भारतीय संविधान व हिंदुत्व

26 नवंबर 1949 के दिन भारत की संविधान सभा ने उस संविधान के मसौदे को स्वीकार किया था जिसे विधिवत 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था। अगर संविधान सभा में हुई बहस को देखें और संविधान के निर्माण से जुड़ी सारी प्रक्रियाओं व दस्तावेजों पर पुन: एक बार नज़र डालें तो एक दिलचस्प निष्कर्ष यह निकलता है कि हिंदू धर्म के प्रतीकों को संविधान निर्माताओं ने न केवल स्वीकारा बल्कि पूरे सम्मान के साथ प्रतिष्ठित किया।

भारतीय संविधान की मूल प्रति में लगभग हर अध्याय के आरंभ में कोई न कोई चित्र छापा गया था। पृष्ठ एक पर मोहनजोदड़ों की मोहरों का चित्र है। पृष्ठ तीन पर वैदिक काल में चलाए जा रहे गुरुकल का एक प्रतीकात्मक चित्र है। पृष्ठ छ: पर रामायण से प्रेरणा लेकर एक चित्र छापा गया था जिसमें भगवान श्रीराम लंका विजय के बाद पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ हैं। ध्यान देने की बात यह है कि यह चित्र उस अध्याय के आरंभ में छापा गया है जिसे संविधान की आत्मा भी कहा जाता है और यह अध्याय मौलिक अधिकारों से संबंधित प्रावधानों का वर्णन करता है।

संविधान की इस मूल प्रति में चौथे अध्याय में राज्य के लिए नीति निर्देशों का वर्णन है। इस अध्याय के आरंभ में दिए गए चित्र में महाभारत के समय युद्ध क्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण सारथी के रूप में अर्जुन को भगवद्गीता का संदेश दे रहे हैं। पृष्ठ 20 पर भगवान बुद्ध व पृष्ठ 63 पर भगवान महावीर का चित्र है। पृष्ठ 104 पर विक्रमादित्य के दरबार का चित्र है। यह वही विक्रमादित्य हैं जिनके यश के कारण उनके नाम पर भारत में विक्रमी संवत का कैलेंडर चलता है। इसके तुरंत बाद हमारी ऐतिहासिक ज्ञान परंपरा का स्मरण करवाने के लिए तक्षशिला में प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय का चित्र है। दुनिया के सबसे विख्यात ज्ञान केंद्रों में से एक नालंदा को 1193 में इस्लामी आक्रांता बख्तियार खिलजी ने जला दिया था। कहा जाता है कि 90 लाख से अधिक दुर्लभ ग्रंथ इस आग में जल कर राख हो गए थे। ये वो ग्रंथ थे जो लगभग 200 साल की कड़ी मेहनत से हिंदू विद्वानों ने यहां संग्रहित किए थे।

भारतीय संविधान की मूल प्रति में पृष्ठ 113 पर भगवान नटराज का चित्र है और पृष्ठ 130 पर भागीरथ द्वारा अपने पुरखों की आत्मा को मुक्ति दिलाने तथा धरती पर गंगा लाने का चित्र है। इसी प्रकार पृष्ठ 167 पर देवभूमि माने जाने वाले हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं का चित्र है। संविधान सभा में ही कई बार गोवध पर प्रतिबंध लगाने के विषय पर भी बहस हुई। विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों ने इसका पुरजोर समर्थन किया। इन्हीं प्रयासों के कारण गोवध को रोकने के लिए संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में इसे शामिल करने का प्रावधान किया गया। संविधान के भाग चार में अनुच्छेद 48 के अंतर्गत यह प्रावधान आरंभ से ही है।

संविधान के इसी भाग चार में समान नागरिक संहिता का प्रावधान भी अनुच्छेद 44 के अंतर्गत किया गया। इस संबंध में यहां हंसा मेहता का उल्लेख करना आवश्यक है। वह संविधान सभा में मौजूद 15 महिला सदस्याओं में से एक थीं। वह मुंबई प्रांत से संविधान सभा में चुनकर आई थीं।उन्हें 1959 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। संविधान सभा में वह मौलिक अधिकारों को लेकर बनी उपसमिति की सदस्य थीं। उन्होंने 22 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में समान नागरिक संहिता तथा मुस्लिम महिलाओं के लिए जबरन थोपी गई पर्दा प्रथा को समाप्त करने के पक्ष में वक्तव्य दिया।

अपने वक्तव्य में उन्होंने यह भी कहा, ‘हमारे पास कई जटिल समस्याएं थीं पर फिर भी हमारा प्रदर्शन अच्छा रहा है। हमारे पास सबसे बड़ी समस्या ‘अल्पसंख्यकों’ की थी। हमने संविधान में कहीं भी अल्पसंख्यकों को परिभाषित नहीं किया है।। हमारे पिछले शासकों ने हमें जो परिभाषा दी थी हमने उसे ही स्वीकार कर लिया।

उन्होंने धार्मिक व संप्रदाय आधारित अल्पसंख्यकों की श्रेणी का निर्माण किया जो उनकी ‘बांटो और राज करो’ की नीति में सहायक था और जिसकी परिणति देश के विभाजन में हुई। हम और विभाजन नहीं चाहते हैं। अल्पसंख्यकों को क्या चाहिए? वे क्या दावे कर सकते हैं? संविधान सभी को कानून का संरक्षण, समानता, एक जैसे अवसर देने के प्रावधान करता है; संविधान ‘रिलीजियस राइट्स’ (पंथ आधारित अधिकारों) की भी गारंटी देता है। इससे ज्यादा उन्हें क्या चाहिए? अगर उन्हें विशेष सुविधाएं चाहिएं तो वह लोकतंत्र की भावना के अनुरूप नहीं है।’

समान नागरिक संहिता: संविधान सभा में अम्बेडकर, मुंशी, अय्यर ने की थी जोरदार पैरवी

संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के लिए अम्बेडकर, मुंशी, अय्यर कैसे खड़े थे?  हमारे देश में  हर साल 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है. 26 नवंबर, 1949 को हमारी संविधान सभा ने उस संविधान को स्वाकार किया था जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया. संविधान सभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर  हुई बहस सबसे दिलचस्प बहसों में से एक है.  इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी  हाल ही में एक टिप्पणी  करते हुए समान नागरिक संहिता का समर्थन किया और केंद्र से इसे लागू करने की दिशा में काम करने के लिए भी कहा.  अदालत ने कहा, “ यह राज्य की जिम्मेदारी है वह  देश के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता हासिल लागू करे  और निस्संदेह, उसके पास ऐसा करने की विधायी क्षमता है।”(https://www.thehindu.com/news/national/allahabad-high-court-urges-centre-to-speed-up-uniform-civil-code/article37582213.ece)

23 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा हुई। पहले मुस्लिम सदस्यों ने बात की और अनुच्छेद 35  जिसमें देश में समान नागरिक संहिता होने से संबंधित प्रावधान शामिल थे, को लेकर कई संशोधनों के प्रस्ताव दिए ।  प्रस्ताव देने वालों में मोहम्मद इस्माइल, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, हुसैन इमाम कुछ ऐसे सदस्य थे जिन्होंने इन संशोधनों को पेश किया. (http://164.100.47.194/loksabha/writereaddata/cadebatefiles/C23111948.pdf)

नज़ीरुद्दीन अहमद ने यह कहते हुए संशोधन पेश किया कि  अनुच्छेद 35 में  निम्नलिखित प्रावधान जोड़ा जाए  ‘बशर्ते कि किसी भी समुदाय का पर्सनल लॉ है, जिसे क़ानून द्वारा गारंटी दी गई है, उस समुदाय की पूर्व स्वीकृति के बिना उसे नहीं बदला जाएगा। इस स्वीकृति को प्राप्त करने के लिए कानूनी प्रावधानों का सहारा लिया जाएगा। अहमद ने  इस बहस में भाग लेते हुए कहा कहा, “मैं अपनी टिप्पणी को केवल मुस्लिम समुदाय को होने वाली असुविधा तक सीमित नहीं रखना चाहता. मैं इसे बहुत व्यापक आधार पर रखूंगा.वास्तव में, प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक मत के अनुयायियों के कुछ पंथिक कानून होते हैं, कुछ नागरिक कानून  पंथिक विश्वासों और प्रथाओं से अविभाज्य रूप से जुड़े होते हैं। मेरा मानना है कि एक समान नागरिक संहिता से इन पंथिक कानूनों या अर्ध-पंथिक कानूनों को दूर रखा जाना चाहिए.

एक और संशोधन पेश करते हुए, तत्कालीन मद्रास  से संविधान सभा में आए  एक मुस्लिम सदस्य मोहम्मद इस्माइल  ने कहा:
“महोदय, मैं प्रस्ताव करता हूं कि अनुच्छेद 35 में निम्नलिखित प्रावधान जोड़ दिया जाए:
बशर्ते कि किसी भी समूह, वर्ग या समुदाय के लोगों को ऐसा कानून होने की स्थिति में अपना निजी कानून छोड़ने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।”

इस्माइल ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए समान नागरिक संहिता का विरोध किया. उन्होंने कहा,  ”एक समूह या समुदाय का अपने निजी कानून का पालन करने  करने का अधिकार मौलिक अधिकारों में से है और यह प्रावधान वास्तव में वैधानिक और न्यायसंगत मौलिक अधिकारों  में शामिल  किया जाना चाहिए। इसी कारण से मैंने अन्य मित्रों के साथ इससे पूर्व के कुछ अन्य अनुच्छेदों में संशोधन का प्रस्ताव दिया है, जिन्हें मैं उचित समय पर उपस्थित करूंगा। अब पर्सनल लॉ का पालन करने का अधिकार उन लोगों के जीवन के तरीके का हिस्सा है जो ऐसे कानूनों का पालन कर रहे हैं; यह उनके मत का हिस्सा है और उनकी संस्कृति का हिस्सा है।

यदि व्यक्तिगत कानूनों को प्रभावित करने वाला कुछ भी किया जाता है, तो यह उन लोगों के जीवन के तरीके में हस्तक्षेप के समान होगा जो पीढ़ियों और युगों से इन कानूनों का पालन कर रहे हैं। यह पंथनिरपेक्ष राज्य जिसे हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसे लोगों के मत और पंथ में हस्तक्षेप करने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहिएण्” इन सभी तर्कों का प्रतिवाद डॉ बीआर अंबेडकर, केएम मुंशी और अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर द्वारा प्रस्तुत किया गया था.

देश के लिए समान नागरिक संहिता का जोरदार समर्थन करते हुए, अंबडेकर ने कहा, “मुझे लगता है कि मेरे अधिकांश मित्र जिन्होंने इस संशोधन पर बात की है, वे यह भूल गए हैं कि 1935 तक उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत शरीयत कानून के अधीन नहीं था। इसने उत्तराधिकार के मामले में और अन्य मामलों में हिंदू कानून का पालन किया, यह पालन इतना व्यापक और मजबूत था कि अंतत: 1939 में केंद्रीय विधानमंडल को मैदान में आना पड़ा और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के मुसलमानों के लिए हिंदू कानून  को निरस्त कर उन पर शरीयत कानून लागू किया गया.”  उन्होंने आगे कहा, “मुझे इस मामले में उनकी भावनाओं का एहसास है, लेकिन मुझे लगता है कि वे अनुच्छेद 35 को लेकर कुछ ज्यादा ही आशंकित हो रहे हैं.  यह अनुच्छेद केवल यही प्रस्तावित करता है कि राज्य, देश के नागरिकों के लिए नागरिक संहिता को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।”

मुंशी ने इस बहस में हिस्सा लेते हुए  बहुत ही दिलचस्प बात कही,”… उन नुकसानों को देखें जिनमें नागरिक संहिता नहीं होने पर वृद्धि होगी। उदाहरण के लिए हिंदुओं को लें। हमारे पास भारत के कुछ हिस्सों में ‘मयूख’ कानून लागू है; हमारे पास दूसरे कुछ हिस्सों में  ‘मीताक्षरा’ कानून ; और हमारे पास बंगाल में ‘दयाबाघ’ नामक कानून है। इस प्रकार स्वयं हिन्दुओं के भी अलग-अलग कानून हैं और हमारे अधिकांश प्रांतों ने अपने लिए अलग-अलग हिन्दू कानून बनाना शुरू कर दिया है। क्या हम इन टुकड़े-टुकड़े कानूनों को इस आधार पर अनुमति देने जा रहे हैं कि यह देश के पर्सनल लॉ को प्रभावित करता है? इसलिए यह केवल अल्पसंख्यकों का सवाल नहीं है बल्कि बहुसंख्यकों को भी प्रभावित करता है।”
खुद इस्लामी शासकों में से एक का उदाहरण लेते हुए, उन्होंने आगे कहा, “ब्रिटिश शासन के तहत मन का यह रवैया, कि पर्सनल लॉ  मत/पंथ का हिस्सा है, को अंग्रेजों और ब्रिटिश अदालतों द्वारा बढ़ावा दिया गया है। इसलिए हमें इससे आगे बढ़ कर इसे छोड़ देना चाहिए।

अगर मैं माननीय सदस्य को याद दिला दूं … तो अलाउद्दीन खिलजी ने कई बदलाव किए, जो शरीयत के खिलाफ थे, हालांकि वह यहां मुस्लिम सल्तनत की स्थापना करने वाले पहले शासक थे। दिल्ली के काजी ने उनके कुछ सुधारों पर आपत्ति जताई, और उनका उत्तर था- “मैं एक अज्ञानी व्यक्ति हूं और मैं इस देश के सर्वोत्तम हित में शासन कर रहा हूं। मुझे यकीन है, मेरी अज्ञानता और मेरे अच्छे इरादों को देखते हुए, सर्वशक्तिमान मुझे माफ कर देंगे, जब उन्हें पता चलेगा कि मैंने शरीयत के अनुसार काम नहीं किया है।” यदि अलाउद्दीन ऐसा नहीं कर सकता है, तो आधुनिक सरकार इस प्रस्ताव को तो बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकती है कि पंथिक अधिकारों के दायरे में व्यक्तिगत कानून या कई अन्य मामले आते हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से हमें अपने पंथ अथवा मत के हिस्से के रूप में मानने के लिए प्रशिक्षित किया गया है.”

एक समान नागरिक संहिता के पक्ष में बोलते हुए और मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों का विरोध करते हुए अय्यर ने कहा,  कि एक आपत्ति यह दर्ज की गई है कि  कि समान नागरिक संहिता से समुदायों में वैमनस्य बढ़ेगा जबकि सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है. समान नागरिक संहिता के पीछे  विचार यह है कि   अपसी मतभेदों को बढ़ावा देने वाले कारकों को समाप्त किया जाए. बहस के अंत में,कुछ मुस्लिम सदस्यों द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को अस्वीकार कर दिया गया. संविधान सभा के सदस्यों ने समान नागरिक संहिता के संविधान का हिस्सा होने के पक्ष में भारी मतदान किया.
समाप्त।।

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