प. पू. सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत द्वारा
श्री विजयादशमी उत्सव, नागपुर, के अवसर पर दिए उद्बोधन का सारांश
(आश्विन शु. 10 युगाब्द 5127 – गुरूवार दिनांक 2 अक्तूबर 2025)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के शतवर्ष पूर्ण करने वाली इस विजयादशमी के निमित्त हम यहाँ एकत्रित है । संयोग है कि यह वर्ष श्री गुरु तेग बहादुर जी महाराज के पावन देहोत्सर्ग का तीनसौ पचास वाँ वर्ष है । हिन्द की चादर बनकर उनके उस बलिदान ने विदेशी विधर्मी अत्याचार से हिन्दू समाज की रक्षा की । अंग्रेजी दिनांक के अनुसार आज स्व. महात्मा गांधी जी का जन्मदिवस है। अपनी स्वतंत्रता के शिल्पकारों में वे अग्रणी हैं ही, भारत के ‘स्व’ के आधार पर स्वातंत्र्योत्तर भारत की संकल्पना करने वाले दार्शनिकों में भी उनका स्थान विशिष्ट है । सादगी, विनम्रता, प्रामाणिकता तथा दृढ़ता के धनी व देशहित में अपने प्राण तक न्यौछावर करने वाले हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री जी का जन्मदिवस भी आज ही है।
भक्ति, समर्पण व देशसेवा के ये उत्तुंग आदर्श हम सभी के लिए अनुकरणीय हैं । मनुष्य वास्तविक दृष्टि से मनुष्य कैसे बने और जीवन को जिये यह शिक्षा हमें इन महापुरुषों से मिलती है ।
आज की देश व दुनिया की परिस्थिति भी हम भारतवासियों से इसी प्रकार से व्यक्तिगत व राष्ट्रीय चारित्र्य से सुसंपन्न जीवन की माँग कर रही है । गत वर्ष भर के कालावधि में हम सब ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में जो राह तय की है उसके पुनरावलोकन से यह बात ध्यान में आती है ।
वर्तमान परिदृश्य – आशा और चुनौतियाँ
यह बीती कालावधि एक तरफ विश्वास तथा आशा को अधिक बलवान बनाने वाली है तथा दूसरी ओर हमारे सम्मुख उपस्थित पुरानी व नयी चुनौतियों को अधिक स्पष्ट रूप में उजागर करते हुए हमारे लिए विहित कर्तव्य पथ को भी निर्देशित करने वाली है ।
गत वर्ष प्रयागराज में संपन्न महाकुंभ ने श्रद्धालुओं की सर्व भारतीय संख्या के साथ ही उत्तम व्यवस्थापन के भी सारे कीर्तिमान तोड़कर एक जागतिक विक्रम प्रस्थापित किया । संपूर्ण भारत में श्रद्धा व एकता की प्रचण्ड लहर जगायी।
दिनांक 22 अप्रैल को पहलगाम में सीमापार से आये आतंकवादियों के हमले में 26 भारतीय यात्री नागरिकों की उनका हिन्दू धर्म पूछ कर हत्या कर दी गई । संपूर्ण भारतवर्ष में नागरिकों में दु:ख और क्रोध की ज्वाला भड़की । भारत सरकार ने योजना बनाकर मई मास में इसका पुरजोर उत्तर दिया । इस सब कालावधि में देश के नेतृत्व की दृढ़ता तथा हमारी सेना के पराक्रम तथा युद्ध कौशल के साथ-साथ ही समाज की दृढ़ता व एकता का सुखद दृश्य हमने देखा । परन्तु अपनी तरफ से सबसे मित्रता की नीति व भाव रखते हुए भी हमें अपने सुरक्षा के विषय में अधिकाधिक सजग रहना व समर्थ बनते रहना पड़ेगा यह बात भी हमें समझ में आ गई ।
विश्व में बाकी सब देशों के इस प्रसंग के संबंध में जो नीतिगत क्रियाकलाप बने उससे विश्व में हमारे मित्र कौन-कौन औंर कहाँ तक हैं इसकी परीक्षा भी हो गई ।
देश के अन्दर उग्रवादी नक्सली आन्दोलन पर शासन तथा प्रशासन की दृढ़ कारवाई के कारण तथा लोगों के सामने उनके विचार का खोखलापन व क्रूरता अनुभव से उजागर होने के कारण, बड़ी मात्रा में नियंत्रण आया है । उन क्षेत्रों में नक्षलियों के पनपने के मूल में वहाँ चल रहा शोषण व अन्याय, विकास का अभाव तथा शासन-प्रशासन में इन सब बातों के प्रति संवेदना का अभाव ये कारण थे । अब यह बाधा दूर हुई है तो उन क्षेत्रों में न्याय, विकास, सद्भावना, संवेदना तथा सामरस्य स्थापन करने के लिए कोई व्यापक योजना शासन-प्रशासन के द्वारा बने इसकी आवश्यकता रहेगी ।
आर्थिक क्षेत्र में भी प्रचलित परिमाणों के आधार पर हमारी अर्थ स्थिति प्रगति कर रही है, ऐसा कहा जा सकता है । अपने देश को विश्व में सिरमौर देश बनाने का सर्व सामान्य जनों में बना उत्साह हमारे उद्योग जगत में और विशेष कर नई पीढ़ी में दिखता है । परंतु इस प्रचलित अर्थ प्रणाली के प्रयोग से अमीरी व गरीबी का अंतर बढ़ना, आर्थिक सामर्थ्य का केंद्रीकृत होना, शोषकों के लिए अधिक सुरक्षित शोषण का नया तंत्र दृढ़मूल होना, पर्यावरण की हानि, मनुष्यों के आपसी व्यवहार में संबंधों की जगह व्यापारिक दृष्टि व अमानवीयता बढ़ना, ऐसे दोष भी विश्व में सर्वत्र उजागर हुए हैं । इन दोषों की बाधा हमें न हों तथा अभी अमेरिका ने अपने स्वयं के हित को आधार बनाकर जो आयात शुल्क नीति चलायी उसके चलते, हमको भी कुछ बातों का पुनर्विचार करना पड़ने वाला है । विश्व परस्पर निर्भरता पर जीता है । परंतु स्वयं आत्मनिर्भर होकर, विश्व जीवन की एकता को ध्यान में रखकर हम इस परस्पर निर्भरता को अपनी मजबूरी न बनने देते हुए अपने स्वेच्छा से जिएं, ऐसा हमको बनना पड़ेगा । स्वदेशी तथा स्वावलंबन को कोई पर्याय नहीं है ।
जड़वादी पृथगात्म दृष्टि पर आधारित विकास की संकल्पना को लेकर जो विकास की जड़वादी व उपभोगवादी नीति विश्व भर में प्रचलित है उसके दुष्परिणाम सब ओर उत्तरोत्तर बढ़ती मात्रा में उजागर हो रहे हैं । भारत में भी वर्तमान में उसी नीति के चलते वर्षा का अनियमित व अप्रत्याशित वर्षामान, भूस्खलन, हिमनदियों का सूखना आदि परिणाम गत तीन-चार वर्षो में अधिक तीव्र हो रहे हैं । दक्षिण पश्चिम एशिया का सारा जलस्रोत हिमालय से आता है । उस हिमालय में इन दुर्घटनाओं का होना भारतवर्ष और दक्षिण एशिया के अन्य देशों के लिए खतरे की घंटी माननी चाहिए ।
गत वर्षों में हमारे पड़ोसी देशों में बहुत उथल-पुथल मची है । श्रीलंका में, बांग्लादेश में और हाल ही में नेपाल में जिस प्रकार जन-आक्रोश का हिंसक उद्रेक होकर सत्ता का परिवर्तन हुआ वह हमारे लिए चिंताजनक है । अपने देश में तथा दुनिया में भी भारतवर्ष में इस प्रकार के उपद्रवों को चाहनेवाली शक्तियाँ सक्रीय हैं । शासन प्रशासन का समाज से टूटा हुआ सम्बन्ध, चुस्त व लोकाभिमुख प्रशासकीय क्रिया-कलापों का अभाव यह असंतोष के स्वाभाविक व तात्कालिक कारण होते हैं । परन्तु हिंसक उद्रेक में वांच्छित परिवर्तन लाने की शक्ति नहीं होती । प्रजातांत्रिक मार्गों से ही समाज ऐसे आमूलाग्र परिवर्तन ला सकता है । अन्यथा ऐसे हिंसक प्रसंगों में विश्व की वर्चस्ववादी ताकतें अपना खेल खेलने के अवसर ढूँढे, यह संभावना बनती है । यह हमारे पड़ोसी देश सांस्कृतिक दृष्टि से तथा जनता के नित्य संबंधों की दृष्टि से भी भारत से जुड़े हैं । एक तरह से हमारा ही परिवार है । वहाँ पर शांति रहे, स्थिरता रहे, उन्नति हो, सुख और सुविधा की व्यवस्था हो, यह हमारे लिए हमारे हितरक्षण से भी अधिक हमारी स्वाभाविक आत्मीयताजन्य आवश्यकता है ।
विश्व में सर्वत्र ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, सुख-सुविधा तकनीकी का मनुष्य जीवन में कई प्रकार की व्यवस्थाओं को आरामदायक बनाने वाला स्वरूप, संचार माध्यमों व आंतरराष्ट्रीय व्यापार के कारण दुनिया के राष्ट्रों में बढ़ी हुई निकटता जैसे परिस्थिति का सुखदायक रूप दिखता है । परन्तु विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति की गति व मनुष्यों की इन से तालमेल बनाने की गति इस में बड़ा अंतर है । इसलिए सामान्य मनुष्यों के जीवन में बहुत सारी समस्याएँ उत्पन्न होती दिखाई दे रही हैं । वैसे ही सर्वत्र चल रहे युद्धों सहित अन्य छोटे बड़े कलह, पर्यावरण के क्षरण के कारण प्रकृति के उग्र प्रकोप, सभी समाजों में तथा परिवारों में आई हुई टूटन, नागरिक जीवन में बढ़ता हुआ अनाचार व अत्याचार ऐसी समस्याएँ भी साथ में चलती हुई दिखाई देती हैं । इन सबके उपाय के प्रयास हुए हैं परंतु वे इन समस्याओं की बढ़त को रोकने में अथवा उनका पूर्ण निदान देने में असफल रहे हैं । मानव मात्र में इसके चलते आई हुई अस्वस्थता, कलह और हिंसा को और बढ़ाते हुए, सभी प्रकार के मांगल्य, संस्कृति, श्रद्धा, परंपरा आदि का संपूर्ण विनाश ही, आगे अपने आप इन समस्याओं को ठीक करेगा, ऐसा विकृत और विपरीत विचार लेकर चलने वाली शक्तियों का संकट भी, सभी देशों में अनुभव में आ रहा है । भारतवर्ष में भी कम-अधिक प्रमाण में इन सब परिस्थितियों को हम अनुभव कर रहे हैं । अब विश्व इन समस्याओं के समाधान के लिए भारत की दृष्टि से निकले चिंतन में से उपाय की अपेक्षा कर रहा है ।
हम सब की आशा और आश्वस्ति बढाने वाली बात यह है कि अपने देश में सर्वत्र तथा विशेषकर नई पीढ़ी में देशभक्ति की भावना अपने संस्कृति के प्रति आस्था व विश्वास का प्रमाण निरंतर बढ़ रहा है । संघ के स्वयंसेवकों सहित समाज में चल रही विविध धार्मिक, सामाजिक संस्थाएं तथा व्यक्ति समाज के अभावग्रस्त वर्गों की नि:स्वार्थ सेवा करने के लिए अधिकाधिक आगे आ रहे है, और इन सब बातों के कारण समाज का स्वयं सक्षम होना और स्वयं की पहल से अपने सामने की समस्याओं का समाधान करना व अभावों की पूर्ति करना बढ़ा है । संघ के स्वयंसेवकों का यह अनुभव है कि संघ और समाज के कार्यों में प्रत्यक्ष सहभागी होने की इच्छा समाज में बढ़ रही है । समाज के बुद्धिजीवियों में भी विश्व में प्रचलित विकास तथा लोकप्रबंधन के प्रतिमान के अतिरिक्त अपने देश के जीवन दृष्टि, प्रकृति तथा आवश्यकता के आधार पर अपना स्वतन्त्र और अलग प्रकार का कोई प्रतिमान कैसा हो सकता है इसकी खोज का चिंतन बढ़ा है ।
भारतीय चिन्तन दृष्टि
भारत का तथा विश्व का विचार भारतीय दृष्टि के आधार पर करने वाले हमारे सभी आधुनिक मनीषी, स्वामी विवेकानंद से लेकर तो महात्मा गांधीजी, दीनदयालजी उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया जी, ऐसे हमारे समाज का नेतृत्व करने वाले सभी महापुरुषों ने, उपरोक्त सभी समस्याओं का परामर्श करते हुए, एक समान दिशा का दिग्दर्शन किया है । आधुनिक विश्व के पास जो जीवन दृष्टि है वह पूर्णतः गलत नहीं, अधूरी है । इसलिए उसके चलते मानव का भौतिक विकास तो कुछ देशों और वर्गों के लिए आगे बढ़ा हुआ दिखता है । सबका नहीं । सबको छोडिये, अकेले भारत को अमेरिका जैसा तथाकथित समृद्ध और प्रगत भौतिक जीवन जीना है तो और पांच पृथ्वियों की आवश्यकता होगी ऐसा कुछ अभ्यासक कहते हैं । आज की इस प्रणाली से भौतिक विकास के साथ-साथ मानव का मानसिक व नैतिक विकास नहीं हुआ । इसलिए प्रगति के साथ-साथ ही मानव व सृष्टि के सामने नयी-नयी समस्याएँ प्राण संकट बन खड़ी हो रही हैं । इसका कारण – वही दृष्टि का अधूरापन !
हमारी सनातन, आध्यात्मिक, समग्र व एकात्म दृष्टि में मनुष्य के भौतिक विकास के साथ-साथ मन, बुद्धि तथा आध्यात्मिकता का विकास, व्यक्ति के साथ-साथ मानव समूह व सृष्टि का विकास, मनुष्य की आवश्यकताओं – इच्छाओं के अनुरूप आर्थिक स्थिति के साथ-साथ ही, उसके समूह और सृष्टि को लेकर कर्तव्य बुद्धि का तथा सब में अपनेपन के साक्षात्कार को अनुभव करने के स्वभाव का विकास करने की शक्ति है । क्योंकि हमारे पास सबको जोड़ने वाले तत्त्व का साक्षात्कार है । उसके आधार पर सहस्त्रों वर्षों तक इस विश्व में हमने एक सुंदर, समृद्ध और शांतिपूर्ण, परस्पर संबंधों को पहचानने वाला, मनुष्य और सृष्टि का सहयोगी जीवन प्रस्थापित किया था । उस हमारी समग्र तथा एकात्म दृष्टि के आधार पर, आज के विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए, आज विश्व जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, उनका शाश्वत निदान देने वाली एक नई रचना की विश्व को आवश्यकता है । अपने उदाहरण से उस रचना का अनुकरणीय प्रतिमान विश्व को देना यह कार्य नियति हम भारतवासियों से चाहती है ।
संघ का चिन्तन
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने कार्य के शतवर्ष पूर्ण कर चुका है । संघ में विचार व संस्कारों को प्राप्त कर समाज जीवन के विभिन्न आयामों में, विविध संगठनों में, संस्थाओं में, तथा स्थानीय स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक स्वयंसेवक सक्रिय हैं । समाज जीवन में सक्रिय अनेक सज्जनों के साथ भी स्वयंसेवकों का सहयोग व संवाद चलते रहता है । उन सबके संकलित अनुभव के आधार पर संघ के कुछ निरीक्षण व निष्कर्ष बने हैं ।
१) भारत वर्ष के उत्थान की प्रक्रिया गति पकड़ रही है । परन्तु अभी भी हम उसी नीति व व्यवस्था के दायरों में ही सोच रहे हैं जिस का अधूरापन उस नीति के जो परिणाम आज मिल रहे हैं उन से उजागर हो चुका है । यह बात सही है कि उन तरीकों पर विश्व के साथ हम भी इतना आगे पहले ही बढ़ गये हैं कि एकदम परिवर्तन करना संभव नहीं होगा । एक लम्बे वृत्त में धीरे-धीरे ही मुड़ना पड़ेगा । परन्तु हमारे सहित विश्व के सामने खड़ी समस्याओं तथा भविष्य के खतरों से बचने का दूसरा उपाय नहीं है । हमें अपनी समग्र व एकात्म दृष्टि के आधार पर अपना विकास पथ बनाकर, विश्व के सामने एक यशस्वी उदाहरण रखना पड़ेगा । अर्थ व काम के पीछे अंधी होकर भाग रही दुनिया को पूजा व रीति रिवाजों के परे, सबको जोड़ने वाले, सबको साथ में लेकर चलने वाले, सबकी एक साथ उन्नति करने वाले धर्म का मार्ग दिखाना ही होगा ।
२) संपूर्ण देश का ऐसा आदर्श चित्र विश्व के सामने खड़ा करने का काम केवल देश की व्यवस्थाओं का ही नहीं है । क्योंकि व्यवस्थाओं का अपने में परिवर्तन का सामर्थ्य व इच्छा, दोनों मर्यादित होती है । इन सब की प्रेरणा व इन सब का नियंत्रण समाज की प्रबल इच्छा से ही होता है । इसलिए व्यवस्था परिवर्तन के लिए समाज का प्रबोधन तथा उसके आचरण का परिवर्तन यह व्यवस्था परिवर्तन की पूर्वशर्तें हैं । समाज के आचरण में परिवर्तन भाषणों से या ग्रंथों से नहीं आता । समाज का व्यापक प्रबोधन करना पड़ता है तथा प्रबोधन करने वालों को स्वयं परिवर्तन का उदाहरण बनना पड़ता है । स्थान-स्थान पर ऐसे उदाहरण स्वरूप व्यक्ति, जो समाज के लिए उसके अपने हैं, उनके जीवन में पारदर्शिता है, नि:स्वार्थता है और जो संपूर्ण समाज को अपना मानकर समाज के साथ अपना नित्य व्यवहार करते हैं, समाज को उपलब्ध होने चाहिए । समाज में सबके साथ रहकर अपने उदाहरण से समाज को प्रेरणा देने वाला ऐसा स्थानीय सामाजिक नेतृत्व चाहिए । इसलिए व्यक्ति निर्माण से समाज परिवर्तन और समाज परिवर्तन से व्यवस्था परिवर्तन यह देश में और विश्व में परिवर्तन लाने का सही पथ है यह स्वयंसेवकों का अनुभव है ।
३) ऐसे व्यक्तियों के निर्माण की व्यवस्था भिन्न-भिन्न समाजों में सक्रिय रहती है । हमारे समाज में आक्रमण की लंबी अवधि में यह व्यवस्थाएँ ध्वस्त हो गईं । इसलिए इसकी युगानुकूल व्यवस्था घर में, शिक्षा पद्धति में व समाज के क्रियाकलापों में फिर से स्थापित करनी पड़ेगी । यह कार्य करने वाले व्यक्ति तैयार करने पड़ेंगे । मन बुद्धि से इस विचार को मानने के बाद भी उनको आचरण में लाने के लिए मन, वचन, कर्म, की आदत बदलनी पड़ती है, उसके लिए व्यवस्था चाहिए । संघ की शाखा वह व्यवस्था है । सौ वर्षों से सब प्रकार की परिस्थितियों में आग्रहपूर्वक इस व्यवस्था को संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा सतत चलाया गया है और आगे भी ऐसे ही चलाना है । इसलिए स्वयंसेवकों को नित्य शाखा के कार्यक्रमों को मन लगाकर करते हुए अपनी आदतों में परिवर्तन करने की साधना करनी पड़ती है । व्यक्तिगत सद्गुणों की तथा सामूहिकता की साधना करना तथा समाज के क्रियाकलापों में सहभागी, सहयोगी होते हुए समाज में सद्गुणों का व सामूहिकता का वातावरण निर्माण करने के लिए ही संघ की शाखा है ।
४) किसी भी देश के उत्थान में सबसे महत्वपूर्ण कारक उस देश के समाज की एकता है । हमारा देश विविधताओं का देश है । अनेक भाषाएँ अनेक पंथ, भौगोलिक विविधता के कारण रहन-सहन, खान-पान के अनेक प्रकार, जाति-उपजाति आदि विविधताएँ पहले से ही हैं । पिछले हजार वर्षों में भारतवर्ष की सीमा के बाहर के देशों से भी यहाँ पर कुछ विदेशी संप्रदाय आ गए । अब विदेशी तो चले गए लेकिन उन संप्रदायों को स्वीकार कर आज भी अनेक कारणों से उन्हीं पर चलने वाले हमारे ही बंधु भारत में विद्यमान हैं । भारत की परंपरा में इन सब का स्वागत और स्वीकार्य है । इनको हम अलगता की दृष्टि से नहीं देखते । हमारी विविधताओं को हम अपनी अपनी विशिष्टताएँ मानते हैं और अपनी-अपनी विशिष्टता पर गौरव करने का स्वभाव भी समझते हैं । परंतु यह विशिष्टताएँ भेद का कारण नहीं बननी चाहिए । अपनी सब विशिष्टताओं के बावजूद हम सब एक बडे समाज के अंग हैं । समाज, देश, संस्कृति तथा राष्ट्र के नाते हम एक हैं । यह हमारी बड़ी पहचान हमारे लिए सर्वोपरि है यह हमको सदैव ध्यान में रखना चाहिए । उसके चलते समाज में सबका आपस का व्यवहार सद्भावनापूर्ण व संयमपूर्ण रहना चाहिए । सब की अपनी-अपनी श्रद्धाएँ, महापुरुष तथा पूजा के स्थान होते हैं । मन, वचन, कर्म से आपस में इनकी अवमानना न हो इसका ध्यान रखना चाहिए । इसलिए प्रबोधन करने की आवश्यकता है । नियम पालन, व्यवस्था पालन करना व सद्भावपूर्वक व्यवहार करना यह इसीलिए अपना स्वभाव बनना चाहिये । छोटी-बड़ी बातों पर या केवल मन में संदेह है इसलिए, कानून हाथ में लेकर रास्तोंपर निकल आना, गुंडागर्दी, हिंसा करना यह प्रवृत्ति ठीक नहीं । मन में प्रतिक्रिया रखकर अथवा किसी समुदाय विशेष को उकसाने के लिए अपना शक्ति प्रदर्शन करना ऐसी घटनाओं को योजनापूर्वक कराया जाता है । उनके चंगुल में फ़सने का परिणाम, तात्कालिक और दीर्घकालिक, दोनों दृष्टी से ठीक नहीं है । इन प्रवृत्तियों की रोकथाम आवश्यक है । शासन-प्रशासन अपना काम बिना पक्षपात के तथा बिना किसी दबाव में आये, नियम के अनुसार करें। परन्तु समाज की सज्जन शक्ति व तरुण पीढ़ी को भी सजग व संगठित होना पडेगा, आवश्यकतानुसार हस्तक्षेप भी करना पड़ेगा।
५) हमारी इस एकता के आधार को डॉक्टर अंबेडकर साहब ने Inherent cultural unity (अन्तर्निहित सांस्कृतिक एकता) कहा है । भारतीय संस्कृति प्राचीन समय से चलती आई हुई भारत की विशेषता है । वह सर्व समावेशक है । सभी विविधताओं का सम्मान और स्वीकार करने की सीख देती है क्योंकि वह भारत के आध्यात्मिक सत्य तथा करुणा, शुचिता व तप के सदाचार पर यानी धर्म पर आधारित है । इस देश के पुत्र रूप हिंदू समाज ने इसे परंपरा से अपने आचरण में जतन किया है, इसलिए उसे हिंदू संस्कृति भी कहते हैं । प्राचीन भारत में ऋषियों ने अपने तपोबल से इस को नि:सृत किया । भारत के समृद्ध तथा सुरक्षित परिवेश के कारण उनसे यह कार्य हो पाया । हमारे पूर्वजों के परिश्रम, त्याग व बलिदानों के कारण यह संस्कृति फली-फूली व अक्षुण्ण रहकर आज हम तक पहुँची है । उस हमारी संस्कृति का आचरण, उसका आदर्श बनें हमारे पूर्वजों का मन में गौरव व कृति में विवेकपूर्ण अनुसरण तथा यह सब जिसके कारण संभव हुआ उस हमारे पवित्र मातृभूमि की भक्ति यह मिलकर हमारी राष्ट्रीयता हैं । विविधताओं के संपूर्ण स्वीकार व सम्मान के साथ हम सब को एक माल में मिलानेवाली यह हिन्दू राष्ट्रीयता ही हमें सदैव एक रखती आयी है । हमारी ‘Nation State’ जैसी कल्पना नहीं है । राज्य आते हैं और जाते हैं, राष्ट्र निरन्तर विद्यमान है । हम सब की एकता का यह आधार हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए ।
६) संपूर्ण हिंदू समाज का बल संपन्न, शील संपन्न संगठित स्वरूप इस देश के एकता, एकात्मता, विकास व सुरक्षा की गारंटी है । हिंदू समाज इस देश के लिए उत्तरदायी समाज है, हिंदू समाज सर्व-समावेशी है । ऊपर के अनेकविध नाम और रूपों को देखकर, अपने को अलग मानकर, मनुष्यों में बटवारा व अलगाव खडा करने वाली ‘हम और वे’ इस मानसिकता से मुक्त है और मुक्त रहेगा । ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की उदार विचारधारा का पुरस्कर्ता व संरक्षक हिंदू समाज है । इसलिए भारतवर्ष को वैभव संपन्न व संपूर्ण विश्व में अपना अपेक्षित व उचित योगदान देने वाला देश बनाना, यह हिंदू समाज का कर्तव्य बनता है । उसकी संगठित कार्य शक्ति के द्वारा, विश्व को नयी राह दे सकने वाले धर्म का संरक्षण करते हुए, भारत को वैभव संपन्न बनाना, यह संकल्प लेकर संघ सम्पूर्ण हिंदू समाज के संगठन का कार्य कर रहा है । संगठित समाज अपने सब कर्तव्य स्वयं के बलबूते पूरे कर लेता है । उसके लिए अलग से अन्य किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं रहती ।
७) उपरोक्त समाज का चित्र प्रत्यक्ष साकार होना है तो व्यक्तिओं में, समूहों में व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय चारित्र्य, दोनों के सुदृढ होने की आवश्यकता रहेगी । अपने राष्ट्र स्वरूप की स्पष्ट कल्पना व गौरव संघ की शाखा में प्राप्त होता है । नित्य शाखा में चलने वाले कार्यक्रमों से स्वयंसेवकों में व्यक्तित्व, कर्तृत्व, नेतृत्व, भक्ति व समझदारी का विकास होता है ।
इसलिए शताब्दि वर्ष में व्यक्ति निर्माण का कार्य देश में भौगोलिक दृष्टि से सर्वव्यापी हो तथा सामाजिक आचरण में सहज परिवर्तन लाने वाला पंच परिवर्तन कार्यक्रम स्वयंसेवकों के उदाहरण से समाजव्यापी बने यह संघ का प्रयास रहेगा । सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्व बोध तथा स्वदेशी व नियम, कानून, नागरिक अनुशासन व संविधान का पालन इन पांच विषयों में व्यक्ति व परिवार, कृतिरूप से स्वयं के आचरण में परिवर्तन लाने में सक्रिय हो तथा समाज में उनके उदाहरणों का अनुकरण हो ऐसा यह कार्यक्रम है । इसमें अंतर्भूत कृतियाँ आचरण के लिए सरल और सहज है । गत दो-तीन वर्षों में समय-समय पर संघ के कार्यक्रमों में इसका विस्तृत विवेचन हुआ है । संघ के स्वयंसेवकों के अतिरिक्त समाज में अनेक अन्य संगठन व व्यक्ति भी इन्ही प्रकार के कार्यक्रम चला रहे है । उन सब के साथ संघ के स्वयंसेवकों का सहयोग व समन्वय साधा जा रहा है।
विश्व के इतिहास में समय-समय पर भारत का महत्वपूर्ण अवदान, विश्व का खोया हुआ संतुलन वापस लाने वाला, विश्व के जीवन में संयम और मर्यादा का भान उत्पन्न करने वाला विश्व धर्म देना, यही रहा है । हमारे प्राचीन पूर्वजों ने भारत भूमि में निवास करने वाले विविधतापूर्ण समाज को संगठित कर एक राष्ट्र के रूप में इसी कर्तव्य के बारंबार आपूर्ति करने के साधन के नाते खड़ा किया था । हमारे स्वातंत्र्य संग्राम के तथा राष्ट्रीय नवोत्थान के पुरोधाओं के सामने स्वतन्त्र भारत की समृद्धि व क्षमताओं के विकास के मंगल परिणाम का यही चित्र था।
हमारे बंगाल प्रांत के पूर्ववर्ती संघचालक स्व. केशवचन्द्र चक्रवर्ती महाशय ने बहुत सुन्दर काव्य पंक्तियों में इसका वर्णन किया है–
बाली सिंघल जबद्वीपे
प्रांतर माझे उठे ।
कोतो मठ कोतो मन्दिर
कोतो प्रस्तरे फूल फोटे ।।
तादेर मुखेर मधुमय बानी
सुने थेमें जाय सब हानाहानी ।
अभ्युदयेर सभ्यता जागे
विश्वेर घरे-घरे ।।
(सिंहल और जावा-द्वीप तक भारतीय संस्कृति का प्रभाव फैला हुआ था । जगह-जगह मठ-मंदिर थे, जहाँ जीवन की सुगंध फूलों-सी बिखरती थी । भारत की मधुर और ज्ञानमयी वाणी सुनकर अन्य देशों में भी वैर-भाव और अशांति समाप्त हो जाती थी)
आइए, भारत का यही आत्मस्वरूप आज की देश-काल-परिस्थिति से सुसंगत शैली में फिरसे विश्व में खडा करना है । पूर्वज प्रदत्त इस कर्तव्य को, विश्व की आज की आवश्यकता को, पूर्ण करने के लिए हम सब मिलकर, साथ चलकर, अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर होने के लिए आज की विजयादशमी के मुहूर्त पर सीमोल्लंघन को संपन्न करें ।
|| भारत माता की जय ||
माननीय पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविन्द का श्रीविजयादशमी उत्सव में सम्बोधन
आप सभी को नमस्कार
- सबसे पहले, मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों तथा संघ परिवार के सभी संगठनों के सदस्यों सहित, देश-विदेश में बसे, भारत के सभी लोगों को विजयादशमी की हार्दिक बधाई देता हूं। यह सुखद संयोग है कि आज महात्मा गांधी तथा पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की जयंती भी है। मैं इन महापुरुषों की स्मृति को सादर नमन करता हूं।
- ‘श्रीविजयादशमी उत्सव’ का यह दिन, संघ का ‘शतक-पूर्ति-दिवस’ भी है। आज विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृति का संवहन करने वाली आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था का शताब्दी समारोह सम्पन्न हो रहा है।
- इस पावन अवसर पर, संघ तथा संघ परिवार के संगठनों को नेतृत्व प्रदान करने वाले वर्तमान और पूर्व के सभी महानुभावों के प्रति मैं गहन आदर व्यक्त करता हूं तथा सभी स्वयंसेवकों, कार्यकर्ताओं और सदस्यों के योगदान के लिए उनकी हार्दिक सराहना करता हूं।
- नागपुर की यह पवित्र धरती, आधुनिक भारत के विलक्षण निर्माताओं की पावन स्मृति से जुड़ी हुई है। उन राष्ट्र-निर्माताओं में ऐसे दो डॉक्टर भी हैं जिनका मेरे जीवन-निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वे दोनों महापुरुष हैं: डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार और डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर।
- बाबासाहब आंबेडकर के संविधान में निहित सामाजिक-न्याय की व्यवस्था के बल पर ही मेरी तरह सामान्य आर्थिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति, देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद तक पहुंच सका। डॉक्टर हेडगेवार के गहन विचारों से एक सामान्य व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को समझने का मेरा दृष्टिकोण स्पष्ट हुआ है। इन दोनों विभूतियों द्वारा निरूपित किए गए राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता के आदर्शों से मेरी जनसेवा की भावना अनुप्राणित रही है।
- नागपुर की इस यात्रा के दौरान मुझे श्रद्धेय बाबासाहब आंबेडकर की पवित्र दीक्षाभूमि तथा आद्य सर-संघचालक डॉक्टर हेडगेवार जी के पावन निवास स्थान का दर्शन करने का सौभाग्य मिला। श्रद्धेय डॉक्टर हेडगेवार जी एवं श्रद्धेय श्री गुरु जी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करके मैं स्वयं को कृतार्थ अनुभव कर रहा हूं।
- आज के दिन, मैं डॉक्टर हेडगेवार जी, श्री गुरु जी, श्री बालासाहब देवरस जी, श्री रज्जू भैया जी तथा श्री सुदर्शन जी के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। साथ ही मैं उन अनगिनत स्वयंसेवकों की स्मृति को सादर नमन करता हूं जिन्होंने पूर्ण समर्पण के साथ भारत माता की सेवा की है।
- डॉक्टर हेडगेवार जी ने संगठन का जो पौधा लगाया और बड़ा भी किया, उसे श्री गुरु जी ने प्रचुर विस्तार दिया तथा उसकी जड़ें मजबूत की। श्री बालासाहब देवरस जी ने संघ को पुष्पित-पल्लवित करते हुए, समरसता पर विशेष जोर दिया। रज्जू भैया जी ने स्वाधीनता के बाद के सबसे बड़े आर्थिक बदलाव और उससे होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के बीच संघ को मार्गदर्शन दिया। श्री सुदर्शन जी ने राजनीतिक संक्रमण के दौर में, सामाजिक और नैतिक बदलावों के बीच संघ के कार्य को आगे बढ़ाया। उनके कार्यकाल के बाद भी निरंतर आगे बढ़ता हुआ संघ, एक पवित्र और विशाल वटवृक्ष की तरह, अपनी जड़ों तथा शाखा-प्रशाखाओं के माध्यम से भारत के लोगों को एकता, गौरव और प्रगति की संजीवनी तथा छाया प्रदान कर रहा है। डॉक्टर मोहन भागवत जी, भारतीय परंपरा के अनुपम व्याख्याता होने के साथ-साथ आधुनिकता और संस्कारों का समन्वय करने वाले एक दूरदर्शी समाज-वैज्ञानिक भी हैं। उनके साथ हुई अपनी प्रत्येक भेंटवार्ता में मुझे उनकी राष्ट्र-निष्ठा, क्रियाशीलता और समावेशी व सृजनात्मक नेतृत्व के नए आयाम देखने को मिलते हैं।
- सभी सरसंघचालकों के नेतृत्व में संघ ने, न केवल समय की पुकार को सुना है, बल्कि आवश्यकतानुसार, समय की धारा को मोड़ा भी है।
- मुझ जैसे एक सामान्य स्वयंसेवक को इस ऐतिहासिक अवसर से जोड़ने के लिए मैं संघ का हृदय से आभार व्यक्त करता हूं।
देवियो और सज्जनो,
- अन्नदाता किसान से लेकर अन्तरिक्ष वैज्ञानिक तक, विद्यार्थी से लेकर व्यवसायी तक, जनजातीय समुदायों से लेकर स्वास्थ्य सेवकों तक, श्रमिकों से लेकर अधिवक्ताओं तक, पूर्व सैनिकों से लेकर कलासाधकों तक, बालकों से लेकर मातृशक्ति तक, अर्थात समाज के सभी लोगों को विभिन्न आयामों के माध्यम से जोड़ने का सत्कार्य संघ द्वारा निरंतर किया जा रहा है।
देवियो और सज्जनो,
- विजयादशमी-उत्सव के प्रति भारतीय जन-मानस का सदियों से चला आ रहा उत्साह यह सिद्ध करता है कि हमारे देशवासी धर्म और सत्य के हमेशा पक्षधर रहे हैं। मैं मानता हूं कि आद्य सरसंघचालक डॉक्टर हेडगेवार जी ने संघ के शुभारंभ के लिए सबसे शुभ दिन तो चुना ही, सबसे सार्थक दिन भी चुना।
- संघ की स्थापना के 50वें वर्ष में, आपातकाल की घोषणा के बाद, जून 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। संघ ने भूमिगत आंदोलन चलाते हुए आपातकाल का जो प्रभावी प्रतिरोध किया, वह वैश्विक चर्चा का विषय बना। पृथक विचारधाराओं वाले दलों और नेताओं ने भी संघ की प्रशंसा की। उन्हें लगता था कि कोई न कोई उच्च आदर्श अवश्य है, जो संघ के स्वयंसेवकों को ऐसे वीरोचित कार्यों के लिए प्रेरणा और त्याग हेतु अदम्य साहस प्रदान करता है। वर्ष 1948, 1975 तथा 1992 में संघ पर प्रतिबंध लगाए गए। प्रत्येक प्रतिबंध के बाद संघ ने, गंभीर चुनौतियों के बीच विस्तार और विकास किया तथा और अधिक मजबूत होकर उभरा।
- विश्व पटल पर वर्चस्व रखने वाले कितने ही संस्थान, विचारधाराएं, व्यक्तित्व और राष्ट्र, सौ वर्षों के कालप्रवाह में विलीन हो गए, यहां तक कि विस्मृत भी हो गए। लेकिन राष्ट्र-प्रेम और भारतीय आदर्शों की संजीवनी से विधिपूर्वक पोषण ग्रहण करते हुए, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जितना विशाल हुआ है उतना ही सशक्त भी हुआ है और जीवंत भी हुआ है। डॉक्टर हेडगेवार ने एक ऐसे संगठन का सृजन किया जिसकी सरल, सहज और प्रभावी विचार-धारा और कार्य पद्धति से उसे अनूठी प्राणशक्ति मिलती रही है। यद्धि संघ की कोई औपचारिक सदस्यता नहीं होती है, लेकिन संघ के स्वयंसेवकों जैसी निष्ठा भी कहीं नहीं दिखाई देती है।
देवियो और सज्जनो,
- संघ की विचारधारा तथा स्वयंसेवकों से मेरा प्रगाढ़ परिचय वर्ष 1991 के आम चुनाव के दौरान हुआ। कानपुर जिले के घाटमपुर लोकसभा चुनाव-क्षेत्र में भारतीय जनता पार्टी का मैं प्रत्याशी था। उस चुनाव अभियान के दौरान समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलने तथा उनके साथ कार्य करने का अवसर मुझे मिला। जिन सहयोगियों को मैंने सबसे सहज, निष्ठावान और जात-पात के भेद-भाव से पूरी तरह मुक्त पाया, वे संयोग से संघ पदाधिकारी और स्वयंसेवक ही थे। अभी भी, समाज के बहुत से लोगों को यह जानकारी नहीं है कि संघ में किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता और जातिगत भेद-भाव नहीं होता है। मैं समझता हूं कि समाज के अनेक वर्गों में संघ से जुड़ी निराधार भ्रांतियों को दूर करने की जरूरत है।
- इस संदर्भ में, वर्ष 2001 में लाल किले के परिसर में आयोजित ‘दलित संगम रैली’ का मैं उल्लेख करना चाहूंगा। उस समय मैं अनुसूचित जाति मोर्चा का राष्ट्रीय अध्यक्ष था। श्रद्धेय अटल जी प्रधानमंत्री थे। देश में बहुत से लोग संघ परिवार तथा अटल जी को दलित विरोधी होने का दुष्प्रचार करते रहे हैं। उस रैली को संबोधित करते हुए अटल जी ने उद्घोष किया था कि ‘हमारी सरकार दलितों, पिछड़ों और गरीबों की भलाई के लिए बनी है। … हमारी सरकार मनुस्मृति के आधार पर नहीं बल्कि ‘भीम स्मृति’ के आधार पर काम करेगी। ‘भीम स्मृति’ अर्थात ‘भारत का संविधान’। उन्होंने यह भी कहा कि हम भीमवादी हैं, अर्थात आंबेडकर-वादी हैं।’ अटल जी तथा संघ की विचारधारा के प्रति समाज के इस वर्ग में जो दुष्प्रचार प्रसारित किया जा रहा था, उसे दूर करने में उनके उस सम्बोधन की ऐतिहासिक भूमिका रही है। संघ वस्तुतः सामाजिक एकता और सुधार का प्रबल पक्षधर रहा है और इस दिशा में सदैव सक्रिय भी रहा है।
- पिछले कुछ वर्षों से मैं अपनी आत्मकथा लिखने का प्रयास कर रहा था, जिसे मैं हाल ही में सम्पन्न कर पाया हूं। उसे मैंने ‘Triumph of the Indian Republic: My Journey, My Struggles’ यह नाम दिया है। पूरी विनम्रता के साथ मैं यह कहना चाहता हूं कि मेरी जीवन-यात्रा और संघर्ष में जिन आदर्शों ने मुझे शक्ति व प्रेरणा दी है वे भारतीय संविधान और राष्ट्रीय जीवन मूल्यों पर आधारित हैं। मेरी जीवन-यात्रा में स्वयंसेवकों के साथ जुड़ाव तथा घनिष्ठता से मेरे जीवन-मूल्यों को कैसे दृढ़ता मिली, इनसे जुड़े प्रसंग भी मैंने अपनी आत्मकथा में शामिल किये हैं। मैं आशा करता हूँ कि इस वर्ष के अंत तक मेरी पुस्तक आप सभी पाठकों तक पहुंच जाएगी।
- मेरा सौभाग्य है कि संघ से जुड़ी महान विभूतियों से मुझे व्यक्तिगत मार्ग-दर्शन प्राप्त होता रहा। संघ के चतुर्थ सरसंघचालक आदरणीय रज्जू भैया जी ने मुझे जनसेवा और अध्यात्म की पद्धतियों से अवगत कराया। उन्हीं के सुझाव पर मैंने राज्यसभा सांसद के अपने कार्यकाल के दौरान विपस्सना ध्यान-पद्धति का अभ्यास शुरू किया। मैंने देखा है कि संघ के कार्यकर्ता, भारतीय परम्पराओं में निहित निरंतरता और एकता को महत्व देते हैं। श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने मेरी जीवन-यात्रा को मूल्य-आधारित राजनीति की तरफ मोड़ा और मैं राज्यसभा का सदस्य बना। माननीय नानाजी देशमुख से मिलने का सौभाग्य मुझे कई बार प्राप्त हुआ। उनकी प्रेरणा से संचालित ग्राम-विकास के अनेक प्रकल्पों को मैंने नजदीक से देखा और समझा है। राष्ट्रपति के अपने कार्यकाल में भी मुझे चित्रकूट जाकर उनके द्वारा किए गए व्यापक परिवर्तन को देखने का सौभाग्य मिला था। आदरणीय दत्तोपंत ठेंगड़ी जी से, श्रमिकों के कल्याण तथा समाज-सेवा की अमूल्य शिक्षा मुझे प्राप्त हुई।
- मुझे ‘डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध अधिष्ठान’ में अपनी सेवाएं प्रदान करने का सुअवसर भी मिला। वहां कार्य करते हुए, मुझे संघ की विचार-प्रक्रिया तथा वर्तमान परिदृश्य में संघ की भूमिका को और गहराई से समझने का सुयोग प्राप्त हुआ था।
देवियो और सज्जनो,
- मैंने अधिवक्ता, राज्यसभा सांसद, राज्यपाल और राष्ट्रपति के रूप में कर्तव्य-निर्वहन करते हुए, संवैधानिक मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। संवैधानिक मूल्यों को समझने में, संविधान के प्रमुख शिल्पी बाबासाहब आंबेडकर के विचार, दीप-स्तम्भ की तरह, मेरे दृष्टि-पथ को प्रकाशित करते रहे हैं। बाबासाहब ने संविधान की संरचना में राष्ट्रीय एकता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी थी। राष्ट्रवाद की भावना हमारे संविधान की धुरी है। मेरे पूर्ववर्ती राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने वर्ष 2018 में ‘संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष समापन समारोह’ में अपने सम्बोधन के दौरान कहा था कि भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा संवैधानिक राष्ट्रवाद यानी Constitutional Patriotism पर आधारित है। बाबासाहब भी कहा करते थे कि संविधान की व्यवस्था उपलब्ध हो जाने के बाद प्रत्येक समस्या का समाधान संविधान की व्यवस्था के अंतर्गत ही किया जाना चाहिए। इसी प्रकार, यह कहना सर्वथा तर्कसंगत, न्यायसंगत और भाव सम्मत है कि संविधान को अंगीकृत, अधिनिमित और आत्मार्पित करने के बाद अपने राष्ट्रीय आदर्शों के स्रोतों को हम अपने संविधान में ही देखें।
- 25 नवंबर, 1949 को बाबासाहब ने संविधान सभा में दिए गए अपने ऐतिहासिक सम्बोधन में कुछ चिंताएं व्यक्त की थीं जो मुझे संघ की चिंताओं और चिंतन में भी दिखाई पड़ती हैं। बाबासाहब ने अपनी इतिहास-दृष्टि से जो सामाजिक कमजोरी संविधान-सभा के सामने प्रस्तुत की थी उसे एक अंग्रेजी कहावत में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है: “United, we stand. Divided, we fall.” यानी जहां एकता है, वहां अस्मिता है। जहां विभाजन है, वहां पतन है। डॉक्टर हेडगेवार भी कहते थे कि विदेशियों ने हमें प्रताड़ित करने के लिए हमारे ही भाइयों के हाथों में लाठी पकड़ा दी। हम असंगठित और विभाजित रहे।
- 1925 में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एकता और संगठन का प्रतिरूप बना। आज हजारों शाखाओं में लाखों स्वयंसेवक व्यक्ति निर्माण, चरित्र निर्माण, समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य के साथ निरंतर आगे बढ़ रहे हैं।
देवियो और सज्जनो,
- स्वाधीनता के पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य में सांप्रदायिक विभाजन की भावना को भड़काने वाले अनेक तत्व सक्रिय थे। लोगों में सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर राष्ट्र-प्रेम को प्राथमिकता देने का संदेश प्रसारित करने के लिए बाबासाहब के समकालीन, अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों का मानना था कि जनता के बीच हम सबको यह कहना चाहिए कि सबसे पहले हम भारतीय हैं उसके बाद ही हम हिन्दू, मुसलमान, सिख या ईसाई हैं। परन्तु भारतीयता के बारे में बाबासाहब की सोच कहीं अधिक व्यापक थी। वे कहा करते थे कि जनता के बीच हमें यह कहना चाहिए कि हम ‘पहले भी भारतीय हैं, बाद में भी भारतीय हैं और अंत में भी भारतीय हैं’।
देवियो और सज्जनो,
- मैं मानता हूं कि प्रत्येक भारतीय को संघ के एकात्मता स्तोत्र को अवश्य पढ़ना चाहिए। इस स्तोत्र में, भारतीय इतिहास, भूगोल, संस्कृति, जीवन-मूल्यों और सामाजिक समावेश तथा समरसता की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति विद्यमान है।
- एकात्मता-स्तोत्र में महर्षि वाल्मीकि, एकलव्य, संत रविदास, संत कबीर, संत तुकाराम, भगवान बिरसा मुंडा, महात्मा फुले, श्री नारायण गुरु, बाबासाहब भीमराव आंबेडकर आदि प्रातः स्मरणीय विभूतियों का नामोल्लेख संघ की सर्व-समावेशी समाज-दृष्टि का प्रमाण है। परंतु यह जानकारी हमारे समाज के बहुत से लोगों तक नहीं पहुंची है। मैं चाहूंगा कि social-media और digital-technology सहित, हर संभव माध्यम का उपयोग करके, सामाजिक समावेश का संघ द्वारा प्रसारित यह संदेश जन-जन तक पहुंचे।
- भेदभाव-रहित भारतीय समाज की परिकल्पना को व्यक्त करते हुए केरल की महान आध्यात्मिक विभूति, समाज सुधारक और कवि श्रीनारायण गुरु ने कहा है:
“जाति-भेदम् मत-द्वेषम् एदुम्-इल्लादे सर्वरुम्
सोद-रत्वेन वाडुन्न मात्रुका-स्थान मानित”
अर्थात, एक आदर्श स्थान वह है जहां जाति और पंथ के भेदभाव से मुक्त होकर सभी लोग भाई-भाई की तरह रहते हैं।
सभी देशवासियों को यह जानना चाहिए कि संघ के एकात्मता-स्तोत्र में श्रीनारायण गुरु जी का संघ के लाखों स्वयंसेवकों द्वारा नित्य स्मरण किया जाता है।
- इस एकात्मता-स्तोत्र का एक श्लोक महिला विभूतियों को भी समर्पित है। आप सब तो उस श्लोक को जानते ही हैं। मैं अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के लिए वह श्लोक दोहराता हूं:
अरुंधती अनसूया च सावित्री जानकी सती,
द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा,
लक्ष्मीः अहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा,
निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृ देवता।
- इस श्लोक में भगिनी निवेदिता का उल्लेख अत्यंत महत्वपूर्ण है। भगिनी निवेदिता ने आज से ठीक 123 वर्ष पहले, 2 अक्तूबर को ही मुंबई में ‘हिन्दू महिला सोशल क्लब’ को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण भाषण दिया था। उन्होंने भारत की बहनों से अनुरोध किया था कि वे भारतीय परिवार-परंपरा में विद्यमान आदरपूर्ण विनम्रता, सुदृढ़ स्नेह-बंधन, बुजुर्गों द्वारा बच्चों का दूरदर्शी संरक्षण तथा बच्चों में आदरभाव और कर्तव्य-परायणता के जीवन मूल्यों को बचाए रखें। पंच-परिवर्तन अभियान के तहत ‘कुटुंब-प्रबोधन’ का संघ का वर्तमान प्रयास अत्यंत सराहनीय है। पारिवारिक मान्यताओं को अपनाने, परिवार को व्यक्तित्व-निर्माण का आधार बनाने तथा परंपरा और संस्कारों की शक्ति को घर-परिवार में जगाने का महत्व आज के nuclear family तथा digital-age के संदर्भ में और अधिक बढ़ गया है।
- महिलाएं हमारी परिवार-व्यवस्था में बराबर की सहभागी हैं। संघ की विकास यात्रा में भी यह तथ्य परिलक्षित होता है। आज से लगभग 90 वर्ष पहले 25 अक्तूबर 1936 को विजयादशमी के ही दिन संघ द्वारा ‘राष्ट्र-सेविका समिति’ की स्थापना की गयी थी। संघ की मान्यता के अनुसार, मातृ-शक्ति का दायित्व है कि वे परिवार निर्माण के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का निर्माण भी करें। अतीत में भी मातृ-शक्ति द्वारा ऐसा योगदान किया जाता रहा है। जीजामाता, अहिल्याबाई होलकर, रानी अब्बक्का, रानी चेन्नम्मा, लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, अवन्ती-बाई लोधी, सावित्री बाई फुले, लक्ष्मीबाई केलकर, विजयाराजे सिंधिया और सुषमा स्वराज जैसी महिला विभूतियों ने अपने त्याग, शौर्य और नेतृत्व से राष्ट्र-निर्माण को अमूल्य योगदान दिया है।
देवियो और सज्जनो,
- सामाजिक समरसता को पंच-परिवर्तन अभियान में पहला स्थान दिया गया है। सामाजिक समानता और एकता संघ की पहचान है। ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक शवदाह-स्थल’ जैसे प्रयासों से, विभाजक प्रवृत्तियों को दूर किया जा रहा है। यह प्रसन्नता की बात है कि समरसता की भावना के साथ समाज-सेवा तथा समाज-परिवर्तन के अनेक प्रकल्प संघ द्वारा चलाये जाते हैं। देश भर में, संघ के स्वयंसेवकों के द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और जन-जागरण के लिए गरीब बस्तियों में किया जा रहा कार्य विशेष रूप से सराहनीय है।
- संघ में व्याप्त समरसता, समानता और जाति भेद से पूरी तरह मुक्त व्यवहार को देखकर महात्मा गांधी भी बहुत प्रभावित हुए थे जिसका विस्तृत विवरण सम्पूर्ण गांधी वांड्मय में मिलता है। गांधीजी ने 16 सितंबर 1947 को दिल्ली में आयोजित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रैली को संबोधित किया था और कहा था कि वे बरसों पहले संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के जीवनकाल में संघ के एक शिविर में गए थे। गांधीजी संघ के शिविर में अनुशासन, सादगी और छूआछूत की पूर्ण समाप्ति को देखकर अत्यंत प्रभावित हुए थे। जनवरी 1940 में बाबासाहब आंबेडकर द्वारा महाराष्ट्र के सातारा जिले के कराड़ नगर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाकर लोगों से मिलने का तथा अपनेपन की भावना व्यक्त करने और सहायता का प्रस्ताव देने का उल्लेख, संघ के समरसतापूर्ण दर्शन एवं व्यवहार शैली का ऐतिहासिक प्रमाण है। मराठी भाषा में प्रकाशित होने वाले ‘केसरी’ समाचार पत्र को उस समय राष्ट्रीय समाचार पत्र का दर्जा प्राप्त था। 9 जनवरी 1940 के केसरी समाचार पत्र में बाबासाहब के एक महत्वपूर्ण वक्तव्य को उद्धृत किया गया है। बाबासाहब ने कहा था ‘कुछ बातों में मतभेद होने पर भी मैं इस संघ की ओर अपनेपन से देखता हूं।’ बाबासाहब के अपने साप्ताहिक पत्र ‘जनता’ में भी यह समाचार छपा था कि कराड़ म्युनिसिपलिटी के एक समारोह में भाग लेने के बाद बाबासाहब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोगों से मिले और आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करने का आश्वासन दिया।
देवियो और सज्जनो,
- आर्थिक आत्म-निर्भरता तथा स्वदेशी को प्रोत्साहन देना, संघ की प्राथमिकता रही है। यह प्राथमिकता आज के वैश्विक संदर्भ में और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है। संघ के पंच-परिवर्तन के कार्यों में शामिल ‘स्व’ का बोध और स्वदेशी व्यवहार तथा आत्म-निर्भरता मूलतः एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
- संघ द्वारा भारतीय मूल्यों तथा सादगी पर आधारित पर्यावरण-पूरक जीवन-शैली पर सदैव जोर दिया जाता है। परंपरागत भारतीय जीवन-शैली, प्रकृति का सम्मान करने की भावना पर आधारित रही है। मुझे विश्वास है कि संघ के शताब्दी वर्ष के दौरान पंच-परिवर्तन कार्यों में शामिल किया गया ‘पर्यावरण संरक्षण’ का अभियान प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण जीवनशैली के प्रसार में सहायक सिद्ध होगा। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकालवृष्टि, अप्रत्याशित हिमपात, तापमान में अत्यधिक वृद्धि से पशु-पक्षियों और मनुष्यों की मृत्यु जैसे प्राकृतिक प्रकोप पिछले कुछ वर्षों के दौरान बढ़े हैं। व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, संगठनात्मक और राष्ट्रीय प्रयासों के बल पर पर्यावरण संतुलन को स्थापित करने की दिशा में हम सबको और आगे बढ़ना है।
देवियो और सज्जनो,
- युवाओं की ऊर्जा को सही दिशा प्रदान करना देश के सुदृद भविष्य के लिए अनिवार्य है। यह बात उत्साहित करती है कि आज संघ के प्रति युवाओं में आकर्षण बढ़ रहा है। युवाओं में ईमानदारी, विनम्रता, प्रामाणिकता और सकारात्मक दृष्टिकोण के जीवन-मूल्यों को प्रसारित करने में संघ परिवार बहुत बड़ा योगदान दे सकता है। सभी सम्बद्ध संगठनों को एकजुट होकर योग-युक्त तथा नशा-मुक्त युवा पीढ़ियों का निर्माण करना है।
- मैं युवाओं से अनुरोध करूंगा कि वे जन-सेवा में बढ़-चढ़कर भागीदारी करें। नैतिक मूल्यों पर आधारित राजनीति में भागीदारी करना जन-सेवा का प्रभावी माध्यम है। किसी विचारक ने ठीक ही कहा है कि राजनीति से परहेज करने की गलती करके, समाज के अच्छे लोग अपने ऊपर कम योग्य व्यक्तियों के शासन का भार ढोना स्वीकार कर लेते हैं। जन-सेवा की भावना से प्रेरित होकर तथा संकीर्ण निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर राजनीति में सक्रिय होना युवाओं के हित में भी है, तथा समाज और राष्ट्र के हित में भी है।
- मैं समाज के सभी लोगों से, विशेषकर युवाओं से, यह कहना चाहता हूं कि आपकी जो भी उपलब्धियां हैं उनका बहुत बड़ा श्रेय परिवार के अलावा, समाज और देश को जाता है। यह समाज और देश का आपके ऊपर ऋण है। इसे चुकाने के लिए आपको हर तरह से तैयार रहना चाहिए। जो लोग विकास यात्रा में पीछे रह गए हैं उनका हाथ पकड़कर उन्हें अपने साथ ले चलना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। संघ द्वारा चलाए जा रहे पंच-परिवर्तन कार्यों में ‘नागरिक कर्तव्य’ भी शामिल है। हम भारत के लोगों ने, सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक संकल्प लिया है। अंत्योदय की भावना और लक्ष्य के साथ कार्य करके हम अपने नागरिक कर्तव्यों को ठीक से निभा सकेंगे। मैं संघ की शाखाओं में प्रायः गाए जाने वाले एक अत्यंत लोकप्रिय गीत के माध्यम से अपनी बात कहना चाहूंगा। लाखों स्वयंसेवक इस गीत को भली-भांति जानते हैं। फिर भी, यह पंक्ति मैं दोहराना चाहूंगाः
देश हमें देता है सब कुछ,
हम भी तो कुछ देना सीखें।
देवियो और सज्जनो,
- संघ की कार्यशैली व्यक्ति-निष्ठ न होकर संगठन-निष्ठ और तत्त्व-निष्ठ है। यही संघ की शक्ति है। पिछले सौ वर्षों के दौरान संघ द्वारा समरस, और संगठित व समावेशी समाज तथा सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण हेतु भगीरथ प्रयास किए गए हैं। संघ ने संत-परंपरा, सज्जन-शक्ति और मातृ-शक्ति के योगदान से हमारे समाज और राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोया है। नई पद्धतियों और technology को अपनाते हुए, संघ के कार्यों को और तेज गति से आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। मैं आशा करता हूं कि भविष्य में संघ का और अधिक विस्तार होगा। जमीनी स्तर पर सामाजिक समरसता एवं सामाजिक न्याय के पक्षधर रहे संघ के स्वयंसेवक, गरीबों और वंचितों को न्याय दिलाने में और अधिक सक्रियता तथा दृढ़ता के साथ कार्य करेंगे।
- मुझे विश्वास है कि वर्ष 2047 तक विकसित भारत तथा पूर्णतः समरस और एकात्म भारत के निर्माण में संघ का असीम योगदान रहेगा। मैं पुनः आप सभी को विजयादशमी के पावन पर्व की बधाई देते हुए अपनी बात समाप्त करता हूं।
धन्यवाद !
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