संक्षिप्त परिचय
देवी अहिल्याबाई होलकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ स्थित चौंढी गांव में 31 मई 1725 को हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो मराठा साम्राज्य में पाटिल के पद पर कार्यरत थे। देवी अहिल्याबाई का विवाह मालवा में होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। साल 1745 में अहिल्याबाई के बेटे मालेराव का जन्म हुआ। इसके करीब 3 साल बाद बेटी मुक्ताबाई ने जन्म लिया।
देवी अहिल्याबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनकी शादी के कुछ साल बाद ही 1754 में उनके पति खांडेराव का भरतपुर (राजस्थान) के समीप कुम्हेर में युद्ध के दौरान निधन हो गया। साल 1766 में ससुर मल्हारराव भी चल बसे। इसी बीच रानी ने अपने एकमात्र बेटे मालेराव को भी खो दिया। अंततः देवी अहिल्याबाई को राज्य का शासन अपने हाथों में लेना पड़ा। अपनों को खोने और शुरुआती जीवन के संघर्ष के बाद भी रानी ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। कुशल कूटनीति के दम पर उन्होंने न सिर्फ विरोधियों को पस्त किया बल्कि जीवनपर्यत्न सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में जुटी रहीं।
देवी अहिल्यादेवी ने 13 अगस्त 1795 को अपनी अंतिम सांस ली। भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से खुद को अमर बना लिया। जिस तरह से वह सभी तरह की कठिनाइयों से गुजरीं, वह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।
प्रजावत्सल शासिका
अहिल्याबाई होलकर प्रजावत्सल शासिका थी। वे अच्छी तरह से जानती थीं कि शासन-व्यवस्था का निर्माण प्रजा के हित व कल्याण के लिए ही है। शासन का प्रमुख कर्तव्य होता है-प्रजा का संरक्षण, उनके हितों व सुख-सुविधाओं का संवर्धन और उसकी नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति में सहयोग। शासन भोग न होकर एक महान योग, एक श्रेष्ठ साधना व गंभीर उत्तरदायित्वों से भरा अत्यंत महत्वपूर्ण कर्तव्य होता है। आदर्श शासन के इन मूलभूत तत्वों से वे सुपरिचित थीं। उन्होंने इन तत्वों को अपने जीवन में उतारकर प्रजा को सुखी करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की थी। प्रजा के हित को ही वे अपना हित मानती थीं। प्रजा से अपनी संतान से भी अधिक स्नेह करती थीं। इस श्रेष्ठ मनोभावना के कारण ही वे इतनी सफल व प्रजावत्सल शासिका बनकर सबके लिए परम वंदनीय बन गई थीं।
उनकी प्रजा को बाहरी शत्रुओं, चोर, डाकुओं से या राज्य के अधिकारियों से कोई भय नहीं था। प्रजा अपने को पूर्ण सुरक्षित अनुभव करती थी। प्रजा को सुख-सुविधाएं सहज. उपलब्ध थीं। उनके समय में अन्न, जल या जीवनोपयोगी किसी भी वस्तु की कभी भी कमी नहीं रही। उन्होंने कई स्थानों पर सदाव्रत व अन्न-छत्र चालू कर रखे थे, जहां साधु-संतों, गरीबों व असहायों को, बिना किसी भेदभाव के भोजन मिलता था। इसके सिवा दीन-दुखियों को वे नित्य बहुत दान-धर्म करती थीं। प्रजा के हित के लिए उन्होंने कई बड़े उपयोगी कार्य किए थे। उनकी इस नीति के कारण प्रजा बड़ी संपन्न व सुखी थी और सच्चे अर्थों में रामराज्य का अनुभव कर रही थी।
प्रजा की नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति का भी उन्हें पूरा ध्यान था। इस हेतु उन्होंने अपना जीवन अत्यंत पवित्र व उज्ज्वल रखा था। राजा के जीवन का प्रजा पर कितना प्रभाव होता है, यह वे अच्छी तरह से जानती थीं। इसलिए उन्होंने अपना जीवन व आचरण गंगाजल के समान शुद्ध व पवित्र रखा था। प्रजा को धर्म-मार्ग पर प्रेरित करने के लिए उन्होंने देश भर में ऊंचे ऊंचे मंदिर बनवाए और दान-धर्म को जीवन व शासन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया। अपने साधनामय जीवन के द्वारा वे प्रजा के जीवन को भी आनंद व प्रकाश से भरपूर कर देना चाहती थीं। उनकी मौन साधना का परिणाम अत्यंत शुभ हुआ था। “यथा राजा तथा प्रजा’ के अनुसार उनकी प्रजा भी धर्म के दिव्य मार्ग पर चलने में ही परम सुख मानती थी।
उन्होंने प्रजा के अहितकर पूर्व-प्रचलित अनेक कानूनों, नियमों व करों को हटा दिया था। निस्संतान विधवाओं के धन को शासन द्वारा जब्त कर लेने के नियम को हटाकर, विधवाओं द्वारा दत्तक लेने व अपने धन का मनचाहा उपयोग करने की छूट उन्होंने दे दी थी। इस नियम का पालन करने में विधवाओं को वे पूर्ण सहयोग देती थी। करों की संख्या व मात्रा भी उन्होंने कम कर दी थी। इससे राज्य की आमदनी कम हो गई थी पर प्रजा को बड़ा लाभ हुआ था।[1]
एक बार एक विधवा ने अहिल्याबाई के दरबार में अर्जी दी। लिखा था-‘मेरे पास बहुत धन है। निस्संतान हूं। मेरे धन का उपयोग करने व वंश चलाने के लिए मुझे किसी को गोद लेने की आज्ञा देने की कृपा करें।
यह अर्जी अहिल्याबाई के पास पहुंची तब उनके पास कुछ अधिकारीगण भी बेठे थे। उन्होंने कहा–इस स्त्री के लिए गोद लेने में आपत्ति नहीं है। यह बड़ी धनवान है। पर पहले इस बात का निबटारा कर लेना चाहिए कि राज्य को वह कितना धन नजर (भेंट) करेगी।
सब अधिकारियों की यही राय थी। उनकी बातें सुन लेने के बाद अहिल्याबाई बोली-“गोद लेने की आज्ञा देने की बात तो समझ में आ रही है, पर उससे नजर लेने की बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। उससे नजर क्यों और किस बात की लेनी चाहिए ? सारा धन कमाया उसके पति ने। वह निस्संतान मर गया। किसी को गोद लेने का अधिकार हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार उसकी पत्नी को है। पर हम राज-पाट करने वाले कहते हैं कि तुम किसी को गोद कैसे ले सकती हो ? हमारा यह कार्य धर्मशासत्रों के बिलकुल विरुद्ध है। अब हम यदि उससे धन लेकर आज्ञा देंगे तो वह धर्म-विरुद्ध कहलाएगा। यह उचित नहीं है, अत: उस स्त्री से एक पैसा भी न लिया जाए। हमारी ओर से इस अर्जी पर यही लिखा जाए कि तुम दत्तक ले रही हो, यह जानकर हमें बड़ा संतोष हुआ। तुम्हारे घराने की जो कीर्ति चली आ रही है उसे और अधिक बढ़ाओ, इसी में हमें और अधिक संतोष व सुख होगा। तुम्हारे धन की तुम ही मालिक हो। उसका पूरा उपभोग तुम ही करो। राज्य को तुम्हारे धन में से कुछ नहीं चाहिए।[2]
अहिल्याबाई के सामने प्रजा का हित ही सवोंपरि महत्व का था। प्रजा के हित के सामने बड़े से बड़े सरदारों व अधिकारियों को भी वे तुच्छ समझती थीं। अन्यायी व नियम विरुद्ध चलने वाले कर्मचारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने में वह किसी तरह का संकोच नहीं करती थीं। परिणाम यह हुआ कि अधिकारीगण प्रजा के साथ अन्याय करने में डरते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि उनके द्वारा किया गया गलत कार्य अहिल्याबाई से छिप नहीं सकेगा और उसका परिणाम भुगतने से उन्हें कोई बचा नहीं सकेगा।
चांदवड़ के मामलतदार ने एक व्यक्ति को सताया। पता चलते ही अहिल्याबाई ने उसे लिखा-“भविष्य में प्रजा के: साथ इस प्रकार का व्यवहार होना ठीक नहीं। प्रजा की हर बात पर गौर कर पूर्ण संतोष प्रदान करो। भविष्य में तुम्हारी शिकायत हुई तो उसका परिणाम अच्छा न होगा।”[3]
कर्मचारियों और उनके परिवार की सुख-सुविधाओं का वे सदैव पूरा ध्यान रखती थीं। सबसे प्रमुख बात यह थी कि कर्मचारियों के साथ उनका व्यवहार मानवीय व अत्यंत स्नेहपूर्ण होता था।
एक बार नागलवाड़ी के कमाविसदार ने उनको लिखे पत्र में शासन संबंधी बातें लिखकर अंत में लिखा-“इन दिनों मेरे पेट में बड़ा दर्द रहता है।” देवी मां ने तुरंत आवश्यक उपचार की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार प्रजा व कर्मचारियों की ओर से उनको लिखे पत्रों में शासकीय बातों के सिवा उनके घर-गृहस्थी व व्यक्तिगत जीवन की बातें नि:संकोच लिख दी जाती थीं। एक बार एक कर्मचारी ने लिखा–“मेरी मां बहुत बीमार है, घर की बड़ी दुर्दशा है।” पत्र पढ़कर वे स्वयं उस कर्मचारी के घर गईं व उसे सांत्वना दी। कर्मचारी को आवश्यक सुविधाएं भी तुरंत प्रदान कर दीं। अहिल्याबाई का नियम था कि अपने बीमार प्रजाजनों व कर्मचारियों के समाचार लेने वह स्वयं उनके घर जाती थीं।[4]
महारानी अहिल्याबाई की पहचान एक विनम्र एवं उदार शासक के रुप में भी थी। उनके ह्रदय में जरूरतमंदों, गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना भरी हुई थी।
उन्होंने समाज सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था। अहिल्याबाई हमेशा अपनी प्रजा और गरीबों की भलाई के बारे में सोचती रहती थी, इसके साथ ही वे गरीबों और निर्धनों की संभव मदद के लिए हमेशा तत्पर रहती थी।
उन्होंने समाज में विधवा महिलाओं की स्थिति पर भी खासा काम किया और उनके लिए उस वक्त बनाए गए कानून में बदलाव भी किया था।
अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपने पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया।[5]
इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी बल दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है।
इसी आत्मीयतापूर्ण व्यवहार के कारण कर्मचारीगण उनके प्रति बड़ी श्रद्धा-भक्ति रखते थे और उन पर सौंपा गया कार्य वे बड़ी प्रामाणिकता, उत्साह व योग्यता से करते थे। अच्छा काम करने वाले कर्मचारियों को समय समय पर उनके द्वारा राजकीय वस्त्र, आभूषण, पुरस्कार आदि देकर सम्मानित किया जाता था। अनेक स्वामिभक्त कर्मचारियों को उन्होंने जागीरें आदि भी प्रदान की थीं। कर्मचारियों की वृद्धावस्था में उनका उचित प्रबंध राज्य की ओर से किया जाता था।
एक श्रैष्ठ शासक के सारे गुण उनमें थे। इन कारणों से अधिकारीगण सदैव सावधान रहकर कार्य करते थे। वे उनके प्रति अपार श्रद्धा तो रखते थे पर साथ ही उनसे डरते भी बहुत थे। कामचोर, रिश्वतखोर व प्रजा को सताने वाले कर्मचारी दंड पाए बिना छूटते नहीं थे।
प्रजा से उनके संबंध अत्यंत सरल व स्नेहपूर्ण थे। किसी भी प्रकार का भेद-भाव, छल-कपट या स्वार्थ उनमें नहीं था। इसी कारण प्रजा भी उन पर असाधारण श्रद्धा-भक्ति रखती थी। उनके समय में प्रजा में किसी भी तरह का उपद्रव या अशांति नहीं हुई। आंतरिक शासन-व्यवस्था के लिए प्रजा पर किसी भी तरह की कठोरता या सेना का उपयोग करने की कभी भी आवश्यकता नहीं पड़ी। शक्ति और आतंक के द्वारा नही, बल्कि स्नेह भरी अनुपम उदारता के साथ उन्होंने शासन किया था।
देवी अहिल्याबाई होलकर और हिन्दू धर्म, संस्कृति
अहिल्याबाई होलकर ने ‘धर्म’ को अपने जीवन में उतारा। हिंदू संस्कृति में धर्म, संस्कृति और जीवन इन तीनों का विस्तार व महत्व समान है। एक को हटाने से दूसरा नहीं रहता। धर्म और जीवन का मेल हिंदू संस्कृति के आग्रह का विषय है। अहिल्याबाई के जीवन का प्रत्येक क्षण व प्रत्येक कार्य पूर्ण धर्ममय व आध्यात्मिक था। धर्म और ईश्वर की श्रद्धामय व निष्ठामय भावना को ही आध्यात्मिकता कहते हैं। यह आध्यात्मिकता ही हिंदू संस्कृति की आधार-शिला है। इसके कारण ही जीवन सार्थक व सुखद बनता है। अहिल्याबाई का जीवन पूर्णरूप से आध्यात्मिक था। इसलिए उनका जीवन इतना महान, सार्थक व अनुकरणीय बन सका।[6]
वे सच्चे अर्थों में धार्मिक थीं इसलिए उनका जीवन इतना कर्ममय था। कर्म को हिंदू संस्कृति में बड़ा महत्व दिया गया है। कर्म को जीवन का आवश्यक लक्षण माना गया है। कर्म के बिना जीवन की स्थिति असंभव है, परंतु कर्म का धर्म के साथ मेल होना आवश्यक है। जिस कर्म में धर्म का भाव न हो, वह कर्म स्वार्थ में सना हुआ होगा और वह जीवन को सुखद नहीं बना सकेगा। ठीक विधि से किए गए धर्ममय कर्म को भारत में योग कहा गया है। इसी दृष्टि से देखा जाए तो मालूम होगा कि एक महान कर्मयोगी के समान ही अहिल्याबाई का जीवन था।
अहिल्याबाई के जीवन में जितने दुख व तूफान आए बहुत कम के जीवन में आए होंगे। उन्होंने असह्य दुख बड़े धैर्य व शांति के साथ सहन किए, क्योंकि भगवान पर उनकी अविचल श्रद्धा थी। उन पर जितने भी दुख व संकट आए, उन्हें प्रभु की इच्छा समझकर उन्होंने ग्रहण किया।
अहिल्याबाई शैव मत को मानती थीं। भगवान शिव की वे बड़ी भक्त थीं। महेश्वर में उनके घर में भी एक सुंदर शिव मंदिर था। महेश्वर में तथा देश में उन्होंने असंख्य शिव मंदिरों का जीर्णोद्धार व निर्माण कराया था।[7]
उनका राज्य भगवान श्री शंकर को समर्पित होने के कारण उनकी समस्त राजकीय आशाओं पर अपने हस्ताक्षर के बदले वे ‘श्री शंकर’ लिखती थीं। श्री शंकर आज्ञा से ही सारा राजकाज चलता था। स्वयं को वे एक निमित्त मात्र ही मानती थीं। वे एक विशाल राज्य की समस्त अधिकार संपन्न शासिका होने पर भी मन से परम विरागी थीं।
मुसलमान शासकों ने भारत के असंख्य मंदिरों व मूर्तियों को नष्ट कर अनेक तीर्थ स्थानों को भ्रष्ट कर दिया था व हिंदुओं पर भीषण अत्याचार किए थे। पर अहिल्याबाई ने मुसलमानों को अपने राज्य में किसी भी तरह का दुख नहीं होने दिया। अन्य प्रजाजनों को प्राप्त समस्त अधिकार व सुविधाएं मुसलमानों को भी प्राप्त थीं। वे अपने मत के अनुसार चलने में पूर्ण स्वतंत्र थे। अहिल्याबाई ने कई मसजिदों व मजारों का निर्माण कराया था, उन्होंने मुसलमानों को सब तरह की सहायता दी थी। कई मुसलमान फकीरों व मौलवियों को उन्होंने भूमि, मकान आदि वंश परंपरा तक की सनदों सहित दान दिए थे। राज्य की मसजिदों व मजारों को भी वे आर्थिक सहायता देती थीं।[8] उनकी महान उदारता की कीर्ति दूर दूर तक फैल गई थी।
सच्चे अर्थों में परम धार्मिक होने के कारण उन्होंने अपने जीवन में कभी कोई अधर्म, अन्याय व अत्याचार नहीं किया। उनके जैसी धर्मपरायण, पर दुख-कातर व दोनों लोक सुधारने वाली महिलाएं इतिहास में कम ही हुई हैं। अहिल्याबाई का जीवन भारतीय नारीत्व का एक श्रेष्ठतम उदाहरण है। सर्व-कल्याणकारी हिंदू संस्कृति के पूर्ण दर्शन उनके जीवन में होते हैं।[9]
देवी अहिल्याबाई होलकर : मंदिरों का निर्माण कार्य
देवी अहिल्याबाई ने देशभर में कई प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर मंदिरों, घाटों, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया। इतनी ही नहीं, उन्होंने सडकों का निर्माण करवाया, अन्न क्षेत्र खुलवाये, प्याऊ बनवाये और वैदिक शास्त्रों के चिन्तन-मनन व प्रवचन के लिए मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति भी की। रानी अहिल्याबाई ने बड़ी संख्या में धार्मिक स्थलों के निर्माण कराए। उनके समस्त कार्यों की पूरी जानकारी तो फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं लेकिन उपलब्ध दस्तावेजों से मिली जानकारी इस प्रकार है –
सोमनाथ – सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे 1024 में गजनी के महमूद ने नष्ट कर दिया था। साथ ही सोमनाथ मंदिर के मुख्य मंदिर के आस-पास सिंहद्वार और दालानों का निर्माण करवाया।
त्रयंबक – यहां पत्थर का एक सुन्दर तालाब और दो छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण करवाया।
गया – विष्णुपद मंदिर के पास दो मंजिला मंदिर का निर्माण करवाया, जिसमें भगवान राम, जानकी और लक्ष्मण और हनुमान जी की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं।
पुष्कर – एक मंदिर और धर्मशाला बनवाई।
वृन्दावन – एक अन्न क्षेत्र और एक लाल पत्थर की बावड़ी बनवाई।
नाथद्वारा (राजस्थान) – मंदिर, धर्मशाला, कुआं व कुंड बनवाया।
टेहरी (बुंदेलखंड) – धर्मशाला बनवाई।
बुरहानपुर (म.प्र) – घाट बनवाया।
बेरुल (कर्नाटक) – गणपति, पांडुरंग, जालेश्वर, खंडोबा, तीर्थराज, व अग्नि के मंदिर बनवाए।
आलमपुर – सोनभद्र नदी के तट पर बसे इस स्थान पर अपने ससुर की स्मृति में एक देवालय स्थापित करवाया। भगवान विष्णु का एक मंदिर भी यहां बना हुआ है।
हरिद्वार – अहिल्याबाई ने हरिद्वार स्थित कुशावर्त घाट का जीर्णोंधार कराकर उसे पक्के घाट में परिवर्तित कराया। उन्होंने इसी स्थान के समीप दत्तात्रेय भगवान का मंदिर भी स्थापित कराया। पिंडदान के लिए भी एक उचित स्थान का निर्माण करवाया।
वाराणसी – सुप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का निर्माण करवाया। राजघाट और अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहरा मंदिर है। यह मंदिर 51 फुट ऊंचा और पत्थर का बना हुआ है। मंदिर के पश्चिम में गुंबजदार जगमोहन और इसके पश्चिम में दंडपाणीश्वर का पूर्व मुखी शिखरदार मंदिर है। इन मंदिरों का निर्माण अहिल्याबाई ने ही करवाया था।
वाराणसी में ही अहिल्याबाई होलकर ने अहिल्याबाई घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। उन्होंने बहुत से कच्चे घाटों का जीर्णोद्धार कराया, जिसमें से शीतलाघाट प्रमुख है। इस प्राचीन नगर में महारानी ने हनुमान जी के भी एक मंदिर का निर्माण करवाया।
काशी के समीप ही तुलसीघाट के नजदीक लोलार्ककुंड के चारों ओर कीमती पत्थरों से जीर्णोद्धार करवाया। इस कुंड का उल्लेख महाभारत और स्कन्दपुराण में भी मिलता हैं।
बद्रीनाथ और केदारनाथ – धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। सन 1818 में कैप्टन स्टुअर्ट नाम का एक व्यक्ति हिमालय की यात्रा पर गया। वहां केदारनाथ के मार्ग पर तीन हजार फुट की ऊंचाई पर अहिल्याबाई द्वारा निर्मित एक पक्की धर्मशाला उसने देखी थी।
बद्रीनाथ में तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था। हिंदू धर्म में गंगाजी का व गंगाजल का बड़ा महत्व है। पूरे देश में स्थापित तीर्थस्थान भारत की एकात्मकता व राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। भारत के तीर्थों में गंगाजल पहुंचाने की श्रेष्ठ व्यवस्था द्वारा अहिल्याबाई ने धार्मिकता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकात्मकता की प्राचीन परंपरा को नवजीवन दिया था।
देवप्रयाग – इस स्थान पर अहिल्याबाई ने तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था।
गंगोत्री – यहां विश्वनाथ, केदारनाथ, भैरव और अन्नपूर्णा चार मंदिरों सहित पांच-छह धर्मशालाओं का निर्माण करवाया।
बिठूर (कानपुर के समीप) – ब्रह्मघाट सहित गंगा नदी पर कई घाटों का निर्माण करवाया।
ओंकारेश्वर – एक बावड़ी बनवाई और महादेव के मंदिर में नित्य पूजन के लिए लिंगार्चन की व्यवस्था की।
हंडिया – हर्दा के समीप नर्मदा के तट पर स्थित इस स्थान पर एक धर्मशाला और भोजनालय का निर्माण करवाया।
अयोध्या, उज्जैन और नासिक – भगवान राम के मंदिर का निर्माण किया। उज्जैन में उन्होंने चिंतामणि गणपति के मंदिर का भी निर्माण करवाया।
सुलपेश्वर में उन्होंने महादेव के एक विशाल मंदिर और भोजनालय का निर्माण करवाया। तथा उन्होंने एक नई परंपरा शुरू की, कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर आएगा उसे एक लोटा, कंबल मिलेगा और यह परंपरा उस समय से आज भी निभाई जाती है।
एलोरा, महाराष्ट्र – 1780 के आस-पास घृणेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।
महेश्वर – अहिल्याबाई को महेश्वर बहुत प्रिय था। उन्होंने यहां कई प्राचीन मंदिरों, घाटों आदि का जीर्णोद्धार कराया। इसके अलावा, कई नये मंदिर, घाट व मकान बनवाए। उन्होंने महेश्वर में अक्षय तृतीया के शुभ दिन घाट पर भगवान परशुराम का मंदिर बनवाया।
संगमनेर – श्रीराम मंदिर बनवाया।
सिहपुर – शिवमंदिर व धर्मशाला बनवाई।
नेमावर – श्री सिद्धनाथ का सुंदर मंदिर व धर्मशाला सहित नर्मदा पर एक बड़ा घाट बनवाया।
जगन्नाथपुरी मंदिर को दान और आंध्र प्रदेश के श्रीशैलम सहित महाराष्ट्र में परली वैजनाथ ज्योतिर्लिंग का भी कायाकल्प करवाया।
अहिल्याबाई ने हंडिया, पैठण और कई अन्य तीर्थस्थलों पर सरायों (रुकने के एक स्थान) का निर्माण करवाया। मध्य प्रदेश के धार स्थित चिकल्दा में नर्मदा परिक्रमा में आने वाले भक्तों के लिए भोजनालय की स्थापना की। मध्य प्रदेश के खरगोन स्थित मंडलेश्वर में उन्होंने मंदिर और विश्राम गृह बनवाए। मांडू में उन्होंने नीलकंठ महादेव मंदिर की स्थापना की।
अहमदनगर – उन्होंने अपनी जन्मभूमि पर भी एक शिवालय और घाट बनवाया था। यह मंदिर अहिलेश्वर के नाम से जाना जाता है।
कुरुक्षेत्र – रानी अहिल्याबाई को सोने और चांदी से कई बार तोलकर सारा सोना-चांदी ब्राह्मणों को दान कर दिया।
अहिल्याबाई द्वारा किए निर्माण कार्यो का उद्देश्य वैभव व सत्ता का प्रदर्शन करना नहीं बल्कि लोकहित था। उस युग में आवागमन के साधनों का व तीर्थस्थानों में निवास के स्थानों का बड़ा अभाव था। इस दृष्टि से अहिल्याबाई ने देश में कई मार्गो, पुलों, जलाशयों व धर्मशालाओं आदि का निर्माण कराकर एक बड़ी सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति की थी। इन निर्माण कार्यो में अहिल्याबाई की मानवीय भावनाओं व राष्ट्रीय व्यक्तित्व के स्पष्ट दर्शन होते हैं।[10]
उनकी सैन्य प्रतिभा के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी सफल कूटनीति का साक्ष्य यह है कि विशाल सैन्य बल से सज्ज आक्रमण की नीयत से आए राघोबा को उन्होंने अकेले पालकी में बैठकर उनसे मिलने आने के लिए उसे विवश कर दिया।
डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।
इन मंदिरों, घाटों व भवनों आदि का निर्माण राष्ट्र के पुनरुत्थान की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था। उत्तर भारत में अधिकांश मंदिर व मूर्तियां मुसलमान शासकों द्वारा नष्ट कर दी गई थीं। तीर्थ-स्थान भ्रष्ट कर दिए गए थे। यदि तब अहिल्याबाई इन मंदिरों का जीणोंद्धार तथा टूटे मंदिरों के स्थान पर नए मंदिरों का निर्माण नहीं कराती, तीर्थस्थानों को पुन: प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं कराती, संस्कृत व संस्कृति को आश्रय नहीं देतीं और भारतीय शिल्पियों व कला-कौशल को सब तरह का सहयोग न देतीं तो आज भारत का चित्र कुछ ओर ही होता। उन्होंने ये सारे कार्य कर वास्तव में भारत का पुन: निर्माण करने का महान कार्य संपन्न किया।[11]
विद्वानों की दृष्टि में अहिल्याबाई होलकर
देवी अहिल्याबाई के प्रति समस्त देशवासियों की अपूर्व श्रद्धा रही है। सब उन्हें अपनी स्नेहमयी माता और अलौकिक गुणों व शक्ति से संपन्न देवी के समान मानते थे। उनके जीवन काल में ही कई कवियों, लेखकों, राजनीतिज्ञों आदि ने उनका गुण-गौरव बड़े भावपूर्ण शब्दों में किया था। तब से अभी तक उनके गुणगान की पावन धारा सतत प्रवाहित हो रही है।
संस्कृत में सुप्रसिद्ध कवि व विद्वान खुशालीराम ने ‘अहिल्या कामधेनु’ नामक एक सुप्रसिद्ध ग्रंथ लिखा है। ग्रंथ संस्कृत में है। उसने अहिल्याबाई का चरित्र व महत्व बड़ी अच्छी तरह से लिखा है।
वह लिखते हैं-
नित्यं सा ददादि दान देव ब्राह्मण पूजकान्।
काल॑ व्यत्येति सा सम्यग् धर्ममार्गपरायणा ॥[12]
वे सदा देव, ब्राह्मण और पुजारियों को दान देती थीं तथा धर्म कार्यो में अपना समय बिताती थीं।
मराठी के सुप्रसिद्ध कवि मोरापन्त कहते हैं —
देवी अहिल्याबाई। झालीस जगतत्रयांत तू धन्या।
न न्याय-धर्म-निरता अन्या कलिमाजि ऐकिली कन्या ॥
अर्थात हे देवी अहिल्याबाई। तुम तीनों लोकों में धन्य -हो। कलियुग में तुम्हारे जैसी न्यायी और धर्मपरायण अन्य नारी देखी-सुनी नहीं गई।[13]
स्काटलैंड की कुमारी जोना बेली नाम की एक सुप्रसिद्ध कवियित्री अहिल्याबाई के समय में जीवित थी। इस महिला ने देवी की प्रशंसा में एक छोटी-सी पुस्तक लिखी है। पुस्तक में वर्णित लंबी कविता में उनकी महानता व गुणों का बड़ा सुंदर वर्णन है। एक स्थान पर लिखा है, अहिल्याबाई ने तीस वर्ष तक शांति पूर्वक राज्य किया। उनके समय में राज्य का ऐश्वर्य बढ़ता ही गया। सभ्य और असभ्य, बूढ़े और जवान सब उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे। इससे यह स्पष्ट है कि अहिल्याबाई की कीर्ति भारत की सीमाओं को लांघकर विदेशों तक पहुंच गई थी।[14]
सुप्रसिद्ध इतिहासकार तथा मध्य भारत के पोलिटिकल एजेंट सर जान मालकम ने अहिल्याबाई के संबंध में पर्याप्त प्रमाणित तथ्य लिखे हैं। वह लिखते हैं – ‘उनका रहन-सहन अत्यंत सरल, सादा और चरित्र अत्यंत महान था। सच्चे वैधव्य का हिंदू आदर्श जैसा उन्होंने निभाया था, वैसा बहुत कम विधवाएं कर सकी हैं। एक महारानी के लिए तो यह और भी सराहनीय है।[15]
भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड एलनबरो ने प्रथम अफगान युद्ध के बाद महाराजा श्री हरिराव होलकर को लिखे पत्र में अहिल्याबाई की महानता का बड़े गौरवपूर्ण शब्दों में उल्लेख कर लिखा था कि वे एक सर्वश्रेष्ठ आदर्श व महान शासिका थीं। देश में सर्वत्र उनके प्रति आदर भाव पाए जाते हैं।[16]
प्रसिद्ध इतिहासकार श्री जदुनाथ सरकार ने तथ्यों के आधार पर देवी को इतिहास की एक महान महिला माना है। वे लिखते हैं-अहिल्याबाई के प्रति मेरा आदर बढ़ गया है। अभी तक केवल एक शासिका, सत्ता व संपत्ति की स्वामिनी होते हुए भी सरल सात्विक जीवन बिताने वाली माता के रूप में में उन्हें आदर देता था। उन्होंने कई मंदिर बनवाए घाट बनवाए, बहुत-सा धन दान-धर्म में दिया। भूमि व गांव इनाम में दिए। पर अब उनका एक दूसरा ही स्वरूप मेरे सामने आया है। मूल कागज-प्रों से यह सिद्ध होता है कि वे प्रथम श्रेणी की राजनीतिज्ञ थीं और इसीलिए उन्होंने इतनी तत्परता से महादजी को सहयोग दिया। यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि अहिल्याबाई के आश्रय के बिना उत्तर भारत की राजनीति में महादजी को इतना श्रेष्ठत्व कदापि नहीं मिलता।‘[17]
सुप्रसिद्ध विद्वान इतिहासज्ञ रायबहादुर चिन्तामणि विनायक वैद्य के अनुसार- यह लोकोत्तर महिला अपने अनेक सदगुणों के कारण महाराष्ट्र के लिए ही नहीं, बल्कि समूची मानव जाति के लिए भूषण रूप हुई है।..जीवमात्र के प्रति उनकी दया इतनी व्यापक थी कि अपने नित्य के व्यवहार में उन्होंने पशु-पक्षियों तक को भी नहीं भुलाया। अपनी प्रजा पर उनका इतना प्रेम था कि वे उन्हें अपनी संतान ही मानती थीं।[18]
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के अनुसार, “ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले सामान्य परिवार की बालिका से एक असाधारण शासनकर्ता तक की उनकी जीवनयात्रा आज भी प्रेरणा का महान स्रोत है।
भारतीय नारी का आदर्श
अहिल्याबाई एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न नारी थीं। एक छोटे-से गांव के साधारण परिवार में जन्म ले, एक विशाल राज्य की सर्वेसर्वा बन अपने परम तेजस्वी, कर्मठ व महान जीवन के द्वारा अपने जीवन काल में ही मां, सती व देवी के रूप में पूजित हो अक्षय कीर्ति प्राप्त करना अहिल्याबाई का ही काम था। अहिल्याबाई की उपमा उन्हें ही दी जा सकती है।
उनमें जितने सदगुण थे, उतने एक साथ शायद ही किसी में एक स्थान पर मिलेंगे। भारत की धर्मपरायण व सर्व कल्याणकारी हिंदू संस्कृति की वे साक्षात प्रतिमूर्ति थीं। उनका जीवन भारतीय नारीत्व का ज्वलंत उदाहरण था।
उनके जीवन काल में ही इस देश के निवासी उन्हें गंगाजल निर्मल, पुण्यश्लोक व प्रात: स्मरणीय जैसे श्रेष्ठ विशेषणों से संबोधित करने लगे थे। तब से देवी के प्रति श्रद्धा की भावना दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। वे एक रानी व दो बच्चों की मां थीं पर उनका हृदय इतना बड़ा व वात्सल्य रस से परिपूर्ण था कि सब उन्हें अपनी सगी मां के समान ही मानते थे उन्होंने लोकमाता का स्थान प्राप्त कर लिया था। पूरे भारत के व समूची मानवता के स्थाई हित को ध्यान में रखकर ही उन्होंने कार्य किए थे।
प्रात: स्मरणीया देवी श्री अहिल्याबाई होलकर ने मानव-मात्र के शाश्वत सुख-शांति के लिए जो कुछ किया है, उसे भारतीय सदा याद रखेंगे। देवी का श्रेष्ठ जीवन समूचे मानव समाज की अमूल्य व प्रेरक निधि बन गया है।
[1] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 53
[2] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 54
[3] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 57
[4] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 58
[5] गोविन्दराम केशवराम जोशी, अहिल्याबाई होलकर का जीवन चरित्र, ई. पुस्तकालय, पृष्ठ 77
[6] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 40
[7] गोविन्दराम केशवराम जोशी, अहिल्याबाई होलकर का जीवन चरित्र, ई. पुस्तकालय, पृष्ठ 103
[8] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 42
[9] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 43
[10] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 81
[11] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 51
[12] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 86
[13] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 62
[14] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 88
[15] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 88
[16] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 89
[17] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 90
[18] हीरालाल शर्मा, अहिल्याबाई, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृष्ठ 90