डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी

डॉ केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में प्रतिपदा के दिन हुआ था। वर्ष प्रतिपदा को महाराष्ट्र में  ‘गुड़ीपड़वा’ के नाम से जाना जाता है। ‘यह दिन हिंदू मन, हृदय और विवेक को भारत के इतिहास के घटनाचक्र, राष्ट्र की अस्मिता, सांस्कृतिक परंपराओं एवं वीर तथा वैभवशाली पूर्वजों की विरासत का यशस्वी बोध कराता है’।[1]

डॉक्टर साहब स्वभाव से अजातशत्रु थे। उनके विरोधी भी उनके चरित्र पर कोई  छींटाकशी नहीं कर सकते थे। उनका इस बात पर बड़ा जोर रहता था कि कार्यकर्ता का चरित्र बिल्कुल साफ होना चाहिए। चरित्र के बारे में उन्होंने कभी भी ढिलाई नहीं बरती है। व्यक्तियों में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण उनके जीवन का पहला काम था, किंतु मनुष्य इसकी सीख किसी के बोलने भर से नहीं बल्कि उसके स्वयं चरित्र को देखकर लेता है। इसके लिए डॉक्टर साहब का चलता फिरता उदाहरण स्वयंसेवकों के सामने रहता था। उनके नेतृत्व की विशेषता यह थी कि जितने उनके पास जाओ उतने ही वे महान लगते थे, इससे उनका आकर्षण बढ़ता जाता था। एक मोहक मधुरता उनके साथ रहने में थी। साथ ही उनमें न तो बड़प्पन की भावना थी और न ही अनावश्यक शिष्टाचार।

डॉक्टर जी की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता थी हिन्दू धर्म संस्कृति में दृढ़-मूल उनका स्वयं प्रतिभत्व। संघ की कार्यपद्धति में इसका दर्शन हमें होता है। यह कार्यपद्धति न किसी पश्चिमी कार्यपद्धति की नकल है, न किसी भारतीय संस्था तथा दल की कार्यपद्धति की।

यह सर्वविदित है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर का विदर्भ मध्य प्रदेश का दौरा डॉक्टर जी ने ही आयोजित किया था। डॉक्टर जी की इन भूमिकाओं का अन्वयार्थ जो नहीं समझ सकते उनका बालासाहब के विजयदशमी भाषण का अन्वयार्थ समझने में असमर्थ होना स्वाभाविक है।[2]

आचार्य अत्रे डॉक्टर साहब के स्वभाव के गुणों को बताते हुए एक प्रसंग का जिक्र करते हैं जिसमें वह बताते हैं कि डॉक्टर साहब जैसे नेता उनके घर आने वाले हैं इस बात का पहले उनके मन पर बड़ा दबाव था। पर जब वे सामने आए तो उनका बोलना चलना देखकर वह दबाव एकदम दूर हो गया और ऐसा लगा जैसे परिवार के ही कोई बड़े व्यक्ति घर में घूम रहे हैं। अपनी सादगी, प्रसन्नता, स्नेहशीलता और सहज रूप से घुलमिल जाने की आदत के कारण डॉक्टर साहब कहीं भी अनचाहे नहीं हुए। डॉ साहब स्वयंसेवकों में भी यही गुण देखना चाहते थे।

डॉ. हेडगेवार : देशभक्ति जीवन का स्वर

डॉक्टर हेडगेवार जी के जीवन में बचपन से ही हमेशा कर्म के रूप में देशभक्ति का भाव बिना किसी समय छूटे बना रहा, जिससे उनका जीवन हमेशा प्रकाशित होता रहा। जब वे नागपुर के नील सिटी हाई स्कूल में पढ़ रहे थे तब अंग्रेज सरकार ने बदनाम रिस्ले सर्क्युलर जारी किया। इस आदेश के द्वारा अंग्रेज सरकार विद्यार्थियों को स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रखना चाहती थी। नेतृत्व का गुण केशवराव में विद्यार्थी जीवन से ही था। विद्यालय की जांच के दौरान डॉक्टर हेडगेवार ने हर एक कक्षा के विद्यार्थियों द्वारा जांच करने वालों का स्वागत वंदे मातरम से करवाया। विद्यालय में खलबली मच गई मामला फैल गया और अंत में सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त विद्यालय से उन्हें निकाल दिया गया। फिर यवतमाल की राष्ट्रीय शाला में उन्होंने मैट्रिक की पढ़ाई की किंतु परीक्षा देने से पहले ही वह विद्यालय भी अंग्रेज सरकार द्वारा बंद कर दिया गया। अब परीक्षा देने उन्हें अमरावती जाना पड़ा। जब कोई राष्ट्र गुलाम होता है तब देशभक्ति की भावना रखने वाले हृदय बहुत ही भावुक हो जाते हैं।

केशव निडर और साहसी थे तथा देश के लिए किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार थे। अपने लिए पैसा, सम्मान, ख्याति और आराम आदि किसी बात की इच्छा उनके मन में कभी पैदा नहीं हुई। उन्होंने सन 1910 में कोलकाता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में डाक्टरी की पढ़ाई के लिए दाखिला लिया ताकि बंगाल के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित हो और वैसा ही कार्य विदर्भ में भी कर सके। वहां पुलिनबिहारी दास के नेतृत्व में ‘अनुशीलन समिति’ नाम की क्रांतिकारियों की एक टोली काम कर रही थी। इस समिति के साथ केशवराव गहरा संबंध जोड़कर बहुत मजबूती से जुड़ गए।[3]

डॉ. हेडगेवार का क्रांतिकारी जीवन

माध्यमिक परीक्षा के बाद हेडगेवार जी का संपूर्ण समय क्रांतिकारियों के बीच ही बीतने लगा था। जब बंगाल से एक क्रांतिकारी माधवदास सन्यासी नागपुर आए तब केशव को ही उन्हें भूमिगत रखने की जिम्मेदारी सौंप गई थी। वह 6 महीने तक नागपुर एवं आसपास के क्षेत्र में रहकर बाद में जापान गए थे। अलीपुर बम केश में फंसे क्रांतिकारियों के बचाव के लिए भी मध्यप्रांत में धन संग्रह हुआ था और केशव पर नागपुर की जिम्मेदारी थी।

कलकत्ता देश के क्रांतिकारियों के लिए काशी के समान माना जाता था। केशव के मन में भी कलकत्ता जाकर क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ने की अभिलाषा थी। उन पर सी.आई.डी. एवं पुलिस की निरंतर निगरानी थी। अतः अध्ययन की आड़ में ही वह जाते, सौभाग्य से माध्यमिक परीक्षा में वह अपेक्षित अंक प्राप्त करके द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। पढ़ाई में उनकी रुचि विज्ञान के क्षेत्र में थी। माध्यमिक परीक्षा के बाद केशव ने एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक का काम करके धनोपार्जन अवश्य किया था परंतु कलकत्ता जैसे महंगे शहर में रहने के लिए इससे कहीं अधिक धन की आवश्यकता थी। उनकी निष्ठा एवं श्रेष्ठता ने प्रांत के तिलकवादी नेताओं का दिल जीत लिया था। वे सब उनके भविष्य के बारे में विचार मंथन में स्वतः ही लग गए थे। केशव ने बचपन में अब तक अपनी इच्छा, कठिनाई अथवा कष्ट के बारे में कभी किसी के आगे जिक्र भी नहीं किया था। डॉ. मुंजे एवं उनके सहयोगी उनके इस स्वभाव से बहुत अच्छी तरह परिचित हो चुके थे। सबने मिलकर कलकत्ता में नेशनल मेडिकल कॉलेज में उनका नाम लिखवाने और वहां लॉज में रहकर अध्ययन एवं अपेक्षित क्रांतिकारी गतिविधियाँ करने की व्यवस्था की। रामलाल वाजपेयी ने अपने जीवन चरित्र में इस घटना का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उनको कलकत्ता भेजने का असली मकसद क्रांतिकारी संगठन संबंधी जानकारी प्राप्त करना एवं मध्यप्रांत और बंगाल के बीच सेतु का काम करना था। उन्होंने लिखा है कि श्री केशव हेडगेवार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक को श्री दाजी साहब बुटी की कुछ आर्थिक मदद दिलाकर शिक्षा की अपेक्षा पुलिन बिहारी दास के हाथ के नीचे क्रांति एवं संगठन के लिए भेजा गया था। उनके रहने की व्यवस्था कलकत्ता के प्रेम गुजराल मार्ग पर स्थित शांतिनिकेतन में की गई थी।

नेशनल मेडिकल कॉलेज में देशभर से छात्र आते थे और इसका अखिल भारतीय चरित्र था। केशव के साथ अनेक मराठा छात्र वहां पढ़ने गए थे। नारायणराव सावरकर और आठवले आदि केशव जी के मित्रों में से थे।

डॉक्टर साहब जब कलकत्ता पहुँचे थे तो उस दौरान क्रांतिकारी पर अंग्रेजी दमन का दौर चल रहा था। सरकार राष्ट्रद्रोही सभा अधिनियम, 1907, आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1908 और इंडियन प्रेस एक्ट, 1910 के द्वारा क्रांतिकारी पत्रों, संगठनों एवं व्यक्तियों को दंडित करने, प्रतिबंधित करने एवं उन पर मुकदमा चलाने का कार्य कर रही थी। क्रांतिकारी संगठनों को जिनमें बांधव बर्ती, अनुशीलन साधना समिति, आत्मोन्नति समिति प्रमुख थे, को गैर कानूनी घोषित करके सरकार उनके संचालकों एवं कार्यकर्ताओं की धर-पकड़ करने में लगी हुई थी। ऐसे प्रतिबंधित संगठनों की संख्या लगभग 50 थी अनुशीलन समिति जिसकी स्थापना 1901 में की गई थी, पूरे बंगाल में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं संगठित क्रांतिकारी संस्था मानी जाती थी। इसके संस्थापक पी. मित्रा थे। बंगाल के सभी प्रसिद्ध क्रांतिकारी इससे जुड़े हुए थे। इसमें अरविंद घोष, विपिन चंद्र पाल, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, नलिनीकिशोर गुह, प्रतुल गांगुली, जोगेश चंद्र चटर्जी आदि नाम उल्लेखनीय हैं।

हेडगेवार कलकत्ता पहुंचते ही अनुशीलन समिति से जुड़ गए। चक्रवर्ती ने लिखा है कि “जब हेडगेवार नेशनल मेडिकल के छात्र थे, तब बंगाल में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक बंगलार विप्लववाद के लेखक नलिनीकिशोर गुह भी वहां पढ़ रहे थे। गुह ने ही हेडगेवार, नारायणराव सावरकर एवं अन्य छात्रों को समिति में प्रवेश दिलवाया था”।[4]

हेडगेवार ने जल्दी ही समिति में अपना विश्वसनीय स्थान बना लिया था। उनका लॉज धीरे-धीरे क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बन गया था। भूमिगत अवस्था में श्याम सुंदर चक्रवर्ती यहां यदा-कथा आया करते थे तो नलिनीकिशोर गुह सहित अनेक क्रांतिकारियों के ठहरने, छिपने, शस्त्रों को सुरक्षित रखने का स्थान भी बन गया था।

गुह ने डॉक्टर साहब की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि ‘हेडगेवार सच्चे अर्थों में आदर्श क्रांतिकारी थे। समिति के सदस्यों के बीच यह रचनात्मक सोच एवं काम के लिए जाने जाते थे’।  क्रांतिकारियों के बीच हेडगेवार का छद्म नाम ‘कोकेन’था और वह शस्त्रों के लिए एनाटॉमी शब्द का प्रयोग करते थे। समिति की प्रतिज्ञा थी कि समिति के अंदर की बात को इसके सदस्य कभी भी किसी को प्रकट नहीं करेंगे। अति गोपनीयता ऐसे कामों का आधार होता था। हेडगेवार की समिति के अंदर क्या भूमिका थी इस पर ठोस सामग्री का अभाव है परंतु इस समिति से जुड़े सभी प्रमुख क्रांतिकारियों ने उनकी भूमिका को सम्माननीय एवं उच्च स्तर का बताया है। जेल के 24 वर्ष व्यतीत करने वाले जोगेश चंद्र चटर्जी ने भी अपनी पुस्तक में उनकी अहम भूमिका को स्वीकार किया है। अपने 5 वर्षों के कलकत्ता प्रवास में हेडगेवार वहां के राष्ट्रवादी नेताओं एवं क्रांतिकारी के बीच लोकप्रिय व्यक्ति के रूप में उभर कर सामने आए थे।

श्यामसुंदर चक्रवर्ती का डॉक्टर साहब के प्रति अगाध प्रेम था। डॉक्टर हेडगेवार का उनके घर आना जाना अक्सर लगा रहता था। अन्य क्रांतिकारियों की तरह ही चक्रवर्ती जी की आर्थिक हालात दयनीय थे। उनकी पुत्री के विवाह में उत्पन्न आर्थिक संकट को दूर करने में हेडगेवार जी ने काफी तत्परता दिखाई थी। उन्होंने धन संग्रह करके उन्हें अर्पित किया था। दूसरे प्रमुख राष्ट्रवादी मौलवी लियाकत हुसैन द्वारा आयोजित सभाओं, प्रभात फेरियों में हेडगेवार अवश्य जाते थे। दोनों के बीच प्रगाढ़ता का ही परिणाम था कि हेडगेवार के निवेदन पर हुसैन ने ‘फैज कैप’ पहनना बंद करके गांधी टोपी पहनाना शुरू कर दिया था।

हेडगेवार जी, मोतीलाल घोष, डॉ आशुतोष मुखर्जी जैसे लोगों के निकट रहे और रासबिहारी बोस तथा विपिनचंद्र पाल से भी उनका गहरा परिचय हुआ। हरदास ने उनके चरित्र पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि “हेडगेवार ने अपने सात्विक चरित्र प्रतिबद्धता और साधारण संगठन कौशल से नौजवान क्रांतिकारियों का दिल जीत लिया था और उनके प्रति भक्ति भाव रखने वाले देशभक्तों की एक बड़ी जमात थी।”[5]

हेडगेवार बंगाल एवं मध्यप्रांत की क्रांतिकारी गतिविधियों के बीच एक कड़ी का काम कर रहे थे। सन 1910 से 1915 के बीच बड़ी मात्रा में पिस्टल एवं अन्य शस्त्र बंगाल से मध्य प्रांत भेजे गए थे। हेडगेवार जी जब भी नागपुर आते थे तब अपने साथ छिपाकर शस्त्र लाया करते थे।

मध्यप्रांत की सरकार ने 1912 में इस तथ्य को स्वीकार किया कि नागपुर के आंदोलनकारी बंगाल के क्रांतिकारियों से जुड़े हुए हैं। हेडगेवार पर कड़ी निगरानी रखने के लिए गोपाल वासुदेव केतकर को मध्य प्रांत से कलकत्ता भेजा गया था, वह एक सरकारी जासूस था।

डॉक्टर साहब तनाव के कितने ही प्रसंगों पर अन्य का विरोध करने के लिए खुद को आगे कर देते थे। उनका कहना था कि जीवित समाज वही है जिसमें माताओं- बहनों और मानबिंदुओं की स्वाभाविक रूप से रक्षा होती है। समाज में ऐसे ही जीवंतता लाने के लिए संघ के कार्यकर्ता जुटे हुए हैं। हिंदू समाज जैसे-जैसे जागृत होकर स्वाभिमान के साथ खड़ा होगा वैसे-वैसे संघर्ष के अवसर अधिक आएंगे क्योंकि हिंदुओं की तेजस्विता देखने की अन्य लोगों को आदत नहीं है। अब तक तो उन्होंने संघर्ष के अवसरों पर डरपोक नेता और घर में घुसकर दरवाजे बंद कर लेने वाली जनता ही देखी थी किंतु अब चित्र बदल गया है। संघ के कार्यकर्ता समाज के जागरूक घटक के नाते उसका साहस जगाते हैं। यह उनके ‘वीरव्रत’ के अनुरूप ही है।

डॉक्टर साहब कोलकाता के मेडिकल कॉलेज में 5 वर्ष तक पढ़ाई पूरी करने के पश्चात डॉक्टर बन गए। इन पांच साल में जो कुछ भी किया उसे कभी-कभी बोला नहीं पर यह तो सर्वविदित है कि अलग-अलग क्षेत्र में काम करने वाले नेताओं का डॉक्टर साहब को स्नेह मिला। उनकी अलग-अलग क्रांतिकारियों से अलग-अलग स्थान पर दोस्ती बढ़ी और उन सभी के हथियारों को इधर से उधर चुपचाप पहुंचने में उन्होंने बहुत ही सावधानी संयम और योजना पूर्वक तरीके से काम किया। इस काम में उन्हें कभी प्रदेश और भाषा के रूप में कोई बाधा नहीं आई। बांग्ला भाषा उन्होंने अच्छी तरह से सीख ली थी और अनेक लोगों से दोस्ती भी कर ली थी। बाढ़ और महामारी जैसी विपदाओं के समय उन्होंने अपने युवा साथियों को साथ लेकर पीड़ितों की सेवा की। केशवराव जब डॉक्टरी की डिग्री लेकर नागपुर वापस आए तो उसे समय देश पर प्रथम विश्व युद्ध का संकट मंडरा रहा था। उन्हें लगा कि यही ठीक समय है जब क्रांतिकारी आंदोलन का संगठन कर अंग्रेज सरकार को चुनौती दी जा सकती है उसके लिए अनेक खतरे उठाते हुए वे आंदोलन में भाग लेते रहे पर उन्हें यह बात जल्दी ही समझ आ गई कि भारत जैसे बड़े देश में हथियारों से क्रांति लाकर विदेशियों को जड़ से उखाड़ नहीं जा सकता। अतः जितनी सावधानी से उन्होंने इस कार्य को फैलाया था उतनी ही सावधानी से धीरे-धीरे समेट भी लिया। इस काम में कई साल लगे। यदि एक रास्ते से सफलता नहीं मिली तो वह उससे निराशा या हताश नहीं हुए, देशभक्ति और बिना किसी लालच के भाव से काम में लगे रहना तो उनका स्वभाव ही था।[6]

सन 1915 से 1920 तक नागपुर में रहते हुए डॉक्टर साहब ने राष्ट्रीय आंदोलन में खूब काम किया। वह घूम-घूम कर खूब सभाएं और बैठके किया करते थे। किंतु युवाओं में पूर्ण स्वतंत्रता की आग धधकाने पर विशेष ध्यान देते थे। अपना काम पूरे मन से करना, सहयोगियों को जोड़ना और बिना किसी लालच के भाव से काम करने के उनके गुण के कारण नेता लोग उनके सहयोग को बहुत महत्वपूर्ण मानने लगे। डॉक्टर साहब को जो समझ आता था उसे बिना घूमाए वह बड़े नेताओं के सामने रख देते थे। सन 1920 के अधिवेशन में उनके व्यक्तित्व पर सब का ध्यान गया और उनके विचार अलग होते हुए भी संस्था के अनुशासन का पालन करने जैसा उनका एक विशेष गुण सबको देखने को मिला।

नागपुर में पुलिस ने हेडगेवार एवं डॉ मुंजे के घरों की दो बार तलाशी ली थी परंतु उन्हें कुछ भी हाथ नहीं लगा। इस प्रकार सरकार हेडगेवार के बारे में सब कुछ जानते हुए भी कुछ कर सकने में असमर्थ महसूस कर रही थी।

क्रांतिकारी आंदोलन में अपनी भूमिका के साथ-साथ डॉक्टर साहब ने बंगाल के दो जन आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से भाग लिया था। सन 1911 में दिल्ली दरबार के बहिष्कार आंदोलन में वह शामिल हुए थे तो वहीं 1914 में सरकार द्वारा राष्ट्रीय मेडिकल कॉलेज की डिग्री न मानने के खिलाफ जबरदस्त जनमत तैयार करके आंदोलन भी उन्होंने चलाया था।

सरकार के निर्णय के पीछे नेशनल मेडिकल कॉलेज के छात्रों की क्रांतिकारी प्रवृत्ति मुख्य कारण रही थी। आनंद बाजार पत्रिका ने 16 नवंबर 1915 को संपादकीय लिखकर इस कानून का विरोध किया। पत्रिका के संपादक मोतीलाल घोष ने हेडगेवार को हर तरह की मदद देकर आंदोलन को मजबूत स्वरूप प्रदान किया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी भी आंदोलन को मजबूत स्वरूप प्रदान कर रहे थे। सुरेंद्रनाथ बनर्जी भी आंदोलन से जुड़ गए एवं कलकत्ता में विशाल जनसभा आयोजित की गई, हेडगेवार ने नागपुर पहुंचकर इस आंदोलन के समर्थन में सभा का आयोजन किया और इसमें बिल के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया। अंतत सरकार को 1916 में ही इस काले कानून को वापस लेना पड़ा।

‘इस समय हमारे हिंदू समाज और राष्ट्र को कमजोर और जर्जर करने के लिए अनेक शक्तियों काम कर रही हैं। उनका एक प्रयास यह होता है कि हिंदू समाज के भीतर झगड़ा करवाए जाएं और वे जान बूझकर झूठा  और विकृत प्रचार कर किसी समूह की भावना को भड़काते हैं। इसके लिए उन्हें विदेश से भरपूर पैसा मिलता है। यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि इसके पीछे राजनीतिक मंसूबे भी रहते हैं’।[7] झुग्गी- झोपड़ियों  में तथा वन आंचल में रहने वाले हमारे बंधुओं को उनकी नजरअंदाज की हुई स्थित, उनके लिए हुए विषमतापूर्ण व्यवहार तथा समाज में फैली भीषण गरीबी और बेरोजगारी की बातों को लेकर असंतोष भड़काया जाता है, दूसरी ओर पैसे का लालच दिखाकर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से काटने का योजनाबद्ध  प्रयास चल रहा है। मुसलमान द्वारा हिंदू समाज के इस वर्ग को अपने साथ जोड़कर एक राजनीतिक दल भी खड़ा किया जा रहा है। इसके आड़ में अलगाववाद वह परस्पर विद्वेष खड़ा करने का प्रयास है। इसका सामना करने के लिए संघ धार्मिक नेताओं, विद्वानों और निः स्वार्थ समाज सेवकों के सहयोग से राष्ट्रीय जीवन में समरसता व आत्मीयता भरने देशव्यापी प्रयास कर रहा है। यह अनुभव सिद्ध है कि हिंदुत्व के आधार पर आपसी विश्वास निर्माण करने के प्रयास सफल हो रहे हैं और इस कार्य में समाज का भी भरपूर सहयोग मिलता है।

[1] राकेश सिन्हा, आधुनिक भारत के निर्माता: डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली, चतुर्थ संस्करण, 2016, पृष्ठ 01

[2]  दत्तोंपंत ठेंगडी, संकेतरेखा, जानकी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1992, पृष्ठ 86

[3] सी. पी. भिशीकर, डॉ. हेडगेवार परिचय एवं व्यक्त्तित्व, सुरुचि प्रकाशन, केशवकुंज, झंडेवालान, नई दिल्ली, संस्करण, 2023, पृष्ठ 6

[4] त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, थर्टी ईयर्स इन प्रिजन, पृष्ठ 277-78, अल्फा बीटा पब्लिकेशन, कलकत्ता, 1963

[5]  राकेश सिन्हा, आधुनिक भारत के निर्माता: डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग, चतुर्थ संस्करण, 2016, पृष्ठ 18

[6] सी. पी. भिशीकर, डॉ. हेडगेवार परिचय एवं व्यक्त्तित्व, सुरुचि प्रकाशन, केशवकुंज, झंडेवालान, नई दिल्ली, संस्करण, 2023, पृष्ठ 7

[7] सी. पी. भिशीकर, डॉ. हेडगेवार परिचय एवं व्यक्त्तित्व, सुरुचि प्रकाशन, केशवकुंज, झंडेवालान, नई दिल्ली, संस्करण, 2023, पृष्ठ 79

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