भारत में जनजातीय स्वतंत्रता सेनानियों और योद्धाओं की एक दीर्घ परंपरा रही है और स्वतंत्रता संग्राम में उसका अविस्मरणीय योगदान है। इतिहास और राष्ट्रीय संदर्भ में बिरसा मुंडा ऐसा व्यक्तित्व है, जिसने तत्कालीन जनजातीय समाज की परिसीमितता की परिधि को तोड़कर राष्ट्र और धर्म के परिप्रेक्ष्य में ऐसा अमूल्य योगदान दिया जो किसी भी प्रकार से स्वतंत्रता आंदोलन के हमारे अन्य नायकों, विचारकों और चिंतकों के योगदान से कम नहीं है।
भगवान बिरसा मुंडा
बिरसा का संपूर्ण जीवन देवतुल्य जीवन प्रतीत होता है। मात्र 25 वर्ष की आयु में उन्होंने उन जनपदों में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की लहर पैदा की, जो संसाधनविहीनता और निर्धनता की विकट परिस्थितियों में घिरे थे।
बिरसा मुंडा को संपूर्ण देश ने अपना भगवान माना है। बचपन से कुशाग्र बुद्धि के धनी बिरसा ने ईसाई षड्यंत्रों एवं सामाजिक कुरीतियों का जमकर प्रतिकार किया। साथ ही ब्रिटिश सरकार से अपने जंगलों को बचाने के लिये वनवासियों को एकजुट किया।
भगवान बिरसा मुंडा ने धर्म संचेतना, समाज संचेतना, स्त्री संचेतना, उपनिवेशवाद का विरोध, ब्रिटिश साम्राज्यवाद का विरोध आदि सभी विषयों पर अत्यंत विवेकपूर्ण दृष्टि से विचार व्यक्त किये हैं।
भगवान बिरसा भारत के ऐसे सपूत हैं, जिनकी प्रतिमा संसद भवन परिसर में स्थापित है। 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती का उत्सव पूरे देश में जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाया जाता है। देशभर में भगवान बिरसा के नाम पर अनेक संग्रहालय और संस्थान संचालित हैं।
बिरसा का जन्म एवं परिवार
बिरसा का जन्म झारखंड के छोटा नागपुर स्थित उलीहातु गाँव में 15 नवम्बर, 1875 को हुआ। उनका जन्म बृहस्पतिवार के दिन होने के कारण ‘बिरसा’ रखा गया। बिरसा की माता का नाम करमी हातू व पिता का नाम सुगना मुंडा था। बिरसा दो भाई और दो बहन थे।
मुंडा मूलतः एक वनवासी जाति है तथा खेती-बाड़ी उनका मुख्य व्यवसाय है। उस समय उलिहातु में रहने वाले मुंडा लोगों को अंग्रेज अधिकारियों के अत्याचारों से दो-चार होना पड़ता था। वे वनवासियों को असभ्य और जंगली कहते थे।
अंग्रेजों के अत्याचार से परेशान होकर सुगना परिवार समेत उलिहातु से पलायन कर बंबा जाकर बस गया। वह ऐसे स्थान की तलाश में थे, जहाँ परिश्रम करके परिवार की सभी आवश्यकताएँ पूरी कर सकें और बच्चों को उचित शिक्षा उपलब्ध करा सकें।
ईसाइयों का षड्यंत्र : धर्मांतरण
अंग्रेज अपने साथ ईसाई मिशनरियों को भी साथ लेकर आए थे। कहने को तो ये धर्म प्रचारक थे, लेकिन इनका मूल उद्देश्य जहाँ एक ओर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव मजबूत करना था, वहीं वनवासियों को उनके मूल सनातन धर्म के विरुद्ध भड़काकर उनका ईसाईकरण करना भी था। ईसाइयों ने सुगना को उनकी निर्धनता के लिये कोसा, उनके धर्म को नरक बताते हुए काफी अपशब्द कहे। इसके विपरीत ईसाइयत को समानता का मार्ग बताया। सभी को उन्नति के समान अवसर दिये जाने की बात कही।
अंततः सुगना ने ईसाई धर्म अपना लिया जिसके बाद उनका नाम मसीह दास रखा गया। जब सुगना ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तो बिरसा की माँ करमी ने भी उसे स्वीकार कर लिया। हालांकि जिन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार किया, वह व्यर्थ हो गया। उन्हें जो बातें कही गईं, वह पूरी नहीं की गईं। उन्हें ईसाई बनाकर छोड़ दिया गया।
मतान्तरण के उपरांत मिशनरी स्कूल में प्रवेश
यदि ईसाई मिशनरियाँ समाज कल्याण का कार्य कर रहीं थीं तो उन्हें बिरसा का धर्म बदले बिना शिक्षा मुहैया करानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पादरियों ने बपतिस्मा कर बिरसा का मतान्तरण किया और वे ‘डेविड बिरसा’ हुए। मतान्तरण के बाद ही उन्हें चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में प्रवेश मिला। उन्होंने सन् 1886 से 1890 तक मिशनरी स्कूल में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इन पाँच वर्षों में उन्होंने अंग्रेजी के साथ ईसाई प्रार्थना आदि भी सीखी।
बिरसा जिस मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, वहाँ विद्यार्थियों को ईसाई संस्कृति से सराबोर किया जाता था। वे ईसाइयत को त्याग न दें, इस डर से उन्हें वनवासी परंपराओं से दूर रखा जाता था। बिरसा ईसाइयत में दीक्षित जरूर थे, किन्तु उनके हृदय में वनवासी और सनातन परंपराएँ विराजमान थीं।
उस मिशनरी विद्यालय में बिरसा को वे सभी सुख-सुविधाएँ मिल रही थीं, जो निर्धनता और दारिद्रय के उस भीषण और मन को विदीर्ण करने वाले वातावरण में कतिपय संभव ही नहीं थीं, लेकिन बिरसा किसी शिक्षा पद्धति के गुलाम नहीं बन सके। स्कूली शिक्षा के दौरान से ही वे ब्रिटिश शासकों के अत्याचार को महसूस करने लगे थे और इनसे निपटने के लिये चिंतन करने लगे थे।
सिंह की तरह गर्जन
जब मिशनरी स्कूल में कहा जा रहा था कि “जनजातियों का कोई धर्म नहीं है। इनके पास तो केवल अंधविश्वास है। इनके पास डायन विद्या का नग्न नृत्य है। इनकी कोई अपनी परंपरा नहीं है। ये किसी भी प्रकार से किसी प्रतिष्ठापित धर्म को मानने वाले लोग नहीं हैं। इनके अंदर कोई सांस्कृतिक चेतना नहीं है। इनकी परंपराएँ अत्यंत आदिम, अनुपादेयी हैं। इतिहासपरख भी नहीं हैं और इनकी एक समसामयिक और वैज्ञानिक समाज में कोई उपादेयता नहीं हो सकती है”। तब बिरसा, जो उस समय किशोरवय की चौखट पर पैर रखने वाले थे, सिंह गर्जना के साथ उठ खड़े होते हैं, हाथी की तरह चिंघाड़ते हैं और जो शिक्षक उन्हें ईसाइयत की शिक्षा दे रहे थे, जो वनवासियों को धर्मांध बता रहे थे, उनके विरुद्ध हुंकार भरते हुए उन्होंने कहा, “धर्म कदाचित यह नहीं सिखलाता कि किसी भी मानव जाति, समुदाय, परंपरा और उसकी सांस्कृतिक भावना का मान-मर्दन किया जाए और जो धर्म यह करता हो, यह बिरसा उसके विरुद्ध है”।
यह बात साधारण नहीं है। बिरसा को चर्च के प्रधान पादरी ने बुलाया, क्योंकि बिरसा की क्षमताओं से वह परिचित था और बिरसा से कहा कि “तुम अब मुंडा नहीं हो। तुम जनजाति नहीं हो। तुम केवल और केवल एक ईसाई हो। तुम्हारा बपतिस्मा हो चुका है। तुम्हारे पिता ईसाइयत को स्वीकार कर चुके हैं। तुम्हारी माँ ईसाइयत को स्वीकार कर चुकी है। तुम्हारी बहनें ईसाइयत को स्वीकार कर चुकी हैं। तुम्हारे समाज का प्रत्येक व्यक्ति इसाईयत को स्वीकार कर चुका है और तुम ईसाइयत को गाली दे रहे हो”! उस पर बिरसा कहते हैं, “मैंने ईसाइयत को गाली नहीं दी है। ईसाइयत जिस तरह से हमारी भूमि पर काम कर रही है, मैंने उसका विरोध किया है”। बिरसा कहते हैं, “यदि तुम्हारे धर्म के प्रचार का माध्यम यही है। भाषा यही है। तरीके यही हैं तो तुम्हारे स्कूल की, तुम्हारे चर्च की, तुम्हारी रोटी की, तुम्हारे दिए हुए वस्त्र की मुझे कोई आवश्यकता नहीं”।
स्कूल से बिरसा का निष्कासन
मिशनरियों के मनमाने नियमों व धर्महीन कृत्यों का अनुसरण करना बिरसा के लिये संभव नहीं था। ईसाइयत को वह लादे गये बोझ की तरह ढो रहे थे। स्कूल में पादरी मुंडाओं व हिन्दू धर्म के विरूद्ध बोलते थे, जिसका प्रतिकार करने पर बिरसा को निष्कासित कर दिया गया। बिरसा अपने कमरे में जाकर जब अपना सामान समेटने लगे, तब छात्र पूछते हैं कि “बिरसू तुम जा कहाँ रहे हो?” तो बिरसा कहते हैं कि “मुझे अपने उस धर्म को ढूँढना है, जिस धर्म को हम भूल गए हैं।“ निष्कासन के बाद गाँव पहुँचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ।
धर्म के प्रति दृष्टिकोण
बिरसा मुंडा के अंदर जो परंपरा बोध है, वह बहुत गहरा है। सनातनता को अन्वेषित करने की कोशिश उन्होंने अपनी तरह से की है। एक जगह अपनी माँ से संवाद में बिरसा कहते हैं- “माँ जंगल में आग है। एक दहक है। एक धुँआ है। एक उदासी है। एक मौन है। एक वेदना है। सर्वत्र प्रताड़ना है और कोई भी मुंडा इनके विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार नहीं है। यह बिरसा चाहता है कि तुम आशीर्वाद दो और प्रताड़नाओं के इस तंत्र के विरुद्ध मैं खड़ा हो सकूँ।” यह एक बालक बिरसा मुंडा की आत्माभिव्यक्ति है।
यद्यपि कथित तौर पर ईसाई धर्म में समानता, अधिकार तथा ईश्वर प्राप्ति की बात कही जाती है, तथापि इसके अंतर्गत अपनाए जाने वाले तरीके व तर्क बिरसा का मन अशांत कर देते थे। उनका स्पष्ट मत था कि “कोई भी धर्म किसी दूसरे धर्म को अपमानित करना या उससे बैर करना नहीं सिखाता। धर्म का एकमात्र उद्देश्य है – मानवता, करुणा, परोपकार, दया और सत्य मार्ग का पालन करना। इनका अनुसरण करना ही मनुष्य का सच्चा धर्म है। अतः मनुष्य को अपने धर्म से विमुख होकर किसी दूसरे धर्म को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे स्वधर्म में ही धर्म की विशेषताएँ ढूँढ़नी चाहिए”।
बिरसा का अपनी माँ से संवाद
बिरसा ने स्कूल छोड़ दिया। बिरसा ने घर पहुँचकर अपनी माँ को कहा- “मैं ईसाइयत स्वीकार नहीं करता। मुझे किसी धर्म से घृणा नहीं है, लेकिन माँ मैं उस धर्म को ढूँढूगा, जिस धर्म की कहानियाँ मैंने आपसे सुनी हैं, नानी से सुनी हैं, मौसी से सुनी हैं। मैं उस धर्म को ढूँढ निकालूँगा”। माँ कहती है “तू कैसी बातें करता है! इस स्कूल के लिए तुम्हारे पिता सुगना मुंडा ने कहाँ कहाँ नहीं घुटने टेके, कहाँ कहाँ नहीं सर झुकाए।“ बिरसा कहते हैं, “उन्होंने गलत किया, अच्छा होता कि वे मुझे मेरी परंपरा का ज्ञान कराते। ये चर्च, ये टोपी, ये लूथेरियन, ये Protestant, ये कैथोलिक ये बिरसा को नहीं बदल सकते, बिरसा जरुर इनका रास्ता बदल देगा, तुम देख लेना माँ”।
बिरसा अपने संभाषणों में बार-बार कहते थे कि “टोपी टोपी एक हैं। ये जितने टोपी-हैट पहनने वाले हैं, ये मिलजुलकर साजिश करते हैं। ये मत समझो कि ब्रिटिश प्रशासन अलग है, और चर्च अलग है। ये दोनों एक ही हैं और ये सब मिलकर षड्यंत्र कर रहे हैं”।
बिरसा का पादरी को जवाब
बिरसा की मौसी जॉनी ने उन्हें पढ़ाने के लिये बहुत संघर्ष किया। मौसी जॉनी का विवाह खटांग में हुआ, जिसके बाद बिरसा भी उनके साथ खटांग आ गये। यहाँ उनकी भेंट एक पादरी से हुई। ईसाइयत का बखान करते हुए पादरी ने हिन्दू धर्म व वनवासियों के रहन-सहन का उपहास किया, जिसके उत्तर में बिरसा ने कहा कि, ‘कोई भी धर्म मनुष्य को नरक की ओर नहीं धकेलता। उसका उद्देश्य केवल ईश्वर प्राप्ति होता है। समाज में अनेक धर्म हैं और उनके अंतर्गत ईश्वर प्राप्ति के अलग-अलग साधन हैं। सभी अपनी-अपनी उपयोगिता एवं स्थिति के अनुसार इन साधनों का उपयोग करते हैं। ऐसे में किसी के धार्मिक कृत्यों को अंध-विश्वास बताने वाला मनुष्य ही अज्ञानी है।’ ग्यारह साल के एक बालक के मुख से धर्म की परिभाषा सुनकर पादरी सकते में आ गया।
हिंदू धर्म में बिरसा की वापसी
सन 1891 में बिरसा मुंडा की भेंट आनंद नामक एक व्यक्ति से हुई। उन्होंने वेद-पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता आदि धार्मिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया था। बिरसा ने आनंद को अपना गुरू बना लिया। उन्होंने अपनी अभिरुचि अपने गुरु को बताते हुए कहा कि जब प्रथम में वेद ही है, तो मेरा भी प्रथम दृष्टया बोध उस वैदिक ग्रंथ में होना चाहिए। बिरसा को लगने लगा कि यह एक विराट धर्म है, जिसके महासमुद्र में उनको तैरना चाहिए। उन्होंने अपने गुरु से न केवल शास्त्र की शिक्षा ली बल्कि तप और साधना के महत्त्व को भी समझा। वे ईसाइयत को त्यागकर पुन: सनातन रीति-रिवाजों के अनुसार जीवन व्यतीत करने लगे।
समाज-सुधार की राह
बिरसा गाँव-गाँव घूमकर वनवासियों को जागरूक करने लगे। उन्होंने समझाना शुरू किया कि मिशनरी व ब्रिटिश अलग-अलग नहीं हैं, दोनों एक हैं। ये लोग हमारे शत्रु हैं। परधर्मी हैं। इन्हीं के शोषण के कारण हमारी स्थिति दयनीय है। बिरसा द्वारा आरंभ आंदोलन सर्वप्रथम धार्मिक था, जिसका प्रमुख उद्देश्य ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध लोगों को एकजुट करना और अपने धर्म की रक्षा करना था।
बिरसा के उपदेश
बिरसा का सुधारवादी आन्दोलन स्वामी दयानन्द सरस्वती, विवेकानन्द और चैतन्य महाप्रभु के आन्दोलन की तरह प्रगतिशील एवं उदारवादी सिद्धांतों पर आधारित था। अंधविश्वास, अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म मानने के चलन को दूर करने में बिरसा जुटे रहे। उनके उपदेश एवं आन्दोलनों के मुख्य बिन्दु थे:
- सोखा, ओझा आदि द्वारा फैलाये गये भ्रम से दूर रहना।
- बलि देना अर्थहीन और व्यर्थ की जीव हत्या है।
- सभी जीवों पर दया और उन पर प्रेम करना चाहिए।
- हड़िया और शराब पीना नहीं चाहिए।
- सादा जीवन और उच्च विचार जीवन का आदर्श बने।
- एकता में ही बल है, अत: संगठित रहें।
- पवित्र जनेऊ धारण करो और एक दिन काम छोड़कर ‘सिंगबोंगा’ का स्मरण करो।
- जूठा, अखाद्य भोजन और दूसरे धर्मावलम्बी से विवाह मत करो।
सिंगबोंगा
बिरसा हमेशा से अपने अनुयायियों के मध्य तीन बातें रखते थे, वे उनसे कहते थे कि ‘पूर्व में ब्रह्मा तुम्हें आवाज दे रहे हैं। पश्चिम में विष्णु तुम्हें आवाज दे रहे हैं। उत्तर में काली तुम्हें आवाज दे रही हैं। दक्षिण में दुर्गा तुम्हें आवाज दे रही हैं। हर दिशाओं से तुम्हारे बोंगा तुमको आवाज दे रहे हैं।’
दो शब्द बिरसा मुंडा को अत्यधिक प्रिय थे- एक शब्द है ‘महादेव बोंगा’ और दूसरा शब्द है ‘चंडी बोंगा’। बिरसा स्त्रियों से कहते थे, ‘वह जननी जो महादेव बोंगा की पत्नी हैं, तुम उस चंडी के समान बनो।’ और पुरुषों से कहते थे ‘वो सीता के पति तुम्हें आह्वान कर रहे हैं, तुम्हें आवाज दे रहे हैं, तुम उनकी सुनो।’ महादेव मुंडा, महादेव बोंगा, चंडी बोंगा ये देवताओं के नामों का स्थानीयकरण भाषिक अंतरण है। मूल में महादेव हैं। झारखंड के टांगी नाथ हैं। वैद्यनाथ हैं।
‘सिंगबोंगा’ निश्चित रूप से जनजातीय शब्द है। सिंगबोंगा की उपासना की बिरसा ने बात की है। भारत में तो ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ मानते हैं। भगवान बिरसा मुंडा ने इसी संदर्भ में यह बात कही है कि एक सिंगबोंगा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह अन्य देवी-देवताओं का जो उदाहरण दे रहे हैं वो उदाहरण किसी प्रकार से गलत है।
बिरसा मुंडा से संबंधित गीतों, आख्यानों, उपदेशों में यदि सतयुग का आह्वान है, तो एक व्यक्ति का भी आह्वान है कि ‘तुलसी बाबा तुम आ जाओ!’ उस धर्मप्रणेता तुलसी का आह्वान भी बिरसा मुंडा करते हैं क्योंकि सनातन धर्म की पुर्नप्रतिष्ठापना में उत्तर भारत में यदि किसी का परम योगदान था तो वो बाबा तुलसी थे और बिरसा के गीतों में बाबा तुलसी अर्थात् ‘तुलसीदास’ ही हैं।
सरदारी आंदोलन
जब बिरसा आंदोलन चला रहे थे तो वहाँ एक सरदारी आंदोलन चल रहा था। ये ‘सरदारी आंदोलन’ क्या था और यह क्यों चल पड़ा था—जनजातीय जन ये मानते थे कि हम अपने-अपने क्षेत्र के सरदार हैं। हम अपने-अपने क्षेत्र के मुखिया हैं। हम अपने प्रकार के जमींदार-जागीरदार हैं। हम अपनी तरह के पाल हैं, पुरोहित हैं, राजा हैं। हमारी अपनी एक जीवनदृष्टि है और वह जीवनदृष्टि एक और वन्य क्षेत्र की विविधताओं को धारण करती थी तो वहीं दूसरी और सनातनता के महामार्ग का भी अनुसरण करती थी। ये दोनों बोध बिरसा के अंदर पहले से विद्यमान थे। अतः बिरसा सबसे पहले सरदारी आंदोलन को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।
इस आंदोलन के तहत बिरसा पहले शस्त्र उठाने की बात नहीं करते, शस्त्र उठाने की बात सरदारी आंदोलन के लोग करते हैं। बिरसा ने 1895-96 में अपने संबोधनों में कई बार कहा है कि ‘हिंसा एकमात्र मार्ग नहीं है, धर्म हिंसा से नहीं चलाया जा सकता है, हमें पहले अहिंसावादी मार्गों के बारे में सोचना होगा।’ जितने भी सरदार इस आंदोलन में थे, वे बिरसा की परिचर्चा करने लगे, लेकिन सरदारों के तो अपने मार्ग थे। वे चाहते थे कि जो बाहरी लोग आए हैं, उनको भगाया जाए। ब्रिटिश सरकार हमें रियायतें दे और हमारा जीवन सुखकर हो जाए। बिरसा ने इसको पढ़ लिया। बिरसा का मानना था कि कुछेक मुंडा सरदारों के संपन्न और सुखी हो जाने से ब्रिटिश सत्ता और सामान्य मुंडाओं-उरावों के बीच की कड़ी बन जाने से आत्यंतिक सुधार नहीं हो सकता है और जिस धर्मराज की हम कल्पना कर रहे हैं वह कल्पना साकार नहीं हो सकती है।
ईसाइयत त्याग देने का आह्वान
बिरसा ने वनवासियों से ईसाइयत त्याग देने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि मिशनरियों की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए ईसाई धर्म का बहिष्कार किया जाना चाहिए। जब बिरसा ने स्वधर्म की बात कही तो अनेक वनवासी ईसाई धर्म छोड़कर पुनः अपने धर्म में लौट आए। बिरसा ने आर्थिक, धार्मिक और सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया। इस प्रतिकार ने अंग्रेजों व चर्च के पादरियों को हिलाकर रख दिया। एक साधारण वनवासी उनके मिशन के सामने चट्टान की तरह अड़कर खड़ा हो जाए, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। अत: वे इस दीवार को गिरा देना चाहते थे।
बिरसा की माँगें
अधोलिखित माँगें वनवासी समुदाय की आर्थिक एवं सामाजिक दशा को स्पष्ट करती हैं। उनपर होने वाले शोषण एवं अत्याचारों का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। अपनी इन माँगों द्वारा बिरसा ने जो समाज-सुधार की नींव रखी, वह इतनी गहरी थी कि स्वंतत्रता के बाद भारतीय संविधान में निम्न वर्ग के कल्याण के लिये विशेष कानून बनाए गए।
- बेगारी नहीं करेंगे।
- आर्थिक शोषण पर रोक लगाई जाए।
- परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक देने की व्यवस्था की जाए।
- पीड़ित वनवासियों के लिए सरकार कानून बनाए।
- वनवासियों पर अत्याचार करने वाले को दंडित किया जाए।
- अन्य वर्गों के समान ही वनवासियों को भी सुविधाएँ दी जाए।
- क्षेत्रीय वन-संपदा, भूमि, खेती, पहाड़ एवं खनिज संपदा पर जमींदारों तथा उच्चवर्गीय समुदाय का प्रभुत्व समाप्त कर वनवासियों का उनपर समान अधिकार हो।
- भूमि को लगान मुक्त घोषित किया जाए।
- वनवासी महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा हेतु सरकार कानून बनाए।
- वनवासी बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार।
- मंदिर व अन्य धार्मिक स्थलों पर जाने की स्वतंत्रता।
- ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध लगाया जाए, ताकि वनवासियों के धर्मांतरण पर रोक लगे।
बिरसा के विरुद्ध रिपोर्ट
बिरसा मुंडा के आन्दोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया था। ब्रिटिश अधिकारियों ने सरकार को बिरसा के विरूद्ध रिपोर्ट भेजी। रिपोर्ट में लिखा गया कि:
- वनवासियों को खेती करने से मना करता है।
- वनवासियों को ईसाई धर्म छोडकर हिन्दू बनने के लिए प्रेरित कर रहा है।
- मांसाहार को प्रतिबंधित कर दिया है।
- वह लोगों को उकसाते हुए कहता है कि अंग्रेजों के अधीन जंगलों को वह अपने अधिकार में ले लेगा। जो लोग कड़ाई से अपने धर्म का पालन करेंगे, केवल उन्हें ही उन जंगलों में रहने की अनुमति मिलेगी।
अंग्रेजों और वनवासियों में भिड़ंत
ब्रिटिश सरकार ने बिरसा को बंदी बनाने के लिये आदेश जारी कर दिया। डिप्टी कमिश्नर ने उसे बंदी बनाने के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी भेजी। अंग्रेजों की टुकड़ी का सामना मुंडा सरदारों और उनकी सेना से हुआ। अंग्रेज अधिकारियों व सेना को मुँह की खानी पड़ी। वहीं स्थित ब्रिटिश दफ्तरों में आग भी लगाई गई।
गिरफ्तारी का वारंट जारी
डिप्टी सुपरिटेंडेट जी. आर. के. मेयर्स की अध्यक्षता में जिलाधिकारियों की बैठक बुलाई गई। बिरसा के विरुद्ध सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने, सरकारी कार्य में बाधा डालने, पुलिस पर हमला करने तथा सार्वजनिक स्थल पर अशांति फैलाने से संबद्ध आपराधिक मामले दर्ज किए गये। धारा-353 तथा धारा-505 के अंतर्गत बिरसा और उनके नौ अनुयायियों को गिरफ्तार करने के लिये वारंट जारी हुआ।
बिरसा की गिरफ्तारी
ब्रिटिश सेना बिरसा को अकेला खोजने लगी, क्योंकि वनवासियों से लोहा लेने का हस्र वे देख चुके थे। एक दिन बिरसा के अधिकतर साथी हथियार इकट्ठा करने व दूर-दराज के लोगों को आंदोलन से जोड़ने के उद्देश्य से चलकद से बाहर गये हुए थे। चलकद स्थान का नाम है। बूंटी थानेदार ने यह सूचना बँदगाँव के मेयर्स तक पहुँचा दी। रात में बिरसा निश्चिंत सोये हुए थे, इसी समय ब्रिटिशर्स उन्हें घेर लिये, बिरसा ने प्रतिरोध किया, लेकिन बंदूकों से लैस सिपाहियों के सामने उनकी एक न चली। बिरसा गिरफ्तार कर लिये गये। बिरसा मुंडारी भाषा में चीख-चीखकर अपने साथियों को आवाज देकर बुलाने लगे। उनके साथी आये और अंग्रेजों पर हमला किया, किंतु बंदूक से लैस सिपाहियों के सामने उनकी भी एक न चली। सिपाही बिरसा को बँदगाँव लेकर चले गये।
रांची की जेल में
डिप्टी कमिश्नर के सामने बिरसा को पेश किया गया। वनवासियों ने बँदगाँव पहुँचकर मेयर्स व उसकी सेना को घेर लिया। विकट स्थिति देखते हुए बिरसा को राँची जेल भेज दिया गया। बिरसा वनवासियों के ऐसे विशाल जनसमूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जो उनके संकेत मात्र पर मरने-मारने को तैयार थे। बिरसा की अनुपस्थिति में सुदूर क्षेत्रों से वनवासी उनके घर में पूजा करने आते थे। लोगों के हृदयों में बिरसा के प्रति अगाध श्रद्धा देखकर ब्रिटिश सरकार भयभीत थी। जमींदार बाबू जगमोहन सिंह ब्रिटिशर्स से मिल गया। मुंडा सरदारों सहित हजारों वनवासियों को पकड़कर जेल में डाला गया।
बिरसा की गिरफ्तारी पर लेफ्टिनेंट गवर्नर का बयान
बिरसा के इतिहास और संघर्ष के कालक्रम में क्या हुआ, ये सभी जानते हैं। बिरसा मुंडा के लोगों ने सिंबुआ, डोंबारी, तमाड़, खूँटी और चाइबासा में रक्त रंजित संघर्ष में भाग लिया। वो संघर्ष कैसा था यह खुद अंग्रेजों ने लिखा है। मेयर्स ने लिखा कि वहाँ सरकार के पास तोपें थीं, सिविल गन्स भी थीं, मोर्टायर भी थीं, लेकिन बिरसा के साथियों का साहस था कि वो कुल्हाड़ी और धनुष के साथ संघर्ष में थे और स्त्रियाँ भी संघर्ष में थीं। तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर ने कहा कि ‘जब तक बिरसा मुंडा कारावास में है, तब तक यह न समझें कि सबकुछ शांत है। वास्तव में बिरसा को बंदी बनाकर सरकार बारूद के ऐसे ढेर पर बैठ गई है, जिसे उसके संग्राम की एक चिनगारी पल भर में जलाकर भस्म कर देगी।’
मेयर्स रिपोर्ट
केवल दो व्यक्तियों ने ही बिरसा और उसके अनुयायियों पर आरोप लगाया। तमाड़ का प्रधान सिपाही और कोचांग का बूड़ा मुंडा। इन दोनों की गवाही के आधार पर बिरसा पर मुकदमा चलाया गया।
- बिरसा आंदोलन का संबंध केवल धर्म-संबंधी क्रियाकलापों तक ही सीमित नहीं था, वे मिशनरियों के विरोध की आड़ में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संग्राम का वातावरण तैयार कर रहे थे।
- प्रधान सिपाही के साथ घटित घटना में अनेक वनवासियों ने बिरसा को सहयोग दिया था, इसलिए वे सभी उसके साथ सामान रूप से अपराधी हैं।
- यदि बिरसा को छोड़ा गया तो ये लोग एकजुट होकर नये सिरे से आंदोलन आरंभ करेंगे। सरकार के लिए खतरनाक होगा।
- रिपोर्ट में स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि बिरसा की रिहाई सन 1857 की क्रांति जैसी परिस्थितियाँ पुन: पैदा कर देंगी।
बिरसा पर आरोप
डिप्टी कमिश्नर द्वारा बिरसा पर लगाये गये आरोप निम्नलिखित हैं-
- बिरसा और भूमि-संबंधी आंदोलनकारियों के बीच गहरा संबंध है। ये मिल-जुलकर सरकारी नीतियों का विरोध कर रहे हैं।
- बिरसा आंदोलन द्वारा सरकार के विरुद्ध घृणा, असहयोग और निष्ठाहीनता का प्रचार किया गया है।
- बिरसा एवं उसके अनुयायियों द्वारा किया गया प्रचार राजद्रोह की भावना से भरा हुआ है।
- बिरसा आंदोलन धर्म की आड़ में रचा गया एक ऐसा गहरा षड्यंत्र है, जिससे वनवासी बहुल क्षेत्रों में अशांति और दंगों का वातावरण तैयार हो सके।
- बिरसा लोगों को लगान एवं मालगुजारी न देने के लिए प्रेरित कर रहा है।
इसके साथ-साथ कमिश्नर ने कुछ सिफारिशें भी की, जिनमें स्पष्ट रूप से कहा गया कि वनवासी समाज में धर्म के प्रभाव को समाप्त करने के लिये उन्हें कठोर-से-कठोर दंड दिया जाए, जिससे भविष्य में कोई भी इनका अनुसरण न करे।
बिरसा को सजा
धारा-505 के अंतर्गत बिरसा और अन्य अनुयायियों को दोषी ठहराया गया। मुख्य अपराध के लिये उन्हें दो-दो वर्ष का कठोर कारावास तथा दंगा करने के आरोप में अल्पकालिक सजाएँ दी गयीं।
बिरसा पर 50 रुपये जुर्माना लगाया गया। जुर्माना न भरने की स्थिति में छह महीने की सश्रम कारावास सजा दी गई। इसी तरह अन्य साथियों पर 20 रुपये जुर्माना और जुर्माना न भरने की स्थिति में तीन महीने का कारावास दिया गया।
अदालत के इस निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की गई। इसके फलस्वरूप थोड़ा परिवर्तन करके सजा ढाई वर्ष से घटाकर दो वर्ष कर दी गई। बिरसा को राँची में स्थित हजारीबाग जेल भेज दिया गया।
बिरसा आंदोलन का दमन
बिरसा को कारावास हो जाने के बाद वनवासी समुदायों एवं क्षेत्रों के विरुद्ध अनेक कानून बनाये गये और उन्हें पूर्णतः पंगु बना दिया। करों का बोझ डाल दिया गया। सरकार की दमनकारी नीतियों से बचने के लिए वे ईसाई धर्म अपनाने लगे। इसमें नये लोगों के अतिरिक्त वे लोग भी सम्मिलित थे, जो ईसाई धर्म छोड़कर बिरसा के अनुयायी बन गये थे।
जेल से रिहाई और पुन: आन्दोलन की तैयारी
30 नवंबर, 1897 को बिरसा दो वर्ष की करावास सजा काट कर रिहा हुए। एक बार फिर आन्दोलन की तैयारियाँ आरंभ होने लगीं। इस बार धर्म की आड़ में राजनीतिक आंदोलन करने का निर्णय लिया गया था। आंदोलनकारियों को तीन श्रेणियों में बाँटा गया – प्रचारक या गुरू, पुरानक या पुराने तथा ननक।
प्रचारक या गुरु श्रेणी में उन लोगों को सम्मिलित किया गया था, जो बिरसा के अत्यंत विश्वासपात्र थे। इनके पवित्र घरों में बिरसा-समर्थकों की गुप्त मंत्रणाएँ होती थीं। ये मंत्रणाएँ बृहस्पतिवार तथा रविवार को रात के समय होती थीं। पुरानक या पुराने श्रेणी में वे लोग सम्मिलित थे, जो खुल्लमखुल्ला संग्राम करने में विश्वास रखते थे। इस श्रेणी के लिये लोगों का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाता था। ननक श्रेणी में लोगों की संख्या अधिक थी। इन्हें महत्त्वपूर्ण मंत्रणाओं में सम्मिलित नहीं किया जाता था, केवल प्रस्तावों के विषय में जानकारी देकर आवश्यक कार्य सौंप दिये जाते थे।
चुटिया यात्रा
बिरसा ने सर्वप्रथम चुटिया क्षेत्र की यात्रा की। यात्रा का आरंभ 28 जनवरी, 1898 को हुआ। ब्रिटिश सरकार को भ्रमित करने के लिये बिरसा ने यात्रा-दल को तीन भागों में बाँटा। पहले दल का नेतृत्व बिरसा, दूसरे दल का नेतृत्वकर्ता उनके बड़े भाई कोमता व तीसरे दल का नेतृत्त्व बाना पीड़ी के डोकन मुंडा के हाथ में था। इस यात्रा के दौरान बिरसा ने प्रतिज्ञा की थी कि मुंडा वनवासी तुलसी की पूजा करेंगे। तभी से तुलसी का पौधा मुंडाओं के लिये पवित्र और पूजनीय बन गया।
सबसे पहले वे अपने समर्थकों के साथ चुटु के चुटिया मंदिर पहुँचते हैं। वहाँ के लोगों को थोड़ा विभ्रम हो गया। उनको लगा कि अब बिरसा मुंडा मंदिर को अपने अधिकार में लेना चाहते हैं। बिरसा मुंडा की ये भावना नहीं थी। बिरसा की भावना सिर्फ ये थी कि मंदिर के अभिलेख मुंडा जाति के समक्ष, अन्य जनजातियों के समक्ष लाए जाए। लेकिन ये प्रचारित किया गया कि बिरसा और उनके अनुयायी मंदिर तोड़ने आये हैं, मूर्तियाँ तोड़ने आये हैं, मंदिर के पुजारियों के साथ मारपीट करने आये हैं, जबकि ऐसी कोई स्थिति नहीं थी। बिरसा वहाँ गए और उन्होंने तुलसी के तल को देखा, उसके फल को देखा और कहा- ‘बिरवा चुनो रे, बिरवा चुनो।’ बिरवा यानी बीज, इन बीजों को चुनों। ये बीज सबकुछ हैं। इसमें धर्मबोध है। मैं ये बीज चुनने आया हूँ।
बिरसा उन बीजों को उठाकर अपने अनुयायियों के हाथों पर रखते हैं और कहते हैं- “यह विष्णुप्रिया है। इसमें तुम्हारे धर्म का तत्त्व निहित है। इसे अपना धर्म मानो। इस तुलसी के बीज को अपने घरों में उगाओ यही तुम्हारे शाश्वत धर्म का प्रतीक है। जहाँ-जहाँ तुलसी का बीज पौधे में परिणीत होगा, तुम्हारा धर्म जागृत होगा।
पुरी-यात्रा
मुंडा वनवासी उड़ीसा में स्थित जगन्नाथपुरी को अपना पैतृक मंदिर मानते थे। उनके अनुसार मुंडा-पूर्वज विभिन्न भेंटें लेकर यहाँ आते थे और ईश्वर की पूजा करते थे। बाद में अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति ने भारतियों में भेद पैदा कर दिया, जिसके बाद वनवासियों के जाने पर रोक लगा दी गई, इसके विरुद्ध समर्थकों सहित बिरसा ने जगन्नाथ पुरी की ओर प्रस्थान किया।
बिरसा मुंडा विष्णु तीर्थ में जा रहे थे इसलिए उन्होंने हल्दी से रंगी हुई धोती पहनी। पूर्ण शुचिता के प्रतीक स्वरूप जो गुरु ने उनको उपनयन की परिभाषा पढ़ाई थी—‘यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं। यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।’ यह भाव बिरसा के अंदर था कि यह उपनयन धर्म है। यह उपनयन है तो समझो तुम्हारा धर्म जीवित है। उन्होंने पुरी मंदिर में 15 दिन तक अन्न-जल का पूर्णतः त्याग कर कठोर तपस्या की और प्रतिज्ञा की कि समाज में व्याप्त सभी कुरीतियों के विरुद्ध लोगों को जागरूक करेंगे।
बिरसा अपने अनुयायियों से कहते थे कि तुम्हारे परिक्षेत्र के तीन मंदिर हैं—चुटिया का मंदिर, जगन्नाथ का मंदिर और रतनगढ़ का मंदिर, जिन्हें कभी तुम्हारे पूर्वजों ने इस आटविक प्रदेश में, इस वन्य प्रदेश में स्थापित किया है, ये तुम्हारी उपासना के तीर्थ हैं। छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड, मध्य प्रदेश से लेकर बंगाल तक समस्त क्षेत्रों में जय जगन्नाथ बोलने की परंपरा थी और वनवासी समाज, आटविक समाज उनकी लकड़ी की प्रतिमा बनाते थे, रथयात्राएँ करते थे, उनकी पूजा करते थे। जब उड़ीसा पर गंग वंश का शासन हुआ तो उन्होंने इस विराट लोक परंपरा को देव मंदिर का स्वरूप देकर पुरी के विराट जगन्नाथ पुरी मंदिर का निर्माण किया था। यह अप्रतिहत, अबाधित, निरंतर, गतिमान आस्था थी जो एक लंबे कालखंड तक बनी रही। इसको तोड़ने का प्रयत्न ईसाई मिशनरियों ने किया।
डोंबरी-सभा
फरवरी 1898 में डोंबरी क्षेत्र के जगरी मुंडा के घर मुंडाओं की प्रथम सभा का आयोजन किया गया। बैठक के दौरान उन्होंने धर्म-पथ पर चलते हुए शांतिपूर्ण तरीके से अपने अधिकार और खोई हुई भूमि प्राप्त करने पर जोर दिया, परंतु कुछ साथी सशस्त्र क्रांति पर अड़े रहे। अंततः बिरसा को झुकना पड़ा। लेकिन फिर भी उन्होंने इसका निर्णय अगली सभा में करने का निश्चय किया।
सिंबुआ सभा
डोंबरी क्षेत्र के निकट सिंबुआ पहाड़ी पर मार्च 1898 में होली के दिन बैठक बुलाई गई। इस बैठक में लगभग तीन सौ सशस्त्र अनुयायियों ने भाग लिया। बैठक का आरंभ होलिका दहन करके किया गया। इस अवसर पर ब्रिटिश शासन का पुतला दहन हुआ।
संग्राम को दबाने का प्रयास
बिरसा मुंडा के आह्वान मात्र पर वनवासी अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार थे। अंग्रेज अफसर हाफमैन ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई का समर्थन किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा निम्न कदम उठाये गये-
- बिरसा-आंदोलन से जुड़े लोगों की चल-अचल संपत्ति जब्त कर ली जाए।
- उनकी स्त्रियों के गाँव छोड़कर अन्यत्र जाने पर कठोरता से पाबंदी लगाई जाए।
- जब तक सशस्त्र क्रांति पूरी तरह से विफल न हो जाए, तब तक बिरसा के लिए जासूसी करने वाले स्थानीय लोगों को बंदी बना लिया जाए।
- आंदोलन से जुड़े सरदारों को लंबे समय के लिये जेलों में बंद कर दिया जाए।
दोबारा गिरफ्तार हुए बिरसा
एक दिन भोजन करने के बाद बिरसा गहरी नींद में सोये हुए थे। यहीं वे बंदी बना लिये गये। कमिश्नर ने उन्हें राँची ले जाने का आदेश दिया। उन पर आरोप लगाया गया कि वह लूटपाट, आगजनी और हत्या आदि में लिप्त हैं। इसके अंतर्गत 15 आरोपों की सूची तैयार की गई, जिसमें उन्हें मुख्य अभियुक्त के रूप में चिह्नित किया गया।
नम आँखों से बिरसा की बिदाई
मार्ग में जगह-जगह लोगों की भीड़ उनके दर्शन के लिये उमड़ी। वे अपने भगवान को बेड़ियों में देखकर अत्यंत दु:खी थे, लेकिन बिरसा के होंठों पर मुस्कराहट थी। उन्हें इस बात का संतोष था कि वह अपने प्रयासों द्वारा मृतप्राय लोगों को अन्याय के विरुद्ध जागरूक करने में सफल हो गये। उन्हें खुशी थी कि सीधे-सादे वनवासी अपने अधिकारों के लिए लड़ना सीख चुके हैं। अब वह जीवित रहें या न रहें, लेकिन उन्होंने वनवासियों को उन्नति और कल्याण का एक मंत्र दे दिया है।
रहस्यमयी मृत्यु
30 मई, 1900 को बिरसा को हैजा होने की खबर सामने आई। दावा किया गया कि 09 जून की सुबह वे खून की उल्टियाँ करने लगे। अत्यधिक कमजोरी के कारण वे बेहोश हो गये। सुबह 09 बजे वे संसार से सदा-सदा के लिये विदा हो गये।
वर्तमान लालपुर स्थित कोकर जाने वाले मार्ग में राँची डिस्टीलरी के निकट सुवर्ण रेखा नदी के घाट पर जेल-कर्मचारियों द्वारा बिरसा का शव गुपचुप तरीके से जला दिया गया। यद्यपि जेल के अधिकारियों के अनुसार, बिरसा की मृत्यु हैजा से हुई थी, लेकिन बिरसा-समर्थकों ने इस बात को नकार दिया और उन्हें जहर देकर मारने की बात पर जोर दिया।
स्त्रियों को लेकर भगवान बिरसा के विचार
बिरसा मुंडा कहते थे कि “स्त्री सहधर्मिणी है। कई अर्थों में पुरुष से ज्यादा अच्छा सोचती है। तुम्हारे घर को चलाती है। तुम्हारे जीवन को चलाती है। तुम्हारी संतानों को जन्म देती है। उसका पालन करती है। किसी भी पुरुष का जीवन एक स्त्री के प्रति ही समर्पित होना चाहिए। एक ही स्त्री जो तुम्हारे जीवन में है वह तुम्हारा संपूर्ण संसार है। तुम्हारा परिवार है, तुम्हारा जीवन है। उसको सम्मान देना तुम्हारा धर्म है।
बिरसा मुंडा का प्रकृति प्रेम
एक विधा पर बिरसा मुंडा का बहुत जोर था और वो विधा है आयुर्वेद। बिरसा मुंडा के इस व्यक्तित्व की भी बहुत चर्चा नहीं होती है। ईसाई मिशनरियों और वामपंथी इतिहासकारों ने लिखा कि वह रोग ठीक करने के तमाशे दिखाकर लोगों को अपने प्रभाव में ले आये थे। बिरसा मुंडा को अपने गुरु से ज्ञान में जो चीजें प्राप्त हुई थीं, उन चीजों में एक विधा आयुर्वेद की थी और बिरसा मुंडा यह कहा करते थे कि “तुम्हारी प्रकृति में वो सबकुछ है जो तुम्हें प्राणवान बनाती है”।
“इन वृक्षों में आग मत लगाना। ये वृक्ष सबकुछ हैं। ये फल-फूल ही नहीं देते। इनसे तुम्हारे सारे रोग, बीमारियाँ ठीक होती हैं। सब वृक्ष, सब फल, सब प्रकार की चीजों की अपनी उपयोगिता है इसलिए वन में इसको कहीं से नष्ट मत होने दो”।
बिरसा मुंडा द्वारा मनाया जाने वाला बलिदान दिवस
भगवान बिरसा जून के महीने में एक बलिदान दिवस मनाते थे। 30 जून की एक घटना थी, जब झारखंड में 30,000 जनजातियों को सुवर्णरेखा के तट पर अंग्रेजों ने मारा था। उस तिथि को बिरसा मुंडा बलिदान दिवस के रूप में मनाते थे और जनजातीय समाज के बीच जाकर उसका प्रचार करते थे।
भगवान बिरसा से जुड़े कुछ प्रसंग
परमात्मा की स्वीकृति
बिरसा परमात्मा (ईश्वर) को मानते थे। एक बार उन्होंने स्वप्न में देखा कि एक वृद्ध हाथ में माला लिये कुर्सी पर बैठा है। उसके आस-पास चार व्यक्ति प्रेतात्मा, राजा, जज और बिरसा खड़े हैं। वृद्ध ने जमीन पर महुआ का पेड़ गाड़कर उस पर तेल व मक्खन मल दिया। पेड़ के ऊपर मूल्यवान वस्तु रख दी, फिर उन्होंने तीन व्यक्तियों को वह वस्तु नीचे लाने के लिए कहा। एक-एक कर तीनों ने प्रयास किया, लेकिन सभी असफल रहे। अंत में बिरसा पेड़ पर चढ़े और वस्तु नीचे उतार लाये। सहसा बिरसा की आंख खुल गई और वह स्वप्न पर विचार करने लगे। यह स्वप्न बिरसा के मानसिक द्वंद्व का परिणाम था। वृद्ध व्यक्ति ईश्वर का रूप, प्रेतात्मा, राजा और जज के रूप में क्रमश: अंधविश्वास, जमीदार और सरकारी अधिकारी थे। पेड़ से वस्तु उतार लेने के पीछे ईश्वर की स्वीकृति माना। उन्होंने लोगों में यह स्थापित किया कि ईश्वर की स्वीकृति से सबकुछ संभव है। यानी ईश्वर ही सृष्टि का संचालक है, हम सब केवल माध्यम हैं।
ईश्वर का संदेश
एक बार बिरसा अपने एक मित्र के साथ जंगल से गुजर रहे थे। तभी भयंकर तूफान के साथ बादल घुमड़ आये। देखते-ही-देखते तेज वर्षा होने लगी। सहसा कड़कती हुई बिजली बिरसा पर गिर गई। इससे उनका रंग-रूप ही बदल गया। उनका काला चेहरा परिवर्तित होकर लाल एवं सफेद रंग का हो गया। इस घटना से उनके मित्र अचंभित हो गये। भयभीत मित्र ने पूछा कि तुम ठीक तो हो! यह परिवर्तन कैसे हो गया? बिरसा शांत स्वर में बोले – ईश्वर मुझसे कुछ कहना चाहते थे। कड़कती हुई बिजली से मुझे ईश्वर का संदेश मिल चुका है। इसके बाद दोनों मित्र आगे बढ़ गये।
मैं धरती-आबा हूं!
बिरसा ने स्वयं को ‘धरती आबा’ अर्थात् धरती का पिता घोषित कर दिया था। वे इसी नाम से पहचाने जाते थे। एक बार सत्संग-सभा में वे उपदेश दे रहे थे, तभी श्रोताओं की भीड़ में बैठी उनकी मां करमी सहसा अपने स्थान पर खड़ी हुईं और उन्हें बेटा कहकर संबोधित किया। बिरसा कुछ पल के लिए रुके और फिर शांत स्वर में बोले, “मां! मुझे ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है। उन्होंने मुझे समाज के कल्याण का कार्य-भार सौंपा है। अब मैं तुम्हारे पुत्र से अधिक इन लोगों का धरती-आबा हूं। इसलिए मेरे प्रति मोह को त्याग दो और मुझे धरती-आबा के रूप में देखो”। इस घटना के बाद से परिवार के अन्य सदस्य भी बिरसा को धरती-आबा कहने लगे।
संदर्भ :
- बिरसा मुंडा, लेखक- गोपी कृष्ण कुँवर, प्रकाशन- प्रभात प्रकाशन, 2018
- https://www.youtube.com/watch?v=eFyz_gDnoz4&t=2811s