स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के टंकारा में हुआ था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर था। परिवार सम्पन्न एवं प्रभावशाली था और पिता के मार्गदर्शन में मूलशंकर ने नीतिशास्त्र, साहित्य एवं व्याकरण का अध्ययन किया। उन्होंने 14 वर्ष की आयु में ही सम्पूर्ण यजुर्वेद संहिता को कंठस्थ कर लिया था।

बचपन में ही मूलशंकर की बहन और चाचा का निधन हो गया, जिसके चलते उनका मन गहरे संताप में डूब गया। इसके उपरांत, जीवन और मृत्यु के जटिल प्रश्नों को समझने के लिए उनके मन में जिज्ञासा उत्पन्न होने लगी। साथ ही, उन्हें सांसारिक कार्यों से भी विरक्ति होने लगी। उनकी इस मनःस्थिति को देखकर पिता चिंतित रहने लगे और उन्होंने सोचा कि क्यों न मूलशंकर का विवाह कर दिया जाये, जिससे वह सांसारिक कार्यों में पुनः रूचि लेने लगेंगे। मगर मूलशंकर इन सब में बंधने को तैयार नहीं थे। अतः उनके पिता द्वारा निश्चित की गई विवाह की तिथि से कुछ दिन पूर्व ही वह घर त्यागकर ज्ञान की खोज में निकल पड़े और साधु बन गये।[1]

वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए वह गुरु की खोज करने लगे, स्वामी विरजानंद के सानिध्य में पहुंचे। जहां उन्हे अनुभव हुआ कि जिस गुरु की वे खोज कर रहे हैं, वह उन्हें मिल गये हैं। यहाँ उन्हे नया नाम – दयानंद सरस्वती दिया गया।

स्वामी विरजानंद के शिष्यत्व में उनके ज्ञान का परिमार्जन हुआ। दयानंद समाज के उत्थान में वेदों के ज्ञान को आधार मानतें थें। उन्होंने वेदों के प्रचार के लिए देशव्यापी अभियान चलाया। समाज उत्थान और राष्ट्र प्रगति के उद्देश्य से 1875 को बंबई में दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की।

आर्य समाज के माध्यम से उन्होंने समाज में प्रचलित अंधविश्वासों एवं रुढियों का विरोध किया। साथ ही उन्होंने भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा पर बल देते हुए ‘वेदों की ओर लौटने’ का संदेश दिया। इसके अलावा, स्वामी जी ने वेदों को हिन्दू धर्म का मूल स्रोत माना और वैदिक मान्यता के अनुसार हिन्दू धर्म की उदार व्याख्या प्रस्तुत की।

30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के अवसर पर जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय ने महर्षि दयानंद को अपने महल में आमंत्रित किया और गुरु का आशीर्वाद मांगा। दयानंद ने जब राजा को दरबार की नृत्यांगना का परित्याग करने और धर्म के जीवन पाठ पर आगे बढ़ने की सलाह दी तो इससे नृत्यांगना दयानंद पर क्रुद्ध हो गयी। उसने रसोइए के साथ महर्षि के दूध में कांच के टुकड़े मिलाने का षड्यंत्र रचा जिससे महर्षि को कष्टदायी पीड़ा के साथ मृत्यु को प्राप्त होना पड़ा। हालांकि, उन्होंने दीपावाली के दिन अजमेर में अपनी मृत्यु होने से पूर्व इस षड्यंत्र में सम्मिलित रसोइए को क्षमा कर दिया।

महर्षि दयानंद कहते हैं –“जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इससे जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य नहीं बिगड़ता”।[2]

आज आर्य समाज भारत ही नहीं बल्कि विश्‍व के अन्य भागों में भी पर्याप्त रूप से सक्रिय है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, त्रिनिदाद, मेक्सिको, यूनाइटेड किंगडम, नीदरलैंड, केन्या, तंजानिया, युगांडा, दक्षिण अफ्रीका, मलावी, मॉरीशस, पाकिस्तान, बर्मा, थाईलैंड, सिंगापुर, हांगकांग और ऑस्ट्रेलिया कुछ ऐसे देश हैं जहां आर्य समाज की शाखाएं हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती – विभिन्न विद्वानों के कथन

  • एनी बेसेंट ने अपनी पुस्तक ‘इंडिया ए नेंशन’ में लिखा है -स्वामी दयानंद जी ने सर्वप्रथम घोषणा की थी कि भारत भारतीयों के लिए है।
  • श्रीमती एनीबीसेंट ने कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में कहा था –जब स्वराज मंदिर बनेगा तो उस में बड़े-बड़े नेताओं कि मूर्तियां होंगी और सबसे ऊँची मूर्ति दयानंद की होगी।
  • महान क्रान्तिकारी स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने कहा था–“महपि दयानन्द स्वाधीनता संग्राम के सर्वप्रथम योद्धा, हिन्दू जाति के रक्षक थे 1”[3]
  • इन्दिरा गांधी – “हमारे देश ने बहुत-से महान पुरुषों और सुधारकों को जन्म दिया, इनमें महर्षि दयानंद हैं। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज में फैले अंधविश्वास को और विशेष रूप से ऊँच-नीच के भेदभाव को मिटाने में लगाया। जिस प्रकार महर्षि दयानंद ने यह उपदेश दिया कि प्राचीन ग्रंथों का फिर से अध्ययन किया जाये, उसी प्रकार यह आवश्यक है कि हम उनके उपदेशों को फिर से सही संदर्भ में रखकर देखें”।[4]
  • जगजीवनराम – “आर्य समाज का समाज सुधार की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान है। महर्षि दयानंद के सिद्धांतों, आदर्शों और उपदेशों का प्रचार आर्यसमाज द्वारा किया जाता है, इससे जनता में समानता पर आधारित जाति-पांति विहीन समाजवादी समाज के निर्माण की भावना उद्बोधित होने में सहायता मिलती है”।[5]
  • प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी – “ऐसे समय में जब हमारी परम्पराएँ और आध्यात्मिकता लुप्त हो रही थीं, तब स्वामी दयानंद ने ‘वेदों की ओर लौटने’ का आह्वान किया। महर्षि दयानंद केवल वैदिक ऋषि ही नहीं बल्कि राष्ट्र ऋषि भी थे”।[6]

स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रमुख रचनाएँ

  1. सत्यार्थप्रकाश
  2. संस्कृत वाक्य प्रबोध
  3. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका
  4. व्यवहारभानु
  5. आर्योद्देश्यरत्नमाला
  6. गोकरुणानिधि
  7. यजुर्वेदभाष्य

आर्य-समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद  

आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती हैं जिनकी गणना संसार के महानतम शिक्षकों और उद्धारकों में होती है जिन्होंने संसार के लोगों की अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर और मृत्यु से अमरत्व की ओर जाने में सहायता की। आर्य समाज कोई नया पन्थ, सम्प्रदाय अथवा धर्म नहीं है। उसके प्रवर्तक महषि दयानन्द ने स्पष्टतः कहा है कि आर्य समाज की स्थापना करके उन्होंने कोई नवीन पन्थ नहीं चलाया अपितु प्राचीन वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति, सभ्यता और परम्परा की पुनः स्थापना की है।

उनका उद्देश्य केवल यह था कि समय बीतने के साथ-साथ सच्चे सनातन धर्म और उसके अनुयायियों में जो अवैदिक बातें, अन्ध परम्पराएं, रूढ़ियां और सामाजिक कुरीतियां आ गई हैं उन्हें दूर किया जाय और विशुद्ध वैदिक धर्म जन-साधारण के समक्ष रखा जाय।

इसी कार्य की पूर्त्यर्थ महर्षि दयानन्द ने 1875 ई० में बम्बई में प्रथम आर्य समाज की स्थापना की। उसके बाद स्वयं स्वामी जी ने लाहौर, फ़रूखाबाद, मेरठ, रुड़की, लखनऊ, दिल्ली, अजमेर, आदि में आर्य समाजों की स्थापना की। वह जहां जाते, व्याख्यान देते ओर शास्त्रार्थं करते थे वहीं समाज की स्थापना हो जाती थी। उनके निर्वाण के पश्चात्‌ तो समाजों की स्थापना का तांता ही लग गया|

महर्षि दयानन्द की एक बड़ी विशेषता यह थी कि वह प्रत्येक व्यक्ति और समाज की सर्वतोमुखी उन्नति चाहते थे। वह चाहते थे कि व्यक्ति ओर समष्टि के शरीर, मन और आत्मा सब स्वस्थ हों और सब एक ही परिवार के सदस्यों के रूप में प्रभु की छत्रच्छाया में मिलकर प्रेमपूर्वक रहें और एक-दूसरे की उन्नति योगक्षेत्र और रक्षा में योगदान करते रहें। उन्होंने स्वयं इस बात पर बल दिया और बाद में आर्य समाज ने अपने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक सभी प्रकार के कार्यक्रमों में और सुधारों में इस बात का ध्यान रखकर उसे मूर्त रूप देने का यत्न किया। इस प्रकार आर्यसमाज को विश्व आन्दोलन का रूप मिला। स्वामी जी महाराज मुख्यतः देशवासियों को अपनी तथा देश की हर प्रकार की उन्नति और योगक्षेत्र के लिए आर्य समाज में प्रविष्ट होने और उसके साथ मिलकर काम करने की प्रेरणा दिया करते थे। उन्हें आर्य समाज का भविष्य बड़ा उज्ज्वल दीख पड़ता था और उससे बड़ी-बड़ी आशाएं थीं।

आर्य समाज की आधार-शिला वेद, वैदिक शिक्षाएं शाश्‍वत, वैज्ञानिक, दार्शनिक, सार्वभौम, उदात्त वैदिक सिद्धान्तो से समन्वित सत्यार्थप्रकाश तथा स्वामी जी के उपदेश व मन्तव्य हैं। महर्षि ने वेदों की ओर चलो” का बिगुल बजाया था।

भारत की भाषा, धर्म, संस्कृति, साहित्य, इतिहास, देश-भक्ति आदि को समाप्त करने की दृष्टि से बनाई लार्ड मैकाले की शिक्षा-योजना को विफल कर देश के छात्र-छात्राओं में अपनी भाषा, धर्म, संस्कृति आदि के प्रति अगाध श्रद्धा व स्वाभिमान भरने के लिए महषि की योजनानुसार आर्य समाज ने उत्तर भारत के लगभग सभी प्रान्तों में गुरुकुलों, स्कूलों, कालेजों की स्थापना की। प्रमाण-स्वरूप जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में वहां की गोरी सरकार की रंग-भेद नीति के विरुद्ध सत्याग्रह कर रहे थे तो गुरुकुल कांगड़ी के विद्यार्थियों ने अपने नित्य का घी-दूध त्याग कर और दूधियां बांध पर मजदूरी करके धन जमा किया और गांधी जी की सहायतार्थं भेजा | यही कारण था कि भारत आने पर गांधी जी सर्वप्रथम गुरुकुल कांगड़ी में उन देश भक्त बच्चों को आशीर्वाद देने गये|[7]

आर्य समाज पर अन्यायपूर्ण प्रतिबंध और कट्टरपंथियों के हमलें

कई स्थानों विशेषकर मस्जिदों के सामने आर्य समाज के नगर-कीर्तनों पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगाई हुई थी। साल 1926 में मुरादाबाद और 1930 में पानीपत में  इस प्रकार की अन्यायपूर्ण पाबंदियाँ थोपी गई थी।

22 नवंबर 1930 को सहारनपुर के बहादुराबाद में आर्य समाज मंदिर में एक ब्रिटिश अफसर ने जूते पहने कुछ सिपाहियों के साथ जबरदस्ती घुसकर वेदी का अपमान किया और ॐ ध्वज को फाड़ डाला।

ब्रिटिश कालखंड में राजनैतिक और धार्मिक आंदोलनों में जेल गए आर्य सत्याग्रहियों के लिए कारावास में हवन पर प्रतिबंध लगाया हुआ था।

23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद की दिन के चार बजे दिल्ली में अब्दुल रशीद नाम के एक उन्मादी ने हत्या कर दी।

1927-1942 के बीच मुस्लिम षड्यंत्रों के चलते लाहौर में माननीय राजपाल की हत्या और उसके बाद लाहौर में दो अन्य आर्य बंधुओं की हत्या, 1934 में बहराइच के साहू बद्रीशाह की हत्या, कराची के आर्य नेता पंडित नाथुराम की हत्या मुस्लिम कट्टरपंथियों ने की। अतः आत्मरक्षा के लिए आर्य वीर दल और आर्य रक्षा समिति का गठन किया गया।

हिसार जिले की लौहरु रियासत का शासक एक मुस्लिम था जबकि जनता अधिकांश हिन्दू। साल 1936 और 1940 में दो बार मुस्लिम कट्टरपंथियों ने आर्य समाज के नगर-कीर्तनों पर हमला किया।

सिंध की मुस्लिम लीग सरकार ने 26 अक्टूबर 1944 को सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया।

महर्षि दयानंद के सामाजिक सुधार

स्वामी दयानंद के समय समाज आडम्बरों और विकृतियों से घिरा हुआ था। एक तरफ ब्रिटिश काल की पराधीनता से संघर्ष चल रहा था तो दूसरी ओर समाज को व्यापक सुधार की आवश्यकता थी। स्वामी जी ने सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध किया एवं समाज को प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। अपने इस उद्देश्य के लिए उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।

वैदिक और बौद्धकाल तक भारतीय महिलाओं में पर्दे की प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता। मुगलकाल में पर्दे की प्रथा का चलन हुआ जिसके परिणामस्वरूप महिलायें धीरे-धीरे घर की चार दिवारी में सीमित हो गई। स्वामी जी ने इस समस्या की ओर ध्यान दिया। इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक कार्यक्रम एवं समारोहों में महिलाओं की भागीदारी पर बल दिया। स्वामी जी के प्रयत्नों से धीरे-धीरे पर्दे की प्रथा से भी स्त्रियों को मुक्ति मिलने लगी।

पर्दा प्रथा’ की भाँति ही सती प्रथा के विरुद्ध भी स्वामी दयानंद सरस्वती ने आवाज उठाई। उन्होंने विधवा महिलाओं के जीवन मे प्रकाश की ज्योति जलाई। इसके लिए उन्होंने पुनर्विवाह की व्यवस्था की जिससे विधवा महिलाओं को नवजीवन मिला।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘बाल विवाह’ के विरुद्ध भी अभियान चलाया, जिससे समाज को इस कुरीति से मुक्ति मिल सके। सेन्ट्रल असेम्बली में राजस्थान के प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता दीवान बहादुर हरविलास जी शारदा ने तो इसके लिए कानून भी बनवाया था। स्वामी दयानंद का मानना था कि ‘बाल्यावस्था में विवाह से जितनी हानि पुरुष की होती है उससे अधिक महिला की होती है। जैसे कच्चे खेत को काट लेने से अन्न नष्ट हो जाता है, ठीक उसी तरह छोटी आयु में जो अपनी संतानों का विवाह कर देते हैं उनका वंश बिगड़ जाता है’।

स्वामी दयानंद सरस्वती में ‘बहुविवाह’ का भी विरोध किया और एक विवाह के आदर्श सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

महर्षि दयानंद कहते हैं-“जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभगुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें, वह शिक्षा कहलाती है”।[8]

गोरक्षा सत्याग्रह

आर्यसमाज के प्रवर्तक महषि दयानन्द ने धार्मिक और आर्थिक दृष्टि से गोरक्षा पर बड़ा बल दिया है। अपने जीवन काल में उन्होंने तत्कालीन वायसराय और कमाण्डर-इन-चीफ से मिलकर गोवध रोकने की विशेष मांग की थी। “गोकरुणानिधि” पुस्तक लिखकर महर्षि ने अपने इस कार्यक्रम के विषय की व्याख्या और पुष्टि की है। आर्यसमाज के विशाल कार्यक्रम में गोरक्षा का विशेष स्थान है।

महर्षि दयानंद लिखते हैं- “देखिये, जो पशु निःसार घास तृण पत्ते फल फूल आदि खावे और सार दूध आदि अमृतरूपी रत्न देखें, हल गाड़ी प्रादि में चल के अनेक विध अन्न आदि उत्पन्न कर सबके बुद्धि बल पराक्रम को बढा के नीरोगता करे, पुत्र पुत्री और मित्र आदि के समान मनुष्यों के साथ विश्वास और प्रेम करें, जहाँ बांधे वहाँ बंधे रहें, जिधर चलावें विधर चलें, जहां से हटावें वहां से हठ जावे, देखने और बुलाने पर समीप चले आवे, जब कभी व्याघ्रादि पशु वा मारने वाले को देखे अपनी रक्षा के लिये पालन करनेवाले के समीप दौड़ कर आवें कि यह हमारी रक्षा करेगा। जिनके मरे पर चमड़ा भी कंटक आदि से रक्षा करे, जङ्गल में चर के अपने बच्चे और स्वामी के लिये दूध देने को नियत स्थान पर नियत समय चले आवे, अपने स्वामी की रक्षा के लिये तन मन लगावें, जिनका सर्वस्व राजा और प्रजा आदि मनुष्यों के सुख के लिये है, इत्यादि शुभगुणयुक्त, सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काट कर जो मनुष्य अपना पेट भर, सब ससार की हानि करते हैं, क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती,अनुपकारक, दुःख देने वाले और पापी मनुष्य होगे“।[9] महर्षि दयानंद ने ‘गोरक्षकसभासद’ के नियम भी बनाए जिनको उन्होंने अपनी पुस्तक ‘गोकरुणानिधि’ में बताया है।

स्त्री शिक्षा पर बल

स्वामी दयानंद सरस्वती, महिलाओं को शिक्षित करने के प्रबल पक्षधर थे। वैदिक काल में स्त्रियों का स्थान बहुत सम्मानजनक था और उन्हें भी शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। हिन्दू धर्म में कोई भी यज्ञ स्त्रियों के बिना पूर्ण नहीं माना जाता था। हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों में देवताओं के साथ-साथ देवियों का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने समय-समय पर अपने ज्ञान और शक्ति का परिचय दिया है। बाद में स्त्रियों को बाहर जाने एवं पढ़ने की अनुमति नहीं दी गई, जिससे स्त्रियों की स्थिति बदल गई। स्वामी जी ने स्त्रियों को शिक्षा के समान अवसर देने की बात कही। वे स्त्रियों को पुरुषों की भांति सक्षम बनाने के पक्षधर थे। स्वामी दयानंद का मानना है कि वेदाभ्यास एवं शिक्षा द्वारा ही स्त्रियाँ गार्गी और मैत्रेयी जैसी विदुषियां बन समाज को प्रगति के पथ पर ले जा सकती हैं। महर्षि दयानंद के अनुसार-“विद्या चार प्रकार से आती है आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहारकाल”।[10]

‘शुद्धि आंदोलन’ और घर वापसी’ का कार्य

इस्लाम और ईसाइ धर्म मे मतांतरित हिंदुओं का अपने मूल धर्म और समाज मे वापस आने की प्रक्रिया ‘घर वापसी’ के नाम से जानी जाती है। इसी प्रक्रिया को शुद्धि भी कहा जाता है। भारत में रहने वाले अधिकांश मुस्लिमों और ईसाइयों के पूर्वज हिन्दू ही थे। किसी समय भय या धोखे से उन्हें मतांतरित किया गया था। स्वामी दयानंद सरस्वती ने समाज के इस वर्ग की घर वापसी का कदम उठाया और इसके लिए उन्होंने ‘शुद्धि आंदोलन’ चलाया। शुद्धि आंदोलन से समाज को एकजुट करने में व्यापक बल मिला। महर्षि दयानंद ‘धर्म’ को परिभाषित करते हुए कहते हैं-“धर्म- जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन, पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये एक और मानने योग्य है, उसको ‘धर्म’ कहते हैं।“[11]

ईसाइयों के षड्यन्त्र का मुकाबला

ब्रिटिश काल में ईसाइयों का घातक अराष्ट्रीय प्रचार प्रछन्न रूप में था पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात्‌ कांग्रेस सरकार की तथाकथित धर्म निरपेक्ष नीति का अनुचित लाभ उठाते हुए ईसाई पादरियों ने भारत को “ईसाईस्थान” बनाने का स्वप्न लेना शुरू कर दिया| यूरोप और अमेरिका के साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने उन्मुक्त हाथों से इन ईसाई मिशनों की सहायता करनी प्रारम्भ की। इन मिशनों ने भारत के उत्तर-पूर्व प्रदेश, असम, नागालण्ड, मणिपुर, त्रिपुरा और मध्यप्रदेश के भीलों, छोटा नागपुर, उड़ीसा, बिहार व राजस्थान की जन-जातियों तथा अन्य प्रदेशों के पिछड़े वर्गों को सामूहिक रूप से विधर्मी बनाने पर अपनी शक्ति केन्द्रित करनी प्रारम्भ कर दी। देश में केवल आयंसमाज ही ऐसी संस्था थी जिसने ईसाइयों को इस चनौती का मुकाबला करने का निश्चय किया।

अराष्ट्रीय प्रचार के निरोध का चतु: सूत्री कार्यक्रम

ईसाइयों की अराष्ट्रीय गतिविधियों को रोकने और जनमत को जागृत करने के लिए सभा ने बडे पैमाने पर कार्य प्रारम्भ किया। आर्य नेताओं ने प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया, हजारों, लाखों की संख्या में ईसाइयों के कुचक्र से देश को सावधान करने के सम्बन्ध में ट्रेकट हिन्दी अंग्रेजी के अतिरिक्त प्रादेशिक भाषाओं में बांटे गये। इसके अतिरिक्‍त सभा ने निम्न चतुः सूत्री कार्यक्रम निश्चित किया था :-(1) प्रत्येक ग्राम और नगर में आर्य हिन्दुओं की ऐसी समितियां बनाई जाएं जो ईसाइयों की अवांछनीय प्रवृत्तियों पर दृष्टि रखे और उनके निराकरण का उपाय करें, (2) समूचे देश में उत्तम प्रचारकों का जाल बिछा दिया जाय और ईसाई प्रचार निरोध का संदेश प्रत्येक भारतीय तक पहुंचाया जाय, (3) हिन्दू धर्म के प्रति ईसाइयों के अनर्गल प्रचार का निराकरण और साथ-साथ अस्पृश्यता का निवारण किया जाये, (4) आदिवासी कही जाने वाली जातियों, अरण्यवासी पिछड़ी जातियों में समाज-सुधार, शिक्षा प्रसार, सेवा सहायता के कार्य बड़े प॑माने पर

[1] भारतीय साहित्य के निर्माता, स्वामी दयानंद सरस्वती, विष्णु प्रभाकर, साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली, पुनर्मुद्रण, 2002, पृष्ठ 19

[2] महर्षि दयानंद, अथ व्यवहारभानुः, भूमिका से उद्धृत

[3] अंतर्राष्ट्रीय आर्यसमाज स्थापना शताब्दी समारोह, स्मारिका दिसम्बर 1975, नई दिल्ली, पृष्ठ 38

[4] अंतर्राष्ट्रीय आर्यसमाज स्थापना शताब्दी समारोह, स्मारिका दिसम्बर 1975, नई दिल्ली, शुभकामना संदेश, इन्दिरा गांधी, प्रधान मंत्री भवन, नई दिल्ली

[5] अंतर्राष्ट्रीय आर्यसमाज स्थापना शताब्दी समारोह, स्मारिका दिसम्बर 1975, नई दिल्ली, शुभकामना संदेश, जगजीवनराम, कृषि तथा संचाई मंत्री, भारत सरकार

[6] महर्षि दयानंद सरस्वती की 200वीं जयंती पर प्रधानमंत्री जी का सम्बोधन

[7] अंतर्राष्ट्रीय आर्यसमाज स्थापना शताब्दी समारोह, स्मारिका दिसम्बर 1975, नई दिल्ली, पृष्ठ 35

[8] महर्षि दयानंद, अथ व्यवहारभानुः, पृष्ठ 126

[9] महर्षि दयानंद, गोकरुणानिधिः, पृष्ठ 25

[10] महर्षि दयानंद, अथ व्यवहारभानुः, पृष्ठ 128

[11] महर्षि दयानंद, आर्योद्देश्यरत्नमाला, पृष्ठ 3

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *