तियानमेन चौक नरसंहार (3–4 जून 1989) वामपंथी अधिनायकवादी विचारधारा की अमानवीय प्रवृत्तियों और उसके छिपे हुए कुटिल उद्देश्यों का एक ज्वलंत प्रतीक है। इस दौरान न केवल हजारों निर्दोष नागरिकों, विशेषकर छात्रों और श्रमिकों, का निर्मम दमन किया गया, बल्कि करोड़ों चीनी नागरिकों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों को भी रौंद दिया गया। यह घटना दिखाती है कि जब सत्ता जनभावनाओं से कटकर केवल दमन के बल पर शासन करती है, तो वह रक्तपात और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को कुचलने में भी नहीं चूकती।
दरअसल, तियानमेन नरसंहार वामपंथी विचारधारा के चरित्र का कोई अपवाद नहीं था, बल्कि उसकी सतत अमानवीय प्रवृत्तियों की ही एक कड़ी थी। इतिहास के पन्ने पलटने पर स्पष्ट होता है कि वामपंथी अधिनायकवाद का पूरा इतिहास ऐसे ही संविधान-विरोधी अत्याचारों और दमन की घटनाओं से अटा पड़ा है। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक क्रांति के बाद लाखों विरोधियों का दमन, स्टालिन के Great Purge के दौरान अनुमानित दो करोड़ से अधिक लोगों की हत्याएँ, और माओत्से तुंग के Great Leap Forward और Cultural Revolution में करोड़ों लोगों की मौतें — यह सब दिखाते हैं कि वामपंथी शासन अक्सर आलोचना और विरोध को कुचलने के लिए नरसंहार और दमन को ही नीति का रूप दे देता है।
यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भारत के वामपंथी विचारक और संगठन भी उन्हीं वैश्विक व्यक्तित्वों — लेनिन, माओ और स्टालिन — से वैचारिक प्रेरणा लेते रहे हैं, जिनकी नीतियाँ अत्याचार, दमन और हिंसा से जुड़ी रही हैं। तियानमेन जैसे घटनाक्रमों से वे न केवल प्रभावित रहे, बल्कि भारत में भी वैसी ही प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने का प्रयास करते रहे।
अपनी स्थापना के एक शताब्दी से अधिक के इस कालखंड में वामपंथी आंदोलन ने भारत में अनेक रूपों में सत्ता के दुरुपयोग, संस्थागत भ्रष्टाचार, संगठित वैचारिक षड्यंत्र और हिंसक उग्रवाद को प्रोत्साहित किया। चाहे वह बंगाल और केरल की वामशासित सरकारों में राजनीतिक हिंसा का इतिहास हो, या फिर नक्सलवाद और अर्बन नक्सलिज्म के माध्यम से राज्यविरोधी हिंसक गतिविधियाँ — इन सबमें वामपंथी विचारधारा की भूमिका बार-बार सामने आती रही है।
भारतीय लोकतंत्र के विरुद्ध छद्म बौद्धिकता के माध्यम से सांस्कृतिक संस्थानों में घुसपैठ, राष्ट्रविरोधी विमर्श का निर्माण और युवाओं को कट्टरपंथ की ओर मोड़ना — यह सब उस दीर्घकालिक योजना का हिस्सा रहा है, जो तानाशाही प्रवृत्तियों को वैचारिक क्रांति के आवरण में प्रस्तुत करती रही है।
तियानमेन चौक की घटना – संक्षिप्त टाइमलाइन
- अप्रैल 1989 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के रिफ़ॉर्मवादी और जनप्रिय नेता हु याओबांग की रहस्यमयी मृत्यु ने देशभर के युवाओं, विशेषकर विश्वविद्यालयों के छात्रों, को गहरा आघात पहुँचाया। उन्हें उम्मीद का प्रतीक माना जाता था — एक ऐसे नेता के रूप में जो राजनीतिक उदारीकरण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थक था।
- उनकी मृत्यु के विरोधस्वरूप और लोकतांत्रिक सुधारों की मांग को लेकर हजारों छात्रों ने बीजिंग के तियानमेन चौक पर धरना शुरू कर दिया। उनकी मांगें थीं — पारदर्शी सरकार, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण, और मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली।
- यह शांतिपूर्ण विरोध तीव्र होता गया और जैसे-जैसे इसमें आम नागरिक, श्रमिक और बुद्धिजीवी शामिल होने लगे, सरकार ने इसे ‘राज्य विरोधी गतिविधि’ करार दिया। अंततः 3-4 जून 1989 की रात, चीन की जनमुक्ति सेना ने बख्तरबंद टैंकों और हथियारों से छात्रों पर हमला किया। हजारों की संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या कर दी गई।
- यह भयावह घटना इतिहास में “चार जून की घटना” (June Fourth Incident) या तियानमेन नरसंहार के नाम से दर्ज है — जो आज भी चीन में एक वर्जित विषय बना हुआ है।
- 3 जून 1989 की रात बीजिंग की सड़कों पर वह भयावह मंजर शुरू हुआ, जिसने दुनिया को स्तब्ध कर दिया। चीनी सेना ने राजधानी में प्रवेश कर गोलीबारी शुरू कर दी, जिससे प्रारंभिक रिपोर्टों के अनुसार 35–36 लोग मारे गए।
- लेकिन यह तो केवल शुरुआत थी। 4 जून की सुबह करीब 4 बजे, जब तियानमेन चौक पर हजारों की संख्या में निहत्थे छात्र, नागरिक, बच्चे और बुज़ुर्ग शांतिपूर्वक लोकतंत्र और पारदर्शिता की मांग को लेकर एकत्र थे, तब चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने अपने सबसे क्रूर रूप का प्रदर्शन किया।
- सरकार ने न सिर्फ टैंक और हथियारबंद जवानों को तियानमेन चौक पर भेजा, बल्कि लड़ाकू विमानों तक की तैनाती की गई। बिना किसी चेतावनी के गोलियां बरसाई गईं। निर्दोष लोगों को कुचला गया, दौड़ते बच्चों को निशाना बनाया गया, और चौक को रक्तरंजित कर दिया गया। यह कार्रवाई सिर्फ एक नरसंहार नहीं थी — यह लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की भावना पर एक संगठित, राज्य-प्रायोजित प्रहार था।
- 4 जून 1989 को बीजिंग की सड़कों पर मानव रक्त की नदियाँ बह रही थीं। यह कोई युद्ध का मैदान नहीं था, बल्कि एक शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक प्रदर्शन के खिलाफ राज्य द्वारा चलाया गया सुनियोजित नरसंहार था। चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने छात्रों और नागरिकों की शांतिपूर्ण मांगों का उत्तर टैंकों और गोलियों से दिया। रात के अंधेरे में बीजिंग की सड़कों पर टैंक गर्जना करने लगे और कुछ ही घंटों में लगभग 10,000 निर्दोष लोगों की जानें चली गईं — जिनमें छात्र, युवा, महिलाएँ, बुजुर्ग, और राह चलते नागरिक तक शामिल थे।
- तियानमेन नरसंहार को लेकर वर्षों तक चीन सरकार ने मृत्यु संख्या को लेकर पूर्ण गोपनीयता बनाए रखी, लेकिन समय के साथ कुछ अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ सामने आए, जिन्होंने इस भयावह घटना की असली तस्वीर उजागर की।
- चीन में तत्कालीन ब्रिटिश राजदूत एलन डॉनल्ड ने 1989 में लंदन भेजे अपने एक गोपनीय टेलीग्राम में स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सैन्य कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की मृत्यु हुई थी। यह टेलीग्राम घटना के 28 वर्षों बाद सार्वजनिक हुआ, जिसने सरकारी आँकड़ों और वास्तविकता के बीच की खाई को उजागर कर दिया।
- हांगकांग बैप्टिस्ट विश्वविद्यालय में चीनी इतिहास, भाषा और संस्कृति के विशेषज्ञ ज्यां पिए कबेस्टन (Jean-Pierre Cabestan) ने भी इस टेलीग्राम पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि ब्रिटिश राजनयिकों द्वारा भेजे गए आँकड़े “पूरी तरह भरोसेमंद” हैं और इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता।
- प्रसिद्ध चीनी लेखक और सामाजिक आलोचक लियाओ यिवु ने तियानमेन नरसंहार को लेकर अपनी लेखनी के माध्यम से चीनी सत्ता की क्रूरता को बेनकाब किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “चीन अब पूरी दुनिया के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है।” ‘बॉल्स ऑफ ओपियम’ (Balls of Opium) नामक अपनी पुस्तक में, जो विशेष रूप से तियानमेन चौक की घटना पर आधारित है, उन्होंने लिखा, “लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष कर रहे हजारों लोगों को सेना ने निर्ममता से कुचल दिया।” यह पुस्तक न केवल चीन में प्रतिबंधित कर दी गई, बल्कि लियाओ यिवु को इस विचारधारा के खिलाफ बोलने के कारण जेल, गुप्त निगरानी, और अंततः निर्वासन तक का सामना करना पड़ा।
- 6 जून 1989 — नरसंहार के तुरंत बाद चीन में स्थित विदेशी दूतावासों ने अपने-अपने नागरिकों को सुरक्षा कारणों से देश छोड़ने के निर्देश जारी किए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थिति को अस्थिर और खतरनाक माना गया।
- 12 जून 1989 — चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने पूरे देश में सभी छात्र और कर्मचारी यूनियनों पर प्रतिबंध लगा दिया। यह कदम संगठित असहमति की संभावना को पूरी तरह समाप्त करने की दिशा में था।
- 16 जून 1989 — आंदोलन का नेतृत्व करने वाले छात्र नेताओं की व्यापक गिरफ्तारी शुरू हुई। विभिन्न विश्वविद्यालयों से जुड़े 1000 से अधिक छात्र नेताओं को चिन्हित कर हिरासत में लिया गया।
- 17 जून 1989 — बीजिंग में सार्वजनिक उदाहरण स्थापित करने हेतु 8 नागरिकों को मृत्युदंड दिया गया। यह संदेश स्पष्ट था — राज्य के विरुद्ध उठी हर आवाज़ को निर्ममता से कुचला जाएगा।
- 20 जून 1989 — सरकार ने सभी ट्रैवल वीज़ा पर रोक लगा दी। यह निर्णय इसलिए लिया गया ताकि कोई भी आंदोलनकारी देश छोड़कर अंतरराष्ट्रीय समर्थन न प्राप्त कर सके, और विरोध की आवाज़ को सीमा के भीतर ही दबा दिया जाए।
चीन में वामपंथी खूनी इतिहास
- 1949 में माओ त्से तुंग ने तियानमेन चौक पर लाल झंडा फहराकर चीन में वामपंथी सरकार की स्थापना की, जो चीन के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था। इसके बाद 1966 में शुरू हुई सांस्कृतिक क्रांति ने चीन को दस वर्षों तक दहशत और आतंक में डुबो दिया। इस अवधि में माओ ने “बुर्जुआ संस्कृति” को नष्ट करने के नाम पर व्यापक दमन और हिंसा को बढ़ावा दिया।
- माओ त्से तुंग के सत्ता में आने के बाद चीन में व्यापक राजनीतिक दमन और “शत्रु वर्ग” के सफाए के अभियान में लाखों लोगों की हत्या हुई। जंग चांग और जॉन हॉलिडे की पुस्तक ‘Mao: The Unknown Story’ में उल्लेख है कि “After Mao conquered China in 1949, his secret goal was to dominate the world. In chasing this dream, he caused the deaths of 38 million people in the greatest famine in history. In all, well over 70 million Chinese perished under Mao’s rule- in peacetime.”
- फ्रैंक डिकोत्तर अपनी पुस्तक ‘The Cultural Revolution’ में बताते हैं, “The Great Leap Forward was a disastrous experiment which cost the lives of tens of millions of people.”
- रिचर्ड मैकफारक्वर और माइक शोनहेल्स अपनी पुस्तक ‘Mao’s Last Revolution’ में लिखते हैं, “Various of his remarks indicate that Mao craved a measure of catalytic terror to jump-start the Cultural Revolution. He had no scruples about the taking of human life. In a conversation with trusties later in the Cultural Revolution, the Chairman went so far as to suggest that the sign of a true revolutionary was precisely his intense desire to kill: This man Hitler was even more ferocious. The more ferocious the better, don’t you think? The more people you kill, the more revolutionary you are.”
- इसी तरह, 1979 के बाद, डेंग शियाओपिंग के सत्ता में आने के बाद भी दमनकारी कार्रवाइयाँ हुईं, जिनमें राजनीतिक विरोधियों और असंतुष्टों पर हिंसक कार्रवाइयां हुईं, जिनका वर्णन फ्रैंक डिकोत्तर ने ‘Mao’s Great Famine’ में किया है।
- 1994 (Tian Mingjian incident), 2008 (Tibetan unrest) और 2014 (Yarkand massacre) में भी चीन के कुछ हिस्सों में राज्य दमन और हिंसा की घटनाएं सामने आईं।
चीन के प्रति भारत के वामपंथियों का झुकाव
“The CPI should link up the revolutionary struggle in rural areas along with the lines followed in China.”[1] (Second Congress of Communist Party of India at Calcutta in February 1948)
BT Ranadive, the Communist Party’s General Secretary sent a message to Mao Tsetung, “On behalf of the Central Committee of the Communist Party of India, I send you and through you to the people of China, our warmest greetings on the occasion of the formation of the People’s Government of China…… The Central Committee of our Party salutes the great Communist Party of China and its leader Mao Tsetung on the occasion of its historic and world-shaking victory. The victory scored by Communist Party of China is victory of Marxism, Leninism, of the Stalinist line. The Communist Party of China and its great leader, Mao Tse-tung have demonstrated once more the invincible power of Marxism-Leninism…… ‘Long Live Comrade Mao Tse-tung!’ ‘Long Live the Communist Party of China!’ ‘Long Live the Fighting Unity of the Chinese and Indian People’!”[2]
Mao Tse-tung replied on 19 October, 1949, “I firmly believe that relying on the brave Communist Party of India and the unity and struggle of all Indian patriots, India will certainly not remain long under the yoke of imperialism and its collaborators. Like free China, free India will one day emerge in the socialist and People’s Democratic family.”[3]
Jawaharlal Nehru, “I do not know what they [Communist in India] have in their minds or hearts, but many of them are probably in their hearts pro-Chinese.”[4] (Speech at the meeting of the Congress Parliamentary Party Executive Committee on 7 November 1962)
The Secretary of the West Bengal Communist Party (Marxist), Promode Das Gupta, in his document Revisionist Trend in CPI toed the CPC line that the proletariat in all countries must “smash the bourgeois State apparatus”, and demanded that the CPI must “follow the lead of the Chinese Party.”[5]
The Andhra Communist Party Secretariat had, in a thesis, maintained that Chinese methods were best suited for capturing power in India and that Indian Communist Party had to learn a god deal from Mao-Tse-tung.[6]
तियानमेन चौक नरसंहार और भारत के वामपंथी
In the Lok Sabha on 7 November 1990, Vijay Kumar Malhotra said, “It was the same Communist Party [India] which supported Hitler and again, during our freedom struggle in 1942, they supported the cruel and repressive British Government. During Indo-China war in 1962, the Communist Party supported China and at Tiananmen Square in Beijing when tanks were used to crush the prodemocratic movement in which lakhs of youth were killed, the Communist Party supported the Chinese Government.”
The Times of India में 16 जून 1989 को प्रकाशित वी. आर. मणि के एक लेख ‘Left stand on China conflicting’ में बताया गया 1989 में जब चीन के तियानमेन चौक पर लाखों छात्र लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भ्रष्टाचार के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तब चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने उन पर टैंकों और बंदूकों से अत्यंत निर्मम दमन किया। इस दमन में हजारों लोगों की मौत हुई, जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने एक क्रूर नरसंहार के रूप में देखा। परंतु इस भीषण नरसंहार पर भारतीय वामपंथी दलों, विशेष रूप से CPI(M) और CPI, का रुख विरोधाभासी और मौन समर्थन देने वाला था। इन दलों ने न तो इस नरसंहार की स्पष्ट रूप से निंदा की और न ही चीन सरकार की आलोचना की। CPI(M) के प्रवक्ताओं ने इसे “चीन का आंतरिक मामला” बताकर टालने का प्रयास किया और छात्रों की गतिविधियों को ‘राजनीतिक अस्थिरता फैलाने वाला’ कहकर चीन की कार्रवाई को परोक्ष रूप से जायज़ ठहराया।
The Times of India में 16 जनवरी 1990 को प्रकाशित ‘Subdued and Silent” एडिटोरियल में बताया गया है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने सार्वजानिक रूप से तियानमेन चौक नरसंहार का बचाव किया था।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (मार्क्सवादी) के मुखपत्र, देशाभिमानी (मलयालम) ने तियानमेन के छात्र प्रदर्शनकारियों को उपद्रवी कहा था और चीन सरकार की सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया था।[7]
भारत में वामपंथी हिंसा और संविधान विरोधी कृत्य
- स्वाधीनता के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने संविधान सभा की वैधता को अस्वीकार कर दिया था। पार्टी का कहना था, “The proposed Constituent Assembly as a fake and not a sovereign body, an imperialist trap beset with imperialist awards, which can therefore produce only a constitution of Indian slavery and division, and nothing else.”[8]
- 1948 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कोलकाता में आयोजित अपने द्वितीय कांग्रेस में प्रस्तुत प्रसिद्ध ‘कलकत्ता थेसिस‘ में संविधान निर्माण की प्रक्रिया की तीव्र आलोचना की थी।[9]
- जब भारतीय गणराज्य का नया संविधान लागू किया गया, तब बी.टी. रणदिवे ने इसकी निंदा करते हुए इसे ‘गुलामों का संविधान’ और ‘फासीवादी तानाशाही का संविधान’ कहा था।[10]
- साल 1958 में कांग्रेस अध्यक्ष यूएन ढेबर ने केरल के मुख्यमंत्री और कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद को एक पत्र लिखकर यह निर्देश दिया कि कम्युनिस्ट पार्टी को भारतीय संविधान का पालन करना चाहिए। यह पत्र ऐसे समय में आया जब देश में यह बहस चल रही थी कि क्या कम्युनिस्ट संविधान की मर्यादा में रहकर कार्य कर रहे हैं? उन्होंने लिखा, “कम्युनिस्ट पार्टी को यह समझना चाहिए कि वह एक ऐसे संविधान के तहत काम कर रही है जिसे भारत के लोगों ने स्वयं अपनाया है। इसलिए यह अनिवार्य है कि वह पूरी तरह संविधान का पालन करे – न केवल उसकी भाषा का, बल्कि उसकी भावना और उद्देश्य का भी।“[11]
- सीताराम गोयल लिखते हैं, “1948-50 में होने वाला तेलंगाना काण्ड सबको याद है। न जाने कम्युनिस्टों के हाथों से कितने निरीह किसानों का खून हुआ।”[12]
- भारत सरकार के अनुसार, नक्सली हिंसा में 12,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें सुरक्षा बल और आम नागरिकों की बड़ी संख्या शामिल है। इसमें दंतेवाड़ा (2010), झीरम घाटी (2013) और बीजापुर (2021) जैसे बड़े हमलों में सैकड़ों सुरक्षाकर्मी मारे गए।
एम.आर. मसानी ‘कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया’ पुस्तक में लिखते हैं कि यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो चुका है कि (1) कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना 1919 में हुई थी, जिसका मुख्यालय मास्को में है, तथा यह विश्व भर के सभी कम्युनिस्ट संगठनों का सर्वोच्च प्रमुख है; (2) इसका मुख्य उद्देश्य प्रत्येक देश में श्रमिक गणराज्यों की स्थापना करना है; (3) इस उद्देश्य के लिए इसने सभी देशों में हिंसक क्रांति को भड़काना अपनी निश्चित नीति बना ली है; (4) इसने विशेष रूप से भारत की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया है तथा एक ऐसी क्रांति करने का निश्चय किया है जिसका तात्कालिक उद्देश्य ब्रिटिश भारत में संप्रभुता को उखाड़ फेंकना है। (5) इस उद्देश्य से इसने यूरोप, भारत तथा अन्य स्थानों पर व्यक्तियों तथा निकायों के साथ मिलकर भारतीय मजदूरों तथा किसानों को क्रांति के लिए उकसाने की साजिश रची है; (6) इन व्यक्तियों तथा निकायों ने, जिन्हें साजिशकर्ता कहा जा सकता है, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के निर्देशन में अभियान की एक सामान्य योजना बनायी है; (7) इस योजना में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा मजदूरों तथा किसानों की पार्टियों जैसी संस्थाओं का गठन शामिल है; (8) इन पार्टियों का तात्कालिक कार्य मजदूर वर्गों को यूनियनों में संगठित करके, उन्हें साम्यवाद के सिद्धांत सिखाकर, उन्हें शिक्षित करने तथा उन्हें एकजुटता सिखाने के लिए हड़तालों के लिए उकसाकर तथा हर संभव तरीके से प्रचार तथा शिक्षा का उपयोग करके उन पर नियंत्रण प्राप्त करना है; (9) इस प्रकार मजदूरों को आम हड़ताल की घोषणा के उद्देश्य से जन संगठन की शिक्षा दी जानी है, जिसके बाद क्रांति होगी; (10) किसानों को भी इसी प्रकार संगठित किया जाना था, ताकि सर्वहारा वर्ग के लिए एक प्रभावी आरक्षित शक्ति बनाई जा सके और कृषि क्रांति को अंजाम दिया जा सके; (11) इन उद्देश्यों के अनुसरण में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और बंबई, बंगाल, पंजाब और संयुक्त प्रांतों में चार मजदूर और किसान पार्टियाँ बनाई गईं; (12) इन निकायों को मास्को से वित्तीय सहायता दी गई और उनकी नीति मास्को से सीधे और इंग्लैंड और महाद्वीप के माध्यम से गुप्त और षड्यंत्रकारी तरीके से किए गए संचार के माध्यम से निर्धारित की गई।[13]
प्रमुख भारतीय नेताओं के वामपंथ पर विचार
Sardar Patel: “I agree that the Communist menace is growing and the problem is becoming more difficult.”[14] (Sardar Patel letter to Sampurnanand on 18 June, 1947)
Jawaharlal Nehru: “At the same time it has also to be kept in mind that the Communists have also often indulged in a lot of rioting. In this very month [January], in Kanpur, they resorted to violence as a result of which several of our people were injured.”[15]
“I am told that certain Communist organisations are indulging in violence in this province [Andhra Pradesh].”[16]
“Information from other parts of the country indicated that the Communist Party’s policy in India had undergone complete change and deliberate violence was encouraged and sabotage of security services was feared.”[17]
“Some of the activities [of Communists] in the recent past have been far from legitimate and have created grave disorder. There has been open incitement for the collection of arms and violence, and sabotage has been feared.”[18]
Dr. Ambedkar: “It is clear that the means adopted by the Buddha were to convert a man by changing his moral disposition to follow the path voluntarily. The means adopted by the Communists are equally clear, short and swift. They are (1) Violence and (2) Dictatorship of the Proletariat. The Communists say that there are the only two means of establishing communism. The first is violence. Nothing short of it will suffice to break up the existing system. The other is dictatorship of the proletariat. Nothing short of it will suffice to continue the new system.”[19]
“Can the Communists say that in achieving their valuable end they have not destroyed other valuable ends? They have destroyed private property. Assuming that this is a valuable end can the Communists say that they have not destroyed other valuable end in the process of achieving it? How many people have they killed for achieving their end. Has human life no value? Could they not have taken property without taking the life of the owner.”[20]
“The Communists themselves admit that their theory of the state as a permanent dictatorship is a weakness in their political philosophy. They take shelter under the plea that the State will ultimately wither away. There are two questions which they have to answer. When will it wither away? What will take the place of the State when it withers away? To the first question they can give no definite time.”[21]
सी. राजगोपालाचारी ने 3 जुलाई 1952 को कहा, “मैं जानता हूँ कि कम्युनिस्ट कितने धूर्त और चालबाज हैं। उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों का भेद मुझें मालूम है। कोई पार्टी यदि किसी एक साधारण-सी बात पर भी कम्युनिस्टों से सहमत हो जाए तो कम्युनिस्ट उस पार्टी के भीतर घुस पड़ते हैं और धीरे-धीरे उस पार्टी पर कब्ज़ा कर लेते हैं।“[22]
श्री गोलवलकर ‘गुरुजी’ देश को कम्युनिस्ट तानाशाही के खतरे से बचाने के लिए चिंतित रहते थे। वे जहाँ अमरीका के भारत पर सांस्कृतिक आक्रमण को भीषण खतरा समझते थे, वहाँ कम्युनिस्ट देशों के संकेत पर देश को खून में डुबो डालने के कम्युनिस्ट कुचक्र के खतरे से भी पूरी तरह सावधान थे। प्रजातंत्र की सफलता के लिए वे एक स्वस्थ व सबल विरोध पक्ष की आवश्यकता अनुभव करते थे।[23]
गुरुजी के अनुसार कम्युनिस्ट, देश में अव्यवस्था निर्माण कर रहे हैं। देशव्यापी हड़ताल की उनकी योजना है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिरक्षा विभाग सहित सारी सरकारी व्यवस्था ठप्प हो जाए। दुर्भाग्य से हमारे यहाँ कई लोग ऐसे हैं, जो थोड़ी वेतन-वृद्धि के लालच में, शत्रु का साथ देने में कतराते नहीं। इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का लाभ उठाने में कम्युनिस्ट पीछे नहीं है। वे जनता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विद्रोह के लिए उकसाकर चीन के लिये विजय का मार्ग सहज बनाना चाहते हैं।[24]
गुरु जी का मानना है कि शासनविरोधी, प्रजातंत्र के शत्रु, चीन के पुराने समर्थक, चीनी आक्रमण की सफलता के लिए अंदर ही अंदर षड्यंत्र करनेवाले कम्युनिस्ट ही स्वांग कर रहे हैं, ताकि इसकी आड़ में अपनी काली करतूतें छद्म वेष में कर सकें और शासन आसानी से उन पर हाथ न डाल सके।[25]
गुरूजी कहते हैं कि कम्युनिस्टों का विश्व-भर का 50-60 वर्षों का इतिहास विद्रोह विस्तार तथा बल प्रयोग का है। गुरूजी कम्युनिस्टों को चीन का समर्थक मानते हैं और उन्हें ‘पंचमांगी कम्युनिस्ट’ के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, “भारत में भी इस प्रकार के चीन के पंचमांगी, याने कम्युनिस्ट कुछ कम नहीं हैं। कुछ क्षेत्रों में प्रबल बनने की उनकी कोशिश है। सामान्य लोगों के मन का रोटी-कपड़े का स्वाभाविक असंतोष जगा कर, शासन के विरुद्ध विद्रोह की भावना पैदा करने में वे कब से लगे हुए हैं। भारत के ये कम्युनिस्ट सोचते हैं कि यदि उन्हें परकीय, याने चीनी सहायता मिल जाए, तो वे विद्रोह का झंडा खड़ाकर सारे हिंदुस्थान को काबू में कर लें। इसी षड्यंत्र के एक भाग के नाते भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में कम्युनिस्ट घुसाए भी गए हैं। कांग्रेस में भी ऐसे कम्युनिस्ट घुसे हैं। शासन तंत्र में भी अवश्य होंगे, वरना आकाशवाणी से भी पहले, पीकिंग रेडियो से यहाँ के कुछ समाचार कैसे आए? ये लोग असम से कोलकाता तक इस प्रचार में लगे हैं कि वर्तमान शासन तो दुष्ट लोगों का है। उसे समाप्त कर सुख-समृद्धि देने के लिए चीनी लोग आ रहे हैं। उनकी सहायता करनी चाहिए। ये कम्युनिस्ट इस प्रकार का षड्यंत्र और विद्रोहात्मक उत्पात, आगे कितना व कैसे करेंगे, आज तो कहना कठिन है। परन्तु उनकी हलचलों पर सतर्क दृष्टि रखना आवश्यक है।“[26]
दीनदयाल उपाध्याय ने कम्युनिस्टों का असली चेहरा बताते हुए देश के लोगों को अवगत कराया है और कम्युनिस्टों के लोकतंत्र विरोधी षड्यंत्र को उजाकर किया है। वह लिखते हैं, “आज कांग्रेस व कम्युनिस्ट कहते हैं कि शेख अब्दुल्ला अमरीका का एजेंट था। यदि वह अपने स्थान पर कुछ दिन और रहता तो कश्मीर के अस्तित्व को खतरा था। यही बात डॉ. मुखर्जी ने पार्लियामेंट में कही तो कम्युनिस्टों व कांग्रेस वालों ने इसका विरोध किया। नेहरूजी ने मुखर्जी के भाषण का उत्तर देते हुए कहा कि अब्दुल्ला देशभक्त व राष्ट्रीय विचार वाला है और मेंबरों ने तालियाँ बजाकर भाषण का स्वागत किया। कुछ दिनों बाद नेहरू को कहना पड़ा कि अब्दुल्ला अराष्ट्रीय व देशद्रोही है, इसलिए हमें उसे गिरफ़्तार करना पड़ा, तब भी मेंबरों ने तालियाँ बजाई। तो ये मेंबर केवल तालियाँ बजाने का काम करते हैं।“[27]
दीनदयाल उपाध्याय कम्युनिस्टों को राष्ट्रहित का विरोधी मानतें हैं,[28] और उनके मूल चरित्र को बेनकाब करते हैं। दीनदयाल जी कम्युनिस्टों की अवसरवादिता को बताते हुए कहते हैं कि कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तो संगठन और शक्ति संचय का साधन भी संघर्ष मानकर मौक़े-बे-मौक़े संघर्ष के अवसर की तलाश में रहते हैं।[29]
दीनदयाल उपाध्याय कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी जो यद्यपि जनता की पार्टी होने का दावा करती है, परंतु जिसका स्रोत जनसाधारण में नहीं है और जो अपनी प्रेरणा एवं शक्ति विदेशी भूमि एवं जनता से प्राप्त करती है, के अतिरिक्त अन्य कोई भी दल हिंसा में विश्वास नहीं करता। संसार के सभी साम्यवादी दलों के समान, भारत के साम्यवादी दल का भी, क्रांति लाने के लिए हिंसात्मक तरीक़ों पर भी विश्वास है। इसलिए उन्होंने कई बार ‘बॉम्बवाद’ को अपनाया है। तेलंगाना, कलकत्ता तथा भारत के अन्य कई नगर इसका अनुभव कर चुके हैं कि कम्युनिस्ट लूट, आगज़नी, तोड़-फोड़ और क़त्लेआम तक का आयोजन करके किस प्रकार जन-जीवन को अव्यवस्थित करने का विचार रखते हैं। यदि किसी समय वे अपने इन तरीक़ों को छोड़ देने का प्रदर्शन भी करते हैं तो वे उनकी चालबाज़ियों का हेरफेर मात्र होती है। इस समय वे शांतिपूर्ण क्रांति तथा कांग्रेस सरकार के साथ सहयोग की बात करते दिखाई देते हैं, परंतु उन्होंने न तो कभी हिंसा की नीति को त्यागने की घोषणा की और न कभी उसकी निंदा ही की है। संसद् के सदस्यों ने यह स्वीकार किया है कि खड़गपुर की हड़ताल के पीछे कम्युनिस्टों का हाथ रहा है और वे बहुत हद तक एक ऐसी घटना के लिए ज़िम्मेदार हैं जो कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में हत्या के लिए उतारू होने से कम नहीं है।[30]
दीनदयाल उपाध्याय कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान विरोधी रूप को बताते हुए कहते हैं कि “कम्युनिस्ट पार्टी जन्म से ही संविधान की मर्यादाओं में नहीं आती। यदि वह जनतंत्र और संवैधानिकवाद की कसमें भी खाए, तो भी उससे अपनी घोषणाओं के दृढतापूर्वक पालन की अपेक्षा नहीं की जा सकती।“[31]
जयप्रकाश नारायण साम्यवाद को देश विरोधी बताते हुए कहते हैं कि सन् 1929 में जब मैं अमेरिका से अपने देश वापस आया, तब यहाँ राष्ट्रीय भावना अपनी चरमसीमा पर थी। दूसरे वषं के प्रारम्भ में ही महात्मा गांधी ने अपना सुविख्यात नमक-सत्याग्रह शुरूकर दिया था। स्वाभाविक ही था, मैं अपने पूरे उत्साह के साथ इस संघर्ष में कूद पड़ा। लेकिन मुझे भारत के साम्यवादी लोग इस आन्दोलन में कहीं दिखाई नहीं दिये। उलटे वे लोग राष्ट्रीय आन्दोलन को बूर्जआ आन्दोलन और गांधी को भारतीय बूर्जुआ-वर्ग का पिट्ठू कहकर निन्दा कर रहे थे।[32]
जयप्रकाश नारायण के अनुसार कम्युनिस्ट पार्टी रूस के हाथ की कठपुतली मात्र है आर उसका सूत्र-संचालन वहीं से होता है। लगभग उसी समय सोवियत रूस में भी कुछ ऐसी दूसरी क्षोभ और घुटन पैदा करनेवाली घटनाएँ घटित हो रही थीं। फौलादी परदे की दरार में से भी स्टालिन के त्रासवाद के समाचार आने लगे थे।[33]
जयप्रकाश नारायण का मानना है कि साम्यवाद का साम्राज्यवादी रूप बदला नहीं है और साम्यवादी दुनिया में यदि जंगल का ही नियम अब तक लागू रहा है कि हिंसक और बलवान पशु दूसरों पशुओं को खा लेते हैं, तो फिर इस विषय में गम्भीरता से विचार करना चाहिए। इन सब मामलों के विरुद्ध हमारी तरफ से जोरदार आवाज नहीं उठती तो मुझे अपने देश की विदेश-नीति की आलोचना करना अपना फर्ज मालूम पड़ता है।[34]
जयप्रकाश नारायण तिब्बत के सन्दर्भ में चीन की विस्तारवादी नीति और तत्कालीन सरकार द्वारा तटस्थता अपनाए जाने के निर्णय के परिणाम को बताते हुए कहते हैं कि तिब्बत के मामले में भी मेरा यही कहना था। आज तो ऐसा लगता है कि उस समय हमने जोरदार आवाज बुलंद की होती, तो चीन को एकदम अपनी सरहद तक आने से रोका जा सका होता। किन्तु हमारी गम्भीर भूल यह हुई कि हमने चीन का तिब्बत पर सार्वभौमत्व स्वीकार कर लिया। चीन ने वहाँ 50-60 हजार लोगों का कत्ल कर डाला, फिर भी हमने उसके विरुद्ध आवाज नहीं बुलन्द की। चीन उस समय हमारा मित्र था, यह सही है, किन्तु मित्र यदि अन्याय करता हो, तो उसकी आलोचना नहीं हो सकती?[35]
ब्रिटिश एजेंट डांगे
- कुछ कम्युनिस्ट नेता ब्रिटिश सरकार के एजेंट बनकर पार्टी में बहुत अधिक सक्रिय थे। इसमें सबसे प्रमुख नाम श्रीपाद अमृत डांगे का था जिन्होंने ‘कानपुर षड़यंत्र केस’ में बंदी किये जाने पर ब्रिटिश सरकार से लिखित अनुरोध किया था कि अगर उन्हें रिहा कर दिया जाए तो वह सरकारी एजेंट के रूप में पार्टी के अन्दर सक्रिय रहकर उसके गोपनीय प्रस्तावों और निर्णयों की जानकारी ब्रिटिश शासकों को देते रहेंगे।
- ‘मेरठ षड़यंत्र केस’ में डांगे की भागीदारी इसी योजना के तहत थी और उन्हीं की सूचना पर अंग्रेज सरकार दो दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और पार्टी के महत्त्वपूर्ण नेताओं को बंदी बनाने में सफल हो सकी थी।
- इस घटना से अन्य कम्युनिस्ट नेता हतप्रभ हो गए थे। डांगे को अन्य नेताओं के साथ इसलिए बंदी बना लिया गया, जिससे कि उनके ब्रिटिश एजेंट होने की सच्चाई पर रहस्य का पर्दा पड़ा रहे।
- डांगे के इस चतुरतापूर्ण व्यवहार के कारण उनके सहयोगी और अनुयायी पार्टी के साथ की जाने वाली उनकी इस गद्दारी का तनिक भी अनुमान न लगा सके और वे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व मण्डली तक पहुँचने में ही केवल कामयाब नहीं हुए बल्कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पद पर भी कब्ज़ा कर बैठे।
- सन 1964 में जब उनके ब्रिटिश एजेंट होने से संबंधित उनके पत्र की जानकारी देश के कम्युनिस्ट नेताओं को मिली उसके बाद ही उन्हें भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन से निकाला जा सका।[36]
- कम्युनिस्टों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को ‘तोजो का कुत्ता, पूंजीपतियों का दलाल’ आदि कहकर उनका अपमान किया था।[37]
[1] Madhu Limaye, Indian Communism Today, 1954, p. 3
[2] MR Masani, The Communist Party of India, London: Derek, 1954, pp. 78-79
[3] VB Karnik, Indian Communist Party Document 1930-1956, Bombay: The Democratic Research Service, 1957, p. 48
[4] NMML, AICC Speeches, Tape No. M 64/C (I), M 64/C (II) M 65/C (I)
[5] Girilal Jain, Panchsheela and After, Bombay: Asia Publishing, 1960, p. 197
[6] VB Karnik, Indian Communist Party Document 1930-1956, Bombay: The Democratic Research Service, 1957, p. 48
[7] The Times of India – 22 November 1992
[8] Document of the Communist Movement in India, Volume 5, p. 110
[9] Governmentality or Class Politics: The Path Ahead for Indian Communists by Ananyo Mukherjee
[10] Gene D Overstreet and Marshall Windmiler, Communism in India, pp. 291-292
[11] The Times of India – 26 November 1958
[12] सीताराम गोयल, कम्युनिस्ट पुराण, एशिया में स्वाधीनता संरक्षक संघ, कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1954, पृष्ठ 93
[13] एम. आर. मसानी, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया, भारतीय विद्या भवन, बोम्बे, 1967, पृष्ठ 25
[14] Durga Das, Sardar Patels Correspondence, Volume 5, Ahmedabad: Navajivan, p. 331
[15] Selected Works of Jawaharlal Nehru, Volume 3, p. 480
[16] Selected Works of Jawaharlal Nehru, Volume 5, p. 276
[17] Selected Works of Jawaharlal Nehru, Volume 6, p. 387
[18] G. Parthasarathi (ed.), Jawaharlal Nehru – Letters to Chief Ministers 1947-1964, Volume 1, New Delhi, 1985, pp. 103-140
[19] Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, volume 3, p. 450
[20] Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, volume 3, p. 452
[21] Dr. Babasaheb Ambedkar Writings and Speeches, volume 3, p. 459
[22] सीताराम गोयल, कम्युनिस्ट पुराण, एशिया में स्वाधीनता संरक्षक संघ, कलकत्ता, प्रथम संस्करण, 1954, पृष्ठ 65
[23] श्री गुरूजी समग्र : खंड 12, पृष्ठ 65
[24] श्री गुरूजी समग्र : खंड 3, पृष्ठ 248
[25] श्री गुरूजी समग्र : खंड 10, पृष्ठ 180
[26] श्री गुरूजी समग्र : खंड 10, पृष्ठ 169
[27] महेश चंद्र शर्मा, सम्पूर्ण वांग्मय, दीनदयाल उपाध्याय, भाग 2, पृष्ठ 151
[28] महेश चंद्र शर्मा, सम्पूर्ण वांग्मय, दीनदयाल उपाध्याय, भाग 5, पृष्ठ 30
[29] महेश चंद्र शर्मा, सम्पूर्ण वांग्मय, दीनदयाल उपाध्याय, भाग 3, पृष्ठ 76
[30] महेश चंद्र शर्मा, सम्पूर्ण वांग्मय, दीनदयाल उपाध्याय, भाग 4, पृष्ठ 93
[31] महेश चंद्र शर्मा, सम्पूर्ण वांग्मय, दीनदयाल उपाध्याय, भाग 7, पृष्ठ 164
[32] जयप्रकाश नारायण, मेरी विचार यात्रा, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1973, पृष्ठ 8
[33] जयप्रकाश नारायण, मेरी विचार यात्रा, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1973, पृष्ठ 8
[34] जयप्रकाश नारायण, मेरी विचार यात्रा, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1973, पृष्ठ 165
[35] वही, पृष्ठ 165
[36] गौरीनाथ रस्तोगी, मार्क्सवाद उत्थान और पतन, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 63
[37] गौरीनाथ रस्तोगी, मार्क्सवाद उत्थान और पतन, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 69