योग दिवस – 21 जून

योग का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली है। इसका उल्लेख रामायण और महाभारत के कालखंड से लेकर भगवान शिवजी, भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण के जीवन प्रसंगों में मिलता है। ऋग्वेद में ऋषियों द्वारा ध्यान, तप और आत्मा की खोज का उल्लेख मिलता है, जो योग की प्रारंभिक चेतना को दर्शाता है। उपनिषदों में यह चेतना और विकसित होकर ‘प्रणव साधना’, ‘ध्यान योग’ और ‘ब्रह्मविद्या’ के रूप में दर्शन की परिपक्व अवस्था में पहुँचती है।

योग को विधिपूर्वक और व्यवस्थित रूप में महर्षि पतंजलि ने प्रस्तुत किया। उनके द्वारा रचित ‘योगसूत्र’ में योग को केवल साधना नहीं, बल्कि जीवन के समग्र दर्शन के रूप में प्रतिपादित किया गया। योग का व्यावहारिक पक्ष हठयोग के माध्यम से अधिक विस्तारित हुआ, जिसका वर्णन घेरण्ड संहिता, हठयोग प्रदीपिका और शिव संहिता जैसे ग्रंथों में मिलता है। मध्यकाल में योग का प्रसार संत परंपरा के माध्यम से हुआ – जैसे गुरु गोरखनाथ, गोस्वामी तुलसीदास आदि।

आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद, परमहंस योगानंद, श्री अरविंद, महर्षि महेश योगी आदि योग को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाने वाले प्रमुख साधक और विचारक बने। आज योग भारत की आध्यात्मिक संस्कृति का जीवंत प्रतीक बन चुका है। वह केवल स्वास्थ्य या व्यायाम की पद्धति नहीं, बल्कि आत्मविकास, मानसिक संतुलन और आध्यात्मिक उन्नति का सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक मार्ग है।

योग – भारतीय वेदों और दर्शनों और सम्प्रदायों में

‘भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्‌ प्रसिध्यति’ (मनु १२।९७) के अनुसार योग का मूल वेदों में निहित है।

ऋग्वेद में योग का उल्लेख अत्यंत प्राचीन और गूढ़ रूप में हुआ है। कल्याण – योगतत्त्व अंक में उद्धृत मंत्र, ‘यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगमिन्वति॥ ‘(ऋग्वेद 1.18.7) — में ‘योग’ का तात्पर्य बुद्धि, चित्त और कर्म को ईश्वर में समर्पित करने से है। वैदिक ऋषियों ने योग को केवल शारीरिक साधना नहीं, बल्कि आत्मा और परमात्मा के बीच की गहन चेतनात्मक एकता के रूप में परिभाषित किया। इस ग्रंथ में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ऋग्वेद की अनेक ऋचाएँ — जैसे 10.177.3, 10.13.1 आदि — योग की ओर संकेत करती हैं। योग का मूल अर्थ ‘जोड़ना’ या ‘एकाग्रता’ रहा है, और वैदिक यज्ञों, ध्यान और आत्मबोध की साधनाओं के केंद्र में यही भाव रहा है। अतः ऋग्वेद योग का आदि स्रोत और उसका आध्यात्मिक आधारभूत स्तंभ माना जाता है।

यजुर्वेद के मंत्रों में हमें कहीं दो, कहीं तीन, कहीं चार और एक दो स्थलों पर पांचों प्राणों का भी युग्म रूप से उल्लेख मिलता है। प्राणों के यजुर्वेद संहिता में प्राण, अपान, व्यान और उदान का उल्लेख है जबकि समान नामक प्राण को यत्र-तत्र ही स्मरण किया गया है।

यजुर्वेद की एक ऋचा इन प्राणों को ऋषि कह कर संबोधित करती है। शरीर में विद्यमान प्राण रूप यह ऋषि ही मन-मस्तिष्क को ऋषि रूप में विकसित और प्रतिष्ठापित करते हैं। ऋषि अर्थात्‌ अंतर्निहित तथ्यों और रहस्यों को यथावत जानने समझने की दृष्टि विशेष। तार्किक और बौद्धिक उत्कर्ष की चरमावस्था है यह ऋषित्व। ऋषित्व के अभाव में शास्त्रोक्त तथ्यों और विष्ट गानों का सम्यक परिज्ञान असंभव प्रायः ही है। योगचर्या के अभाव में ऋषित्व की प्राप्ति असंभाव्य है। अतः स्पष्ट ही है कि योगजन्य प्रज्ञाविवेक से ही वेद मंत्रं में अंतर्भूत तत्वों को जाना जा सकता है।

अथर्ववेद (19.8.2) में हम बीजरूप में ‘योग’ शब्द विद्यमान पाते हैं। ‘योग’ प्रक्रिया के सबसे अहं सोपान प्राण-विद्या का हम वैदिक ऋचाओं में महती विस्तार देखते हैं।

अथर्ववेद के 11वें कांड का चौथा सूक्त प्राणविद्या का अनुपम विवरण प्रस्तुत करता है। इस सूक्त में व्यष्टि से समष्टि तक प्राण के विभिन्न आधारों एवं क्रियाकलापों को स्मरण कर नमन किया गया है। सूक्त का प्रथम मंत्र ही प्राण की व्यापकता को रेखांकित करते हुए कहता है कि उस प्राण के प्रति सबका नमन, जिसके वश में यह सब कुछ है। जो समस्त प्राणियों का ईश्वर है, और जिसमें यह सब प्रतिष्ठित है।

कठोपनिषद् में कहा गया है : ‘यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह, बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्‌। तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्‌। अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ॥‘ (कठोपनिषद् २।३।१०-११)। इससे स्पष्ट है कि योग केवल आसन न होकर आंतरिक स्थिरता और आत्मसाक्षात्कार की चरम अवस्था है।

वैदिक संहिताओं में प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-प्राणों का हमें अधिकांशतः उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्राण एक ही है परंतु कार्य वैभिन्य एवं स्थान, स्थिति और चेष्टा भेद से इनके अनेक नाम रख लिए गए हैं।

वैशेषिक-दर्शन में आत्मस्वरूप में स्थित निष्क्रिय और नि्दुःख-मनःस्थिति योग है। प्रकारान्तर से चित्तनिरोध योग है।

न्यायशास्त्र में योगदर्शन के अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेशरूप पञ्चविध श्लोकों का राग, द्वेष और मोह के रूप में वर्णन किया गया है। आत्मसाक्षात्कार से इनकी निवृत्ति होती है। इस प्रकार न्यायशास्त्र में योग का अत्यन्त महत्त्व है।

नाथ संप्रदाय की योग साधना को शिवविद्या या महायोगविद्या कहा गया है। इस परंपरा की मूल अवधारणा अलख निरंजन तत्व के स्वसंवेदन और पिंड-ब्रह्मांड के सामरस्य के अंतर्बाह्य साक्षात्कार पर आधारित है। इसके प्रवर्तक भगवान योगिराज शिव माने जाते हैं, जिन्होंने आदिशक्ति पार्वती को उपदेश दिया : ‘शिवविद्या महाविद्या गुप्ता चाग्रे महेश्वरी’ (शिवसंहिता ५।२४८)।

नाथ पंथ में परम उपास्य अद्वैत से परे परमेश्वर, परमशिव को माना गया है जो निराकार, निर्मल और ज्योति रूप हैं। गोरक्षनाथ को इस संप्रदाय का सर्वप्रसिद्ध सिद्ध माना गया, जिन्हें उनके गुरु मत्स्येन्द्रनाथ से दीक्षा प्राप्त हुई थी। गोरक्षनाथ ने न केवल गुरु के बताए मार्ग का पालन किया, अपितु स्वानुभव से साधना में और अधिक प्रगति की। उन्होंने गोरक्षशतक, गोरक्षसंहिता, गोरक्षगीता, गोरक्षकल्प, गोरक्षपिष्टिका और विवेकमार्तण्ड जैसे संस्कृत ग्रंथों की रचना की।

नाथ परंपरा के दो भेद हठयोग में माने गए हैं : (1) मार्कण्डेय हठयोग, (2) नाथपंथी हठयोग। हठयोग के प्रमुख अंगों में प्राणायाम को मूल आधार माना गया है “हठिनामधिकस्त्वेक: प्राणायामपरिश्रमः।“ (प्राणायाम में मन की स्थिरता— यही योगसिद्धि का मुख्य साधन है)।

योग का ऐतिहासिक महत्व

भगवान शिव : प्राचीन काल से ही भगवान शिव को ‘योगेश्वर’ माना गया है। अनेक योग परंपराएँ जैसे नाथयोग, हठयोग, मंत्रयोग, लययोग, राजयोग, आदि सभी भगवान शिव से ही प्रारंभ मानी जाती हैं। गुरु गोरखनाथजी के सम्प्रदाय में शिव को ‘आदिनाथ के रूप में पूजा जाता है और ध्यान मुद्रा में उनकी उपासना की जाती है। नाथ संप्रदाय में योग को शिवविद्या या महायोगविद्या कहा गया है, जिसमें आत्मा और ब्रह्मांड के सामरस्य की अनुभूति प्रमुख है।

शिवगीता में भगवान शिवजी ने भगवान राम को योग का दिव्य उपदेश दिया, जब वे सीता-वियोग से व्याकुल थे। उन्होंने आत्मज्ञान, चित्त की एकाग्रता, और भौतिक आसक्ति से विरक्ति का विस्तार से निरूपण किया।

भगवान शिव को ध्यानमग्न योगी के रूप में भी दर्शाया गया है, जिनका ध्यान जीवन के परम लक्ष्य ‘मोक्ष की ओर उन्मुख करता है। वेदों में वर्णित शिवसंकल्पसूक्त योग के लिए वैदिक प्रेरणा का आधार है, जो भगवान शिव की चेतना और व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

भगवान श्रीराम : रामायण के सन्दर्भ में महर्षि वसिष्ठ ने भगवान श्रीराम को गहन अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों के माध्यम से योग का मार्ग बताया है। इसमें योग को चित्त की वृत्तियों के निरोध और आत्मज्ञान प्राप्ति की युक्ति कहा गया है। राम को उपदेश करते हुए महर्षि वसिष्ठ कहते हैं : ‘द्वौ क्रमौ चित्तनाशस्य योगो ज्ञानं च राघव। योगो वृत्तिनिरोधो हि ज्ञानं सम्यगवेक्षणम्‌॥‘ (योगवासिष्ठ)

महर्षि वसिष्ठ : महर्षि वसिष्ठ योग के अत्यंत प्राचीन और समग्र दृष्टा माने जाते हैं। वे सप्तर्षि-मंडल में स्थित रहकर आज भी विश्वकल्याण में लगे हुए हैं। उनके द्वारा भगवान श्रीराम को उपदिष्ट ‘योगवासिष्ठ’ एक अनुपम योग-वेदान्त ग्रंथ है, जिसमें वैराग्य, मुमुक्षु-व्यवहार, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण—इन छह प्रकरणों के माध्यम से आत्मा और ब्रह्म की एकता पर विस्तृत विवेचन है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें केवल ज्ञान की प्रधानता नहीं दी गई, अपितु प्राणायाम, चित्तवृत्ति-निरोध और ब्रह्मविचार जैसे साधनों को भी साधकों के लिए सरल ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने योग को ‘शुद्ध चित्त की स्थिति’ कहा।

महाभारत : इस महाकाव्य में योग को आत्मसाधना और अंतःकरण की शुद्धि का मार्ग माना गया है। महर्षि व्यासजी ने ध्यानयोग के लिए द्वादश साधनों (देश, कर्म, आहार, दृष्टि, मन आदि) के संयम को अनिवार्य बताया है : ‘छिन्नदोषो मुनियोगान् युक्तो युञ्जीत द्वादश। देशकर्मानुरागार्थानुपायापायनिश्चयैः॥‘ (महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय 236, श्लोक 3–4)

महाभारत के शान्ति पर्व में ऋषियों को योग की 12 विधियों से ध्यानयोग का अभ्यास करते बताया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण :  भगवान श्रीकृष्ण को भी ‘योगेश्वर’ कहा गया है क्योंकि वे न केवल योग के आचार्य हैं बल्कि स्वयं योग के मूर्तिमान स्वरूप भी हैं। कल्याण-योगतत्त्वांक (1991) में श्रीकृष्ण की योग-सिद्धि, उनके उपदेशों और गीता की व्याख्या के माध्यम से योग के विविध आयामों का सटीक विश्लेषण किया गया है। भगवद्गीता को स्वयं भगवान की साक्षात योगयुक्त वाणी कहा गया है, जो आज भी अज्ञान और मोह का नाश कर आत्मबोध करा सकती है।

योग साधना के माध्यम से जो साधक मन, इंद्रियों और प्राणों को नियंत्रित कर परब्रह्म में स्थित हो जाता है, वह श्रीकृष्ण के अनुग्रह से ‘भवतापेन तप्तानां योगो हि परमौषधम्’ के रूप में परम शांति को प्राप्त करता है। अतः योग की चरम सिद्धि श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके साथ आत्मा की एकात्मकता में ही निहित है।

भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विभिन्न योगों का उपदेश दिया – कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्ति योग, और ध्यानयोग। ‘समत्वं योग उच्यते’ और ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ जैसे श्लोक योग को जीवन की कुशलता और समत्व की दशा से जोड़ते हैं।

‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्’ – भगवान श्रीकृष्ण का यह श्लोक इंगित करता है कि योग का थोड़ा सा भी अभ्यास मनुष्य को महाभय (संसार-चक्र) से बचा सकता है।

महर्षि पतंजलि : महर्षि पतंजलि को भारतीय दर्शन में योगशास्त्र के प्रवर्तक और अष्टांग योग पद्धति के सिद्धांतकार के रूप में सम्मान प्राप्त है। महर्षि पतंजलि ने योग को चित्तवृत्तियों के निरोध द्वारा आत्मा की शुद्ध स्थिति में प्रतिष्ठित करने का साधन बताया—योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।

उन्होंने समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य—इन चार पादों के माध्यम से योगदर्शन की व्याख्या की। योगदर्शन को उपनिषदों में वर्णित ‘इन्द्रियधारणाम्’ का व्यवस्थित और वैज्ञानिक स्वरूप देने का श्रेय उन्हीं को है। महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग – (1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान, और (8) समाधि – सभी धर्मों और सम्प्रदायों में स्वीकृत मूलभूत साधन रूप में प्रतिष्ठित हैं।

स्वामी भारतीकृष्णतीर्थजी लिखते हैं कि पतंजलि का योगदर्शन कोई सीमित सांप्रदायिक पद्धति नहीं, बल्कि सार्वभौमिक जीवनशैली है, जिसमें अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान जैसे गुण सम्मिलित हैं।

एक ऐसा पथ जिस पर निर्भय हो कर पूर्ण स्वतंत्रता के साथ दुनिया का प्रत्येक इंसान चल सकता है और जीवन में पूर्ण सुख, शांति व आनंद को प्राप्त कर सकता है। यह है महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित ‘अष्टांग योग’ का पथ। यह कोई मत पंथ या संप्रदाय नहीं अपितु जीवन जीने की संपूर्ण पद्धति है। यदि संसार के लोग वास्तव में इस बांत को ले कर गंभीर हैं कि विश्व में शांति स्थापित होनी ही चाहिए तो इसका एकमात्र समाधान है ‘अष्टांग योग’ का पालन।

महर्षि चरक : चरक संहिता में अनेक स्थलों पर योग की व्याख्या, योग-साधना, हठयोग के अंग जैसे वमन, विरेचन, वस्ति आदि का उल्लेख स्वाभाविक रूप से मिलता है। योग को महर्षि चरक ने चित्तवृत्तियों के निरोध और आत्मा में स्थिति के रूप में स्वीकारा है। मन विषयों से हटकर जब आत्मा में स्थित हो जाता है, तब योग की प्राप्ति मानी गई है। रोग निवारण, शुद्ध अंतःकरण और परमात्मा की प्राप्ति है। इसलिए आयुर्वेद और योग में घनिष्ठ पारस्परिक संबंध बताया गया है।

महर्षि चरक ने मानसिक वेगों को वश में रखने, ब्रह्मचर्य, गुरुसेवा, तप आदि को भी योग की सिद्धि हेतु आवश्यक बताया है। उनके द्वारा बताये गए श्लोकों के अनुसार : ‘आत्मेन्द्रियमनोऽर्थानां संनिकर्षात् प्रवर्तते’ – सुख-दुःख आत्मा, मन, इन्द्रिय और विषयों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं। मन आत्मस्थित होने पर दोनों से मुक्ति मिलती है।

आदिगुरु शंकराचार्य : उन्होंने योग को अद्वैत ब्रह्म से आत्मा की एकता के रूप में देखा। उन्होंने ध्यान, आत्मविचार और संन्यास को ब्रह्मानुभूति के प्रमुख साधन बताया।

संत तिरुमूलर : महायोगी संत तिरुमूलर दक्षिण भारत की शैव-सिद्ध परंपरा के अग्रदूत माने जाते हैं। उनका कालखंड ईसा की छठी शताब्दी में था और भगवान नन्दी के शिष्यों की परंपरा में स्वयं को स्थापित मानते थे। उनकी योग-साधना का प्रमुख उदाहरण तिरुमन्तिरम् नामक ग्रंथ है, जो तीन हजार तमिल पद्यों में विभक्त एक महाकाव्यात्मक ग्रंथ है। इसमें योग, तत्त्वज्ञान, तंत्र और शिवभक्ति का अद्वितीय समन्वय मिलता है।

अन्य ऋषिगण : हिरण्यगर्भ को योग का आदिप्रवर्तक माना गया है। महर्षि घेरण्ड ने सप्त साधनों की व्याख्या की। महायोगी महर्षि मार्कण्डेय ने करोड़ों वर्षों की दीर्घकालीन तपस्या एवं योग के द्वारा श्रीहरि की आराधना करके दुर्जेय काल को जीत लिया था।

गोस्वामी तुलसीदास : तुलसीदासजी ने अपने सम्पूर्ण साहित्य में भगवत्प्राप्ति के मुख्य हेतुओं में योग, ध्यान और तल्लीनता को ही प्रधान कारण माना है। ऐसे तो विनयपत्रिका, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, कवितावली आदि में भी योग पर प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है, पर मानस में उन्होंने योग की सुस्पष्ट महिमा वर्णित की है। प्रायः ध्रुव, प्रहलाद, शुक, सनकादि, नारद आदि योगियों को सभी सिद्धियाँ रामनाम-रूप भक्तियोग के प्रसाद से प्राप्त थी और वे राम नाम को ही योगसार-सर्वस्व मानते है। वैसे ध्यान देने पर ज्ञात होता है कि मानस में पद-पद पर योग की महिमा की गई है। वह चाहे कर्मयोग हो, चाहे ज्ञानयोग हो और चाहे भक्तियोग। प्रत्येक व्यक्ति को अपने कल्याण के लिए भगवत्प्राप्ति के इन साधनों की निष्ठापूर्वक उपासना करनी चाहिए, क्योंकि योग जिव को भगवान से जोड़ देने की विद्या है।

समर्थ गुरु रामदास स्वामी : समर्थ गुरु रामदास जोकी छत्रपति शिवाजी महाराज के गुरु थे, एक विरक्त योगी, प्रखर रामभक्त और कर्मयोगी संत थे। दासबोध में उन्होंने योग को केवल आसन या प्राणायाम तक सीमित न रखकर उसे आत्मानुभूति, भक्ति और विवेक के माध्यम से मोक्ष का मार्ग बताया है। वे शुकदेव की तरह विरक्त, वसिष्ठ जैसे ब्रह्मज्ञानी और वाल्मीकि जैसे लोककवि माने गए। उन्होंने अपने शिष्यों को केवल ध्यान-साधना ही नहीं सिखाई, बल्कि समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए भी योग को माध्यम बनाया। समर्थ गुरु के अनुसार, मन का नियंत्रण, इंद्रियों की संयमित ऊर्जा और आत्मा की परमात्मा से एकता — यही सच्चा योग है।

विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के विचार

बौद्ध : बौद्ध दर्शन में योग का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। ‘सम्यक् समाधि’ अष्टांगिक मार्ग का एक प्रमुख अंग है। पतंजलि के अनुसार योग चित्तवृत्ति का निरोध है, वहीं बौद्ध धर्म आत्मा के विसर्जन और बोधिसत्त्व की प्राप्ति की ओर उन्मुख है।

बौद्ध दर्शन में सम्यक-दृष्टि, सम्यक्‌-सङ्कल्प, सम्यक्‌-वचन, कर्मान्त (पञ्चशील, दशशील), सम्यक्‌- आजीव, सम्यक्‌-व्यायाम, सम्यक्‌-स्मृति तथा सम्यक्‌- समाधि – ये अष्टाङ्ग मार्ग हैं।

जैन : जैन दर्शन में योग का प्रयोग मन, वचन और काय की त्रिविध साधना के रूप में होता है। आत्मा की शुद्धि और कर्मों के क्षय के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करना ही योग का उद्देश्य है।

जैनाचार्यों जैसे हेमचन्द्र सूरी ने भी महर्षि पतंजलि के योगसूत्रों से प्रेरणा लेकर अपने ग्रंथों में यम-नियमादि को गृहस्थ और साधु धर्म के रूप में स्वीकार किया।

इस्लाम : इस्लाम धर्म की शाखा – सूफी में योग को आत्मा की शुद्धि, प्रेममय ध्यान और ‘फना’ (स्वत्व का लोप) की दिशा में अग्रसर माना गया है। इसमें हठयोग के तत्त्व भी पाए जाते हैं, विशेषकर इड़ा-पिंगला और प्राणायाम जैसे रूपों में।

कल्याण योगतत्त्वांक (1991) में सूफ़ी सम्प्रदाय में हठयोग की उपस्थिति को स्पष्ट किया गया है। हठयोग का अर्थ ‘ह’ (सूर्य) और ‘ठ’ (चंद्र) के संतुलन से है, जो प्राण और अपान की नियंत्रित साधना है। सूफ़ियों में हठयोग की प्रक्रिया को आत्मा की शुद्धि और ‘फना’ (स्वत्व का लोप) के माध्यम से ईश्वर की निकटता प्राप्त करने की साधना माना गया है।

ईसाई : ईसाई धर्म में योग की स्पष्ट प्रणाली नहीं है, किंतु ध्यान और प्रार्थना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। प्रभु यीशु के ध्यानमग्न जीवन को आध्यात्मिक योग के रूप में देखा जाता है।

पारसी : पारसी धर्म जिसे जरथोस्ती धर्म भी कहा जाता है, मूलतः सत्य, पवित्रता और श्रेष्ठ आचरण पर आधारित एक आध्यात्मिक परंपरा है। कल्याण – योगतत्त्व अंक में प्रकाशित लेख के अनुसार, इस धर्म में “हु-ख्त” (श्रेष्ठ विचार), “हु-वर्ष” (श्रेष्ठ वचन) और “हु-श्रथ” (श्रेष्ठ कर्म) को जीवन के तीन मूल स्तंभ माना गया है। ये तीनों मार्ग योगदर्शन के यम-नियमों की तरह आत्मसंयम और नैतिकता की ओर उन्मुख करते हैं। यद्यपि पारसी धर्म में योग का भारतीय शैली में व्यवस्थित स्वरूप नहीं मिलता, फिर भी ध्यान, आत्मचिंतन और आचरण की पवित्रता के माध्यम से यह धर्म योग की मूल भावना — आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के साक्षात्कार — से गहराई से जुड़ता है।

आधुनिक युग में योग के प्रमुख प्रवर्तक

स्वामी विवेकानंद : उन्होंने 1893 के शिकागो धर्म महासभा में योग और वेदांत का परिचय पश्चिमी जगत को कराया। उनकी रचनाओं और भाषणों में ध्यान, राजयोग और आत्म-विकास पर विशेष बल दिया गया। उनकी पुस्तक ‘राजयोग’ ने पश्चिम में योग के प्रति रुचि को जाग्रत किया।

परमहंस योगानंद : उन्होंने ‘क्रियायोग’ की शिक्षा दी और ‘योगदा सत्संग’ संस्था की स्थापना की। उनकी पुस्तक Autobiography of a Yogiविश्वभर में प्रसिद्ध हुई। इस ग्रंथ ने योग को वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझाने का कार्य किया।

स्वामी शिवानंद : उन्होंने ‘डिवाइन लाइफ सोसाइटी’ की स्थापना की और Serve, Love, Meditate, Realize का संदेश दिया। उनकी पुस्तकें जैसेYoga for Beginners,Concentration and Meditationआदि ने विश्वभर में योग शिक्षा का प्रसार किया।

महर्षि महेश योगी : उन्होंने Transcendental Meditation (TM)पद्धति को विश्वभर में फैलाया। उनकी शिक्षाओं ने ध्यान और मानसिक स्वास्थ्य को वैज्ञानिक और प्रायोगिक रूप में प्रस्तुत किया।

बी.के.एस. अयंगर : उन्होंने ‘अयंगर योग’ का प्रचार किया जिसमें आसनों की शुद्धता और शरीर की रचना पर विशेष बल दिया गया। उनकी पुस्तक Light on Yogaएक वैश्विक योग मैनुअल बन चुकी है।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती : उन्होंने ‘बिहार स्कूल ऑफ योग’ की स्थापना की और ‘योगनिद्रा’, ‘कुण्डलिनी योग’ आदि विधाओं का विस्तार किया। उनकी पुस्तकें Asana Pranayama Mudra Bandha, Tattwa Shuddhiविश्वभर में पढ़ाई जाती हैं।

महात्मा गाँधी : गांधीजी ने योग को केवल शरीर को स्वस्थ रखने की कसरत भर नहीं माना, बल्कि उन्होंने इसे आत्मशुद्धि और सत्य की खोज का एक साधन माना। उनके जीवन में योगसाधना का स्थान आत्मनियंत्रण, संयम, सत्याग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे तत्वों के माध्यम से प्रकट होता है। गांधीजी का मानना था कि यथार्थ योग वही है जो जीवन में अहिंसा और आत्मसंयम के रूप में व्यावहारिक हो, और जो मानव को आत्मा की खोज के मार्ग पर ले जाए। उन्होंने भगवद्गीता को अपनी जीवन-साधना का मार्गदर्शक माना, जिसे वे नित्य पढ़ते थे और उसका अभ्यास जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में करते थे

श्री अरविन्द : “अगर हम जीवन और योग दोनों को यथार्थ दृष्टिकोण से देखे तो सम्पूर्ण जीवन ही चेतन या अवचेतन रूप में योग है।“

स्वामी रामदेव : स्वामी रामदेव ने भारत में योग को जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया। उन्होंने ‘प्राणायाम’ को मुख्य योगिक साधन बनाकर उसे आमजन के स्वास्थ्य से जोड़ा। पतंजलि योगपीठ की स्थापना कर उन्होंने अनेक अनुसंधान, शिक्षण एवं औषधीय प्रयोगशालाएँ स्थापित कीं। उनके दूरदर्शन कार्यक्रमों एवं योग शिविरों के माध्यम से करोड़ों लोगों ने योग अपनाया।

श्री श्री रविशंकर : ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ संस्था के माध्यम से श्री श्री रविशंकर ने ध्यान और प्राणायाम के वैश्विक प्रचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘सुदर्शन क्रिया’ नामक तकनीक को विश्वभर में अपनाया गया।

योग और भारतीय संस्कृति – मानवता के सन्दर्भ में

‘योग’ शब्द ‘युज’ घातु से बना है। संस्कृत व्याकरण में ‘युज्‌’ धातु दो हैं। एक का अर्थ है – जोडना, संयोजित करना। और दूसरे का अर्थ है-समाधि, मन स्थिरता।

‘योग’ मनुष्य के अंदर सुप्त प्रायः पड़ी अंतर्दृष्टि को प्रबोधित और आंदोलित करता है। अंतर्दृष्टि से रहित व्यक्ति विकास से विश्राम (विश्रांति) तक का प्रकाशमान राजपथ पंकड़ने की अपेक्षा विलास से विनाश तक जाने वाला लोभनीय लेकिन कंटकाकीर्ण मार्ग पकड़ लेता है। वह न इहलौकिक को साध पाता है न पारलौकिक को। ‘योग’  दुराग्रह, सनक, मिथ्याचार और अहंभाव से ग्रसित बुद्धि, जो न केवल अपने लिए अपितु संपूर्ण मानव समाज के लिए पड़े-पड़े संकट खड़े करती है, को समाहित कर दिव्यता से संपूरित कर देता है। ‘योग’ का संस्पर्श बुद्धि को पर्वत से भी दृढ़ और समुद्र से भी गंभीर बना देता है। अवसाद के क्षणों में ‘योग’ का साहचर्य सघन विश्रांति देने वाला हैं। यह शंकालु चित्त को निःशंक कर दिव्य प्राप्तियों के आश्वासन से पूरित कर देने वाला है। संसार का इतिहास योगानुष्ठान द्वारा आत्मदर्शी बने उन महामनाओं की यशोगाथाओं से भरा पड़ा है। जिन्होंने मानव समाज में विद्यमान ईर्ष्या-द्वेष आदि प्रवृत्तियों और सुख-दुख आदि द्वंद्दों को दूर कर पृथ्वी पर शांति का साम्राज्य स्थापित स्थापित किया है।

कल्याण योगतत्त्वांक (1991) के अनुसार, योग केवल साधना नहीं, बल्कि एक ऐसी दिनचर्या है जो मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा को संतुलित करती है। प्रातःकालीन ध्यान, प्राणायाम और सूर्यनमस्कार जैसे अभ्यास दिनभर के कार्यों में मानसिक स्पष्टता, संयम और ऊर्जा बनाए रखते हैं। योगिक दिनचर्या में भोजन, निद्रा, जागरण और संयमित आचरण की प्रमुख भूमिका होती है। उदाहरण के लिए प्राचीन गुरुकुलों में ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान, जप, ध्यान, योगाभ्यास और स्वाध्याय को दैनिक दिनचर्या का अनिवार्य अंग बनाया गया था।

जीवन के हर पहलू का सूक्ष्मता से अध्ययन करते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में  योग स्थिरता का अभाव ही मनुष्य की असफलता का मूल कारण है। मावव के मन में, विचारों में एवं जीवन में एकाग्रता, स्थिरता एवं तन्मयता नहीं होने के कारण मनुष्य को अपने आप पर, अपनी शक्तियों पर पूरा भरोसा नही होता, पूरा विश्वास नहीं होता। उसके मन से, उसकी बुद्धि में सदा-सर्वदा- सन्देह बना रहता है। वह निश्चित विश्वास और एक निष्ठा के साथ अपने पथ पर बढ़ नही पाता। यही कारण है कि वह इतस्तत भटक जाता है, ठोकरें खाता फिरता है और पतन के महागर्त में भी जा गिरता है। उसकी शक्तियों का प्रकाश भी धूमिल पड जाता है। अतः अनन्त शक्तियों को अनावृत्त करने, आत्म-ज्योति को ज्योतित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य तक पहुँचने के लिए मन, वचन और कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, तन्मयता एवं स्थिरता लाना आ्रवश्यक है। आ्रत्म-चिन्तन में एकाग्रता एवं स्थिरता लाने का नाम ही ‘योग’ है।

भारतीय संस्कृति का विशेष प्रतीक योगदर्शन हिन्दू जाति की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक निधि है। भारतवर्ष में योग का सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से जो वैज्ञानिक अध्ययन हुआ, वह अन्यत्र कहीं पर भी दुर्लभ है। योग एक विज्ञान है और विज्ञान के साथ ही इसके तथ्यों की व्यावहारिक प्रयोग द्वारा सत्यता निर्धारित की गई है। योग का विषय इतना आवश्यक तथा उपादेय है कि अनादिकाल से ऋषि-मुनि ध्यानपूर्वक इसका अनुष्ठान करते थे। न केवल श्रुति-स्मृति पुराणेतिहासों में ही अपितु न्याय आदि दर्शनों में भी योग का महत्त्व स्वीकृत है। अनेक उपनिषदों में योग के विषय में उत्तमोत्तम विचार प्रगटित किए गए हैं। श्रीमदभगवतगीता का ऐसा कोई अध्याय नहीं है जिसमें किसी योग का वर्णन न हो। योग दर्शन सदृश ज्ञान गौरव का परिचय जितना भारतीय दार्शनिकों ने दिया है उतना किसी पाश्चात्य विद्वान ने नहीं दिया है।

आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है। भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व-चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योग-साधना के महत्व को स्वीकार किया है। योग के सभी पहलुओं पर गहराई से सोचा-विचारा है, चिन्तन-मनन किया है। अतः इस बात पर प्रकाश डालना आवश्यक हैं कि योग की परपरा क्‍या है? योग के सम्बन्ध मे भारतीय विचारक क्‍या सोचते हैं ? और उसका कैसा योगदान रहा है?

योग न केवल मानसिक और आत्मिक लाभ देता है, बल्कि शारीरिक रोगों के निवारण में भी उपयोगी है। कपालभाति, भस्त्रिका, अनुलोम-विलोम, और त्राटक जैसे अभ्यास तनाव, मोटापा, अनिद्रा, मधुमेह, थायरॉइड आदि में लाभकारी माने गए हैं।

योग दिवस और विश्व में योग 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रयासों से ही आज विश्व भर में योग दिवस मनाया जाता है। इस के पीछे उनकी योग को लेकर दृढ संकल्प शक्ति को देखा जा सकता है। उन्होंने 27 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभ में अपने भाषण में विश्व समुदाय से एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को अपनाने की अपील की थी। जिसमें उन्होंने कहा था कियोग भारत की प्राचीन परम्परा का एक अमूल्य उपहार है यह दिमाग और शरीर की एकता का प्रतीक है; मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य है; विचार, संयम और पूर्ति प्रदान करने वाला तथा स्वास्थ्य और भलाई के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी प्रदान करने वाला है। यह केवल व्यायाम के बारे में नहीं है, लेकिन अपने भीतर एकता की भावना, दुनिया और प्रकृति की खोज के विषय में है। हमारी बदलती जीवन-शैली में यह चेतना बनकर, हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद कर सकता है। तो आयें एक अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस को अपनाने की दिशा में काम करते हैं।“ — प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, (संयुक्त राष्ट्र महासभा)

11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस संकल्प का मसौदा प्रस्तुत किया गया और मसौदे को व्यापक समर्थन मिला, जिसके अंतर्गत 175 देश इस मसौदे के प्रस्तावक बने, जो संयुक्त राष्ट्र महासभा के इतिहास में अभी तक हुए किसी भी संकल्प में सर्वाधिक प्रस्तावकों की संख्या है। यूएन के अनुसार, “Yoga is an ancient physical, mental and spiritual practice that originated in India. The word ‘yoga’ derives from Sanskrit and means to join or to unite, symbolizing the union of body and consciousness.……Recognizing its universal appeal, on 11 December 2014, the United Nations proclaimed 21 June as the International Day of Yoga by resolution 69/131. The International Day of Yoga aims to raise awareness worldwide of the many benefits of practicing yoga.

The draft resolution establishing the International Day of Yoga was proposed by India and endorsed by a record 175 member states. The proposal was first introduced by Prime Minister Narendra Modi in his address during the opening of the 69th session of the General Assembly, in which he said: “Yoga is an invaluable gift from our ancient tradition. Yoga embodies unity of mind and body, thought and action … a holistic approach [that] is valuable to our health and our well-being. Yoga is not just about exercise; it is a way to discover the sense of oneness with yourself, the world and the nature.”

The resolution notes “the importance of individuals and populations making healthier choices and following lifestyle patterns that foster good health.” In this regard, the World Health Organization has also urged its member states to help their citizens reduce physical inactivity, which is among the top ten leading causes of death worldwide, and a key risk factor for non-communicable diseases, such as cardiovascular diseases, cancer and diabetes. But yoga is more than a physical activity. In the words of one of its most famous practitioners, the late B. K. S. Iyengar, “Yoga cultivates the ways of maintaining a balanced attitude in day-to-day life and endows skill in the performance of one’s actions.”

फलतः 21 जून 2015 के दिन प्रथम अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाया गया।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) सहित अनेक वैश्विक संस्थाएँ अब योग को वैकल्पिक चिकित्सा और जीवनशैली सुधार के रूप में मान्यता दे रही हैं। योग की यह यात्रा वेदों से प्रारंभ होकर आज AI और विज्ञान के युग में भी उतनी ही प्रासंगिक बनी हुई है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और योग – एक समर्पित दृष्टिकोण

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की स्थापना 1925 में डॉ. हेडगेवार द्वारा की गई थी, जिनका उद्देश्य था राष्ट्रभक्ति, शारीरिक और मानसिक विकास और आत्मानुशासन के माध्यम से भारत के युवाओं को संगठित करना। योग को संघ के आद्यात्मिक और शारीरिक प्रशिक्षण के अनिवार्य भाग के रूप में अपनाया गया। संघ की शाखाओं में सूर्य नमस्कार, प्राणायाम, ध्यान और आसनों का नियमित अभ्यास कराया जाता है।

योग और संघ का संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मनियंत्रण, सामाजिक सेवा, समरसता और आध्यात्मिक जागरण से भी जुड़ा है। संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार स्वयं योग साधक थे और उन्होंने शाखा पद्धति में योग को अनिवार्य रूप से जोड़ा।

श्रीगुरुजी गोलवलकर ने भी योग को आंतरिक तप और अनुशासन के अंग के रूप में देखा। उनका कहना था, “यदि स्वास्थ्य-रक्षा तथा रोग-प्रतिकार करने के लिए योगासनों के अभ्यास की ओर लोगों ने ध्यान दिया तो सर्वसाधारण जनता के स्वास्थ्य में सुधार होकर उनका औषधियों पर होने वाला व्यय कम होगा तथा सब दृष्टि से उनका कल्याण होगा।”

योग केवल आत्मोन्नति का साधन नहीं बल्कि समाजोद्धार और राष्ट्रनिर्माण का भी पथ है। यही दृष्टिकोण संघ द्वारा अपनाया गया। संघ के प्रमुख शिक्षा वर्गों में योगासन और ध्यान की विधिवत शिक्षा दी जाती है। योग के माध्यम से स्वयंसेवकों में संयम, साहस और शारीरिक स्फूर्ति का विकास किया जाता है, ताकि वे सेवा कार्यों में तत्पर रह सकें।

आज भी संघ की हजारों शाखाओं में योगाभ्यास अनिवार्य गतिविधियों में शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं एक स्वयंसेवक के रूप में संघ से जुड़े रहे हैं। उनके द्वारा अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा और उसे विश्व पटल पर स्थापित करना इस संघीय परंपरा की ही एक आधुनिक अभिव्यक्ति है। संघ का यह दृष्टिकोण “योग ही युक्ति है, योग ही शक्ति है, के सूत्र में संक्षेपित किया जा सकता है। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा 2015 के अनुसार, “योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है।”

संघ द्वारा योग दिवस पर पारित प्रस्ताव : संयुक्त राष्ट्र की 69वीं महासभा द्वारा प्रति वर्ष 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने की घोषणा से सभी भारतीय , भारतवंशी व दुनिया के लाखों योग-प्रेमी अतीव आनंद तथा अपार गौरव का अनुभव कर रहे हैं । यह अत्यंत हर्ष की बात है कि भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने 27 सितम्बर 2014 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा के अपने सम्बोधन में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने का जो प्रस्ताव रखा उसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। नेपाल ने तुरंत इसका स्वागत किया। 175 सभासद देश इसके सह-प्रस्तावक बनें तथा तीन महीने से कम समय में 11 दिसम्बर 2014  को बिना मतदान के, आम सहमति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया।

अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती है कि योग भारतीय सभ्यता की विश्व को देन है। ‘युज’ धातु से बने योग शब्द का अर्थ है जोड़ना तथा समाधि। योग केवल शारीरिक व्यायाम तक सीमित नहीं है, महर्षि पतंजलि जैसे ऋषियों के अनुसार यह शरीर मन, बुद्धि और आत्मा को जोड़ने की समग्र जीवन पद्धति है। शास्त्रों में ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’, ‘मनः प्रशमनोपायः योगः’ तथा ‘समत्वं योग उच्यते’ आदि विविध प्रकार से योग की व्याख्या की गयी है, जिसे अपनाकर व्यक्ति शान्त व निरामय जीवन का अनुभव करता है। योग का अनुसरण कर संतुलित तथा प्रकृति से सुसंगत जीवन जीने का प्रयास करने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, जिसमें दुनिया के विभिन्न संस्कृतियों के सामान्य व्यक्ति से लेकर प्रसिद्ध व्यक्तियों, उद्यमियों तथा राजनयिकों आदि का समावेश है। विश्व भर में योग का प्रसार करने के लिए अनेक संतों, योगाचार्यों तथा योग प्रशिक्षकों ने अपना योगदान दिया है, ऐसे सभी महानुभावों के प्रति प्रतिनिधि सभा कृतज्ञता व्यक्त करती है। समस्त योग-प्रेमी जनता का कर्तव्य है कि दुनिया के कोने कोने में योग का सन्देश प्रसारित करे।

अ. भा. प्रतिनिधि सभा भारतीय राजनयिकों, सहप्रस्तावक व प्रस्ताव के समर्थन में बोलनेवाले सदस्य देशों तथा संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों का अभिनन्दन करती है जिन्होंने इस ऐतिहासिक प्रस्ताव को स्वीकृत कराने में योगदान दिया। प्रतिनिधि सभा का यह विश्वास है कि योग दिवस मनाने व योगाधारित एकात्म जीवन शैली को स्वीकार करने से सर्वत्र वास्तविक सौहार्द तथा वैश्विक एकता का वातावरण बनेगा।

अ.भा. प्रतिनिधि सभा केंद्र व राज्य सरकारों से अनुरोध करती है कि इस पहल को आगे बढ़ाते हुए योग का शिक्षा के पाठ्यक्रमों में समावेश करें, योग पर अनुसन्धान की योजनाओं को प्रोत्साहित करें तथा समाज जीवन में योग के प्रसार के हर संभव प्रयास करें। प्रतिनिधि सभा स्वयंसेवकों सहित सभी देशवासियों, विश्व में भारतीय मूल के लोगों तथा सभी योग-प्रेमियों का आवाहन करती है कि योग के प्रसार के माध्यम से समूचे विश्व का जीवन आनंदमय स्वस्थ और धारणक्षम बनाने के लिए प्रयासरत रहें।

संदर्भ सूची

  • विज्ञान की कसौटी पर योग – आचार्य बालकृष्ण, पतंजलि योगपीठ
  • योग-समन्वय – श्रीअरविन्द, श्रीअरविन्द आश्रम, पांडिचेरी
  • पातंजलयोगदर्शन (टीकाकार) – हरिकृष्णदास गोयन्दका, गीताप्रेस
  • श्रीगुरुजी समग्र – खंड 6, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ साहित्य, नागपुर
  • योगशास्त्र – आचार्य हेमचन्द्र, प्रेम प्रिंटिंग प्रेस, आगरा
  • पातंजल योग दर्शन एक विशेष अध्ययन – सतीशचन्द्र शर्मा, श्री हरिनाम प्रेस, वृन्दावन,
  • डॉ. हेडगेवार जीवन चरित – सी.पी. भिशिकर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन
  • संघ और समाज – रमेश पतंगे, साहित्य सिंधु प्रकाशन
  • My Life, My Mission – Narendra Modi (English Translation)
  • Art of Living – The Transformative Power of Sudarshan Kriya, Sri Sri Publications
  • Yoga and the Sacred Fire – David Frawley
  • The Science of Yoga – I.K. Taimni
  • Autobiography of a Yogi – Paramhansa Yogananda
  • K.S. Iyengar – Light on Yoga, HarperCollins

प्रातिक्रिया दे

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा. आवश्यक फ़ील्ड चिह्नित हैं *