिक शाखा की तरह कार्यक्रम का समापन संघ की ध्वज प्रार्थना से होता है।

कालांतर में गुरु दक्षिणा कार्यक्रम ऐसे स्वयंसेवकों को भी कम-से-कम वर्ष में एक बार जोड़ने का सशक्त माध्यम बन गया, जो नियमित शाखा नहीं आ पाते वे भी कम-से-कम वर्ष में एक बार सभी से परस्पर मिल सकें।

समय के साथ जब अनेक स्वयंसेवक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघ के प्रमुख संगठनों में काम करते हुए देश भर में फैल गए, तब ऐसे स्वयंसेवकों के लिए संघ कार्यालय या किसी सभागार में अलग से गुरु दक्षिणा कार्यक्रम किए जाने लगे। इसमें भी अधिकतर ऐसे स्वयंसेवक सम्मिलित होते हैं, जो नियमित शाखा नहीं जाते। प्रशासन, पत्रकारिता, चिकित्सा आदि पेशे से जुड़े स्वयंसेवकों की गुरु दक्षिणा के लिए भी सुविधानुसार अलग कार्यक्रम किए जाते हैं।

वर्ष में एक बार ‘गुरु दक्षिणा’ दी जाती है। सामान्यत: किसी महीने में एक बार या दो बार गुरु दक्षिणा के लिए तिथि/तिथियाँ तय की जाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाखा और अन्य संबद्ध संगठनों को इन तय तिथियों पर यह कार्यक्रम आयोजित करना होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में इस परंपरा को कभी भी नहीं तोड़ा गया। यह सर्वाधिक आदरणीय और पुनीत कार्यक्रम माना जाता है।

संदर्भ-ग्रन्थ

  • एच. वी. शेषाद्रि, आरएसएस ए विजन इन एक्शन, साउथ एशिया बुक्स, नई दिल्ली, 1998
  • नारायण हरि पालकर, भगवा ध्वज, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020
  • श्री गुरूजी समग्र, खंड 5
  • संघ उत्सव, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2000
  • रतन शारदा, आरएसएस 360o, ब्लूम्स्बुरी इंडिया, प्रथम संस्करण, 2020
  • मा. स. गोलवलकर, गुरु दक्षिणा, जागृति प्रकाशन, नोएडा, चतुर्थ संस्करण, 1998

[1] संघ उत्सव, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2000, पृष्ठ 37

[2] मा. स. गोलवलकर, गुरु दक्षिणा, जागृति प्रकाशन, नोएडा, चतुर्थ संस्करण 1998, पृष्ठ 4

[3] मा. स. गोलवलकर, गुरु दक्षिणा, जागृति प्रकाशन, नोएडा, चतुर्थ संस्करण 1998, पृष्ठ 5

[4] संकलन हो.वे. शेषाद्रि, कृतिरूप संघ-दर्शन, सुरुचि प्रकाशन, केशवकुंज, नवीन संस्करण, 1997, पृष्ठ 245

[5] नारायण हरि पालकर, भगवा ध्वज, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ 65

[6] नारायण हरि पालकर, भगवा ध्वज, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ 66

[7] नारायण हरि पालकर, भगवा ध्वज, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ 66

[8] श्रीगुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 299

[9] रतन शारदा, आरएसएस 360., ब्लूम्स्बुरी इंडिया, न्यू दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2020, पृष्ठ 173

[10] श्रीगुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 297

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